Monday 4 May 2015

कांड 3- हुस्न, जवानी व इश्क


Cover Model: Madhuri Gautam Photography by Vicku Singh Gaurav Sharma & Rishu Kaushik Makeup by Gagz Brar
मुझे बचपन में देखकर लोग कहा करते थे कि मैं अमर-बेल की तरह बढ़ती जा रही हूं। मैं पूरे पंद्रह साल व छ: महीने की हो गई थी। ये इतने साल बीतने का अहसास ही नहीं हुआ था। पंद्रह साल जैसे पंद्रह साल तो लगते ही नहीं थे। ऐसे लगता था जैसे पंद्रह सैकिंड हों। मैं अल्हड़ व भोली-भाली सी थी। मेरे चेहरे से मासूमियत ही मासूमियत झलकती रहती थी। मेरे बदन ने बचपन को विदा करके जवानी का स्वागतम ताजा-ताजा ही किया था। यौवन किसे कहते हैं, इसका मुझे पता ही नहीं था। हां, इतना ही जानती हूं कि उस समय सूर्य को देखकर मेरा दिल किया करता था कि उसे पकड़ कर साबुत निगल जाऊं। नहाते समय या कपड़े बदलते समय शरीर गर्मागम भाप छोडऩे लग जाता था। सारे शरीर में से सेंक निकलते लगता। शरीर का प्रत्येक अंग गर्माहट छोड़ता। अपने अंदर धधक रही आग को बुझाने के लिए मेरा बर्फ के पहाड़ पर लेटने को दिल चाहता। बार-बार पानी पीना, बहुत प्यास लगना। दिल में आता कि कोई बहुत बड़ा समुंदर हो, कोई महासागर तथा मैं उसे एक ही घंूट में पी जाऊं ताकि मेरी प्यास बुझ सके। भटकन, एक प्यास सी हर समय लगी रहती थी। शायद इस आग का नाम ही जवानी होगा।


मेरे हाथ-पांव बढऩे लगे थे। आज कु त्र्ती सिलवाती, कल वह तंग हो जाती थी। तंग होकर आए दिन मेरे वस्त्र तार-तार होते रहते। चाहे चेहरे की रंगत पहले से ज्यादा लाल हो गई थी, लेकिन फिर भी मुंह देखने को कमजोर नज़र आने लगा था। पेट अंदर की ओर हो रहा था तथा छातियां बाहर को निकल रही थीं। मेरे जिस्म की बाहरी दिखावट ने इस तरह मेरे जवान होने का ढिंढोरा पीटना  शुरु कर दिया था, तथा अंदर से .... हां अंदर से भी कब का ऐलान हो चुका था। जब मेरी उम्र तेरह साल की थी, मैं लड़कियों के साथ खेल रही थी कि मेेरी सहेली रजनी मेरे पास आकर मेरे कान में कहने लगी, ''अरे शाजीया तेरे कपड़े आए हुए हैं।"

''कपड़े? कौन से कपड़े? कहां? किसके पास आए हैं?"  मैंने हैरान होते हुए पूछा था।

''वह कपड़े  नहीं, मेरा मतलब है कि तुझे माहवारी यानी मैन्सिटरुअल पीरीयड़स् आए हुए हैं। पीछे देख तेरी सलवार खून से सनी पड़ी है।"

मैंने अपनी सलवार को हाथ लगाकर देखा तो वह नीचे से खून से भरी पड़ी है। अपने शरीर से निकलते खून से मैं बेखबर थी।  मुझे तो दौडऩे दो टॉयलैट की ओर। रजनी मेरे साथ-साथ थी। इतना शुक्र है कि हमें किसी और ने नहीं देखा था। मुझे मासिक धर्म के बारे में कोई जानकारी नहीं थी तथा न ही मुझे किसी ने कु छ बताया था। मैं घबरा गई कि मेरे बिना किसी चोट बगैरा लगे ही खून क्यों निकलने लग गया। मैं पाखाने में खड़ी रो रही थी। ''हाय अमी ये क्या हो गया, अरे रजनी, अब क्या होगा?"

''अच्छा, तो तेरे पहली बार हुआ है। चिंता न कर सभी औरतेां के हर महीने इसी तरह खून निकलता है। आजकल तो मेरे भी आए हुए हैं, यह देख दिखाऊं।"
  
इतना कहकर रजनी ने अपनी पैंट का बटन व जिप खोली तथा निक्क र सहित पतलून नीचे करके दिखाई। उसमें ऑलवेज का पैड खून से लथपथ हुआ पड़ा था। उस लथपथ पैड को रजनी ने कूड़ेदानी में फैंक दिया तथा अपनी जेब में से निकाल कर नया पैड उसकी जगह रखकर निक्कर पहन ली। एक पैड उसने मुझे दे दिया तथा उसे मैंने अपनी निक्क र में टिका कर निक्कर ऊपर खींच ली तथा सलवार ऊपर करके नाड़ा बांध लिया। नल पर हाथ धोते समय रजनी ने मुझे बताया कि '' बस तीन-चार दिन ये खून बूंद-बूंद करके निकलता रहता है। पहले दो दिन तेज होता है तथा फिर धीमा हो जाता है।"

''अच्छा, तो ये हर महीने ऐसा हुआ करेगा।"  मैं बुरी तरह डर गई थी। 

''हां, औरत को बच्चा जनने के काबिल बनाने वाले अंडकोष जो कोख में पैदा होते हैं, वे हर महीने बाद नए बनते हैं तथा पुराने अपनी मियाद पूरी करके अपने आप फूटते रहते हंै। वे अंडकोष खून के बने होते हैं। जिस कारण अंदर नष्ट हुए अंडकोषों का खून बहकर योनि के रास्ते बाहर निकल आता है। इसी को 'मासिक-धर्म'  कहा जाता है।"

'' अरे....रे, तो ही, तो ही मेरी तो जान ही निकल गई थी। मैने कहा पता नहीं क्या हुआ है? लेकिन फिर भी इस रक्तस्राव को कपड़े आना क्यों कहते हैं?"

रजनी अपने ज्ञान की धाक जमाने के लिए मजाक के मूड में बताने लगी, ''पुराने  जमाने में जब पैड की खोज नहीं हुई थी, तब औरतें कपड़े खराब होने से बचने के लिए कोई पुराना कपड़ा अपनी सलवार में रख लेती थी। कोई बड़ी उम्र की औरत लड़कियों को वह कपड़े लाकर देती, इस लिए पीरीयड़स को ''कपड़े आना"

कहा जाने लगा। जिस तरह तुम कपड़े आने के अर्थ से अंजान थी, कई और भी तेरी तरह अंजान होते हैं। तुझे एक लतीफा सुनाती हूं। एक बार किसी बुद्धू से व्यक्ति का विवाह हुआ तो सुहागरात को उसकी घर वाली कहने लगी कि मुझे हाथ न लगाना, नहीं तो तुहें 'खून की होली' खेलनी पड़ेगी। मुझे कपड़े आए हुए हैं। उस मूर्ख व्यक्ति को इसका मतलब नहीं पता था। सुबह वह अपनी मां से पूछने लग गया कि, ''माता रात को गुलाबो कहती थी कि मुझे कपड़े आएं हैं, क्या मेरे लिए भी कोई कमीज-पजामा आया है या नहीं।"  उसकी मां तो शर्म के मारे वहां से उठकर ही भाग ली।

''अरे रजनी, तू भी बात करते समय हद से आगे चली जाती है। सच में अज्ञानतावश कई बार व्यक्ति अपना मजाक खुद ही बना लेता है। मैंने मजाक में रजनी के कंधे पर हाथ मारते हुए कहा।"

कु दरत ने मुझे पहले ही जवानी का ताज पहना दिया था। वैसे तो यौवन फूटने पर सभी लड़कियों पर निखार आ जाता है। मेरी दूसरी बहनेें भी कम नहीं थीं, लेकिन मैं कु छ ज्यादा सुंदर हो गई थी। हाथ लगाने पर मैली होती थी। हर तरफ मेरी खूबसूरती की चर्चा होती थी। किनारों पर खड़े होकर समंदरों में आग लगा देने वाला हुस्न बशा था मुझे खुदाबंद करीम ने। वैसे अपनी सुंदरता का आभास तो मुझे बहुत पहले ही हो गया था। पहली बार उस समय हसीन होने का अहसास हुआ था,जब मैं दस साल की थी। मेरे विरोधी लिंग ने एकाएक मुझमें दिलचस्पी लेनी शुरु कर दी थी। जिन लड़कियों के साथ मैं घुमा-फिरा करती थी, उन लड़कियों की बजाए लड़के मेरी परिक्रमा करते हुए नहीं थकते थे। थोड़ी और बड़ी होने पर मैंने जान लिया था कि भगवान ने मुझे सुंदरता के वरदान से नवाजा है। स्कूली बच्चों को सड़क पार करवाने वाला बुजुर्ग ट्रैफिक कंट्रोलर, जिसे हम 'लौली पॉप मैन' कहा करते थे, वह बामुश्किल चल सकता था, लेकिन मुझे सड़क पार करने के लिए खड़ी देखकर लंगड़ा कर चलता हुआ वह तेजी से मेरे पास आता तथा मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सड़क की दूसरी ओर छोड़ आता था।

कई शरारती किस्म के अध्यापक भी आने-बहाने मेरी पीठ सहलाते या किसी न किसी तरह मेरे शरीर को छूने की अक्सर कोशिश करते रहते थे। होम वर्क न करने पर मुझे कु छ नहीं कहा करते थे। जबकि दूसरी लड़कियों के पूरे कान खींचा करते थे।

अच्छा चलो अब एक आईसक्रीम बेचने वाले का किस्सा सुनाती हूं। गर्मियों में आईसक्रीम बेचने वाले अपने ठेले लेकर सड़कों पर फेरी डालते रहते हैं। एक बार कु ल्फियां बेचने वाले एक भाई ने मुझे दरवाजे में खड़ी देख लिया था। उसी दिन से उसने तो हमारे घर के सामने डेरा ही लगा लिया। वह हर रोज आकर हमारे घर के सामने अपनी आईसक्रीम वाली वैन खड़ी करके हमारे घर की ओर देखता रहता। खेलने या किसी और काम से जब भी मैं घर से बाहर निकलती तो उसकी आंख मुझ पर ही टिकी रहती। उसे कु ल्फियां बेचनी ही भूल जाती थी। उसके पास कु ल्फी लेने आए लोग इंतजार करते रहते तथा फिर बिना लिए ही उसे बुरा-भला कहते वापिस चले जाते। बड़े तमाशे होने लगे। इसी तरह वह एक दिन हमारे घर के सामने अपनी वैन लेकर खड़ा था। मेरा आईसक्रीम खाने को दिल किया। मैं अमी से खुले पैसे लेकर आईसक्रीम लेने चली गई। हमारे पड़ोसियों की लड़की मिक्की, मुझसे पहले उसके पास आईसक्रीम लेने गई हुई थी। उसे छोड़कर आईसक्रीम वाले भाई ने मुझ से पूछा, ''आईए....आईए...., हां जी, फरमाईए, क्या चाहिए ?"

मुझ से आगे होने के कारण मिक्की बोल पड़ी, ''मेरा नंबर है, पहले मुझे दो, ये मुझसे बाद में आई है।"  

''ठीक है तुझे ज्यादा जल्दी है तो पहले तुझे ही दफा करता हूं।"  भाई का मुंह भुने हुए बैंगन की तरह हो गया था। उसकी आईसक्रीम एक बड़े से ड्रम में भरी हुई थी तथा उसमें नीचे की ओर टूंटी लगी हुई थी। इसका बटन दबाने पर आईसक्रीम निकलती थी। मिक्की को वह थोड़ी सी आईसक्रीम डाल कर रुक गया। मिक्की ने उस से आग्रह किया, ''भाई क्यों कंजूसी करते हो, थोड़ी सी आईसक्रीम और डाल दो।"

वह भाई मिक्की को गिल्ली की तरह उछल कर बोला, ''पैसे ला फिर और, पौंड का तो यही कु छ आता है।"

''पैसे तो और नहीं हैं।"  चल फूट फिर यहां से, आईसक्रीम भी और नहीं है।

मिक्की बेचारी थोड़ी सी आईसक्रीम लेकर ही अपने रास्ते चली गई। जब मेरा नंबर आया तो उस भाई ने मुझ पर अपनी नज़र कील की तरह गाढ़ ली। आईसक्रीम वाले की आई बोलिंग (तिरछी नज़र) देखकर मैंने शर्म से नज़रें नीचीं करके पैनियां (खुले पैसे) उसकी तरफ बढ़ाईं, ''ले भाई पचास पैनियां।" 

''पहले आईसक्र्र्र्र्र्रीम तो ले लो, पैनियां भी आ जाएंगी, कौन सा भागकर जा रही हैं मालिक जी।"   वह आईसक्रीम डालने लग गया। कोन टूंटी के नीचे करके आईसक्रीम भरते समय भी वह मेरी ओर देखता रहा। मैंने धरती पर गढ़ी अपनी निगाहें ऊ पर नहीं उठाई थीं। पांच-सात मिनट बीतने पर भी जब उसने मुझे आईसक्रीम नहीं पकड़ाई तो मैंने अपना सिर ऊपर उठाकर देखा, 

''भा....ई…."  एकदम से मेरे मुंह से चीख सी निकली तो वह भी आश्चर्यचकित हो गया। आईसक्रीम कोन में तो गई ही नहीं थी। हुआ ऐसे कि भाई ने कोन पकड़कर टूंटी खोली और देखने लगा मेरी ओर। उसने बटन तो दबाए रखा लेकिन यह नहीं देखा कि आईसक्रीम कहां गिर रही है। कोन की जगह सारी आईसक्रीम नीचे उसकी वैन में ही उसके पैरों पर गिरती रही। क्योंकि उसने बटन से हाथ नहीं उठाया था, इसलिए उसका सारा ड्रम खाली हो गया था। नीचे गिरी आईसक्रीम देखकर उसने आस-पास देखा कि कहीं उसे कोई और तो नहीं देख रहा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे? मैं भी दांत निकालने लग पड़ी। मुझ से तो रोकने से भी अपनी हंसी नहीं रुक रही थी। वह बेचारा कच्चा सा होकर वहीं रूका नहीं। वैन भगाकर उसने तो वहां से निकलने में ही भलाई समझी। उस दिन के बाद वह फिर कभी हमारी गली में नहीं आया।

औलमरौक रोड हो, लेडी पूल रोड या स्टैटफरड रोड, जहां से भी मैं आया-जाया करती थी, लोग अपने काम-धंधे छोड़कर बैठ जाया करते थे। एक बार मैं स्टैटफरड रोड़ के किनारे बने  फु टपाथ पर जा रही थी। एक कार वाले नौजवान की नज़र मुझ पर पड़ी और वह मेरी ओर देखने लगा। मेरे पास से गुज़रते समय उसने मेरा ध्यान खींचने के लिए कार की टेप की आवाज ऊंची कर दी। ऐसे ही बिना मतलब की उसकी इस हरकत पर मुझे हंसी आ गई। मुझे मुस्कराता देख कर उसे बेहद खुशी हुई। उसने समझा होगा पटा ली कबूतरी। वह कभी सड़क पर गाड़ी आगे ले जाए तथा फिर धीरे-धीरे पीछे ले आए। मैं अपने रास्ते चलती गई। आगे चौक में ट्रैफिक लाइटों पर लाल बत्ती हुई पड़ी थी। कारवाले की गाड़ी चलाते समय नज़र मुझ पर ही थी। उसने आगे देखा नहीं तथा धड़ाम से खड़ी गाडियों में ठोकर मारी और अपनी कार तुड़वा ली। मैं वहां भरे बाजार में ही सड़क पर जोर-जोर से हंसती रही। मैंने कहा, ''आशिक जी, और करो आंखें गर्म, अब कार मैकेनिकों की जेबें गर्म होंगी।"

मेरे इस व्यंग पर वह झेंप कर रह गया था। छोटी होते समय मैं एक पंजाबी गीत सुनती थी,  ' टुट पैणे दर्जी ने मेरी रख ली झग्गे (कुर्ती) में से टाकी (छोटा पीस)। मुझे ताज्जुब होता कि दर्जी ने टाकी रख कर क्या करना होता था? यह बात मुझे तब समझ आई जब अमी ने पाकिस्तान से आये किसी जवान उम्र के दर्जी से मेरा सूट सिलवाया। उसने मेरे सूट में से कपड़ा रख कर उसके रुमाल बना-बना कर उन सब लड़कों को बेच दिये, जो मुझ पर मरते थे। ईद के दिनों में सखी-सहेलियों के साथ जब मैं तैयार-वैयार होकर सिटी सैंटर में चक्क र लगाती तो गोरीयां भी मुझे देख कर जल-भुन जाती थी, क्योंकि लड़के तो मुझ से आंख ही नहीं हटाते थे। गोरीयां तो बेचारी जान बूझ कर सैक्सी कपड़े पहन-पहन कर अंग प्रदर्शन करतीं थीं, ताकि नौजवान उनके पीछे घूमने लगें। साधारण से पंजाबी सूट में मेरा बदन ढका होने के बावजूद भी लड़कों की भीड़ मेरे पीछे लगी रहती थी। इस तरह की अद्र्धनग्न वस्त्रों वाली लड़कियों को देखकर मैं सोचा करती थी कि समय के बदलने से लोगों की सोच में किस तरह बदलाव आ जाता है। द्वापर युग में पांडवों की ओर से जुए में हार दी गई द्रोपदी का दुर्योधन की भरी सभा में चीर-हरण किया गया था। दुर्योधन अपनी बेइज्ज़ती का प्रतिशोध लेने के लिए द्रोपदी को सबके  सामने नंगा करना चाहता था तथा द्रोपदी ने अपनी लाज बचाने के लिए श्री कृष्ण भगवान को पुकारा था। श्री कृष्ण ने अपनी लीला से द्रोपदी की साड़ी इतनी लंबी कर दी थी कि दुर्योधन का भाई दु:शासन साड़ी खींचता-खींचता थक कर चूर हो गया था, लेकिन साड़ी लंबी से लंबी होती गई तथा वह खत्म ही नहीं हुई थी। एक वह समय था जब औरत का नंगा होना घटिया समझा जाता था तथा एक यह कलियुग का समय है, जब औरतें खुद-ब- खुद अपने कपड़े उतार कर नंगी होने पर तुली बैठीं हैं। आज के युग में औरतों का अपने जिस्म की नुमाईश करना फैशन बन गया है। इंगलैंड व अन्य पश्चिमी देशों में जगह-जगह ऐसे क्लब बने हुए हैं, जहां अय्याश मर्दों के सामने औरतें अपने वस्त्र उतारकर बिल्कु ल नंगी होकर नाचती हैं। इस तरह नाचने वाली औरतों को स्टरपटीज़ कहा जाता है।
उपग्रह से चलने वाले बालिगों के एक चैनल पर तो मैंने यहां तक देखा है कि न्यूज़ रीडर समाचार पढऩे आती है तथा जैसे-जैसे समाचार पढ़ती है, वैसे-वैसे एक-एक करके अपने शरीर से कपड़े उतारती जाती है। समाचारों के अंत में मौसम का हाल बताते समय तक उसके शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं होता है तथा इस हालत में वह बताती जाती है, ''बारिश होगी, बर्फ पड़ेगी, तापमान माईनस 16-17 डिग्री सैलसियस तक पहुंच जाएगा अर्थात् बहुत ज्यादा ठंड हो जाएगी।" 

मेरा न्यूज़ रीडर को ऐसा कहते समय दिल करे कि उस से अच्छी तरह पूछूं कि भई अगर इतनी ठंड हो जानी है तो हरामजादी तू क्यों कपड़े उतार कर खड़ी है। तूने बीमार होना है क्या एक्सपोज (नंगी) करके, क्या तुझमेें ज्यादा गर्मी है? दरअसल वे भी क्या करें? उनका तो काम है। मनचले लोग उन नंगी औरतों के शरीरों को देेखकर अपना दिल बहलाते हैं। टी.वी. चैनलों वाले नोट कमाते हैं तथा ऐसी लड़कियां अपने मन की अय्याशी पूरी करती है।

इसी तरह के विचारों वाली हिंदी फिल्मों की एक अभिनेत्री ममता कु लकर्णी से किसी पत्रकार ने पूछा, ''आप अंग प्रदर्शन करते समय जरा भी परहेज क्यों नहीं करते?"  

इसके जबाब में ममता कहने लगी, ''जब भगवान ने मुझे खूबसूरत शरीर दिया है तो मैं उसे लोगों को क्यों न दिखाऊं, इसमें हर्ज ही क्या है?"  

कहते हैं कि इस पर उस पत्रकार ने उस से कहा कि आप आधे कपड़े क्यों उतारती हैं, सारे ही उतार दिया करो ताकि लोग जी भरकर तुहारे पूरे जिस्म की खूबसूरती का आनंद ले सकें। बात भी उसकी सही थी कि स्टारडस्ट मैगज़ीन के कवर पेज़ के लिए टॉपलैस होकर फोटो खिंचवा कर लोगों को तडफ़ाती क्यों हो, नीचे के कपड़े भी उतार कर अपने सारे एसिटस (अंग) दिखा दिया करो ताकि लोग तुहारे सारे जिस्म की सुंदरता के दर्शन करके निहाल हो जाएं।

मेरे विचार में यह धारणा बिल्कु ल गलत है कि वस्त्र उतारकर ही शरीर की सुंदरता दिखाई जा सकती है।  सुंदरता तो कपड़े पहने हुए भी छिपी नहीं रहती। अपने आप ही सामने आ जाती है। असल में कपड़े तो उन जिस्मानी अंगों को भी सुंदर बनाकर पेश करते हैं, जो सच में सुंदर नहीं होते। वस्त्र उतारने पर तो शरीर की कुरूपता व कमियां झलकती हैं। महान् विचारक खलील जिब्रान भी इसकी प्रौढ़ता करता हुआ कहता है, ''कपड़े वह सब नहीं छिपाते जो सुंदर होता है बल्कि उसे ढंकते हैं जो सुंदर नहीं होता।"  

बहरहाल मैं अपने साथ वाली लड़कियों के बारे में बता रही थी। बस में जिस सीट पर मैं बैठती थी, उसके आस-पास की सीटों पर लड़के छावनी डालकर बैठ जाया करते थे। हमारे मुहल्ले में लड़कों के गश्ती झुंड आम तौर पर ही मंडराते रहते थे। लड़के मक्खियों की तरह मेरे आस-पास भिनभिनाते रहते थे।
दुनिया का महान् वैज्ञानिक न्यूटन एक दिन बा$ग में बैठा था। उसने देखा पेड़ से टूटकर एक सेब नीचे गिरा। यह देखकर न्यूटन को हैरानी हुई कि सेब नीचे ही क्यों गिरा, ऊपर क्यों नहीं गया। उसने इस पर बहुत खोज की तथा पता लगाया कि धरती में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति होती है। इस कारण धरती प्रत्येक वस्तु को अपनी ओर खींच लेती है। मैं कहती हूं कि यह गुरुत्वाकर्षण शक्ति धरती में ही नहीं बल्कि सभी सुंदर वस्तु में भी होती है। कितनी भी सुंदर से सुंदर लड़कियों का झुंड मेरे आस-पास झुरमुट डालकर खड़ा होता, लड़कों की नज़र मुझपर टिकती तथा वहीं जम जाती। लड़कियां मुझे छेड़ती, ''अरे शाजीया, तुझ में तो धरती से भी ज्यादा गुरुत्वाकर्षण शक्ति है।"

''सच्च! मुस्लिम औरतों तथा इमारतों, दोनों की सुंदरता का ही कोई मुकाबला नहीं होता।" कोई दूसरी लड़की कहती।

अंग्रेज सहेलियों के मुंह से ऐसी बातें सुनकर मेरा सिर शान से ऊंचा हो जाता। दूसरी लड़कियां सुंदर दिखने के लिए कई तरह के पाऊडर, क्रीम लगातीं थीं, पर मैंने कभी कु छ नहीं लगाया था। भगवान ने मुझे हुस्न की सौगात से लाद कर भेजा था। मुझे किसी अन्य चीज़ की आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई थी। मुझे सुंदरता की देवी 'एफरोडाईट'  का रूप कहा जाता था। प्रसिद्ध हसीन औरतों से मेरी तुलना की जाती थी। कई लड़के तो संसार की सबसे सुंदर पांच-दस स्त्रियों में मेरी गणना करते थे। मुझे मिस वर्ड या मिस यूनीवर्स का खिताब तक बश देते थे।

स्कूल में भी इसी तरह का माहौल हुआ करता था। मेरे सहपाठी लड़कों को गश पड़ जाता था मुझे देखकर। वह मुझे आदमी को मार देने वाला लीथल वैपन (हथियार) कहा करते थे। ऐसा एक भी जवान लड़का मेरे ध्यान में नहीं आता जो मुझ पर मरता नहीं था। क्लास में लिखते समय अगर मेरी पैंसिल का सिक्का टूट जाता तो सभी लड़के अपनी तराशी हुई पैंसिल लेकर मेरे पास पहुंच जाते। हर कोई मेरे काम आने के मौके तलाशता रहता था। मुझे बहुत अच्छा लगता। मुझे ऐसा एहसास होता जैसे मैं कोई राजकु मारी हूं। कई लड़कियां मेरी किस्मत से जल-भुन जातीं थीं।

एक अंगे्रज लड़की एंजेला मेरी क्लास-फैलो (सहपाठी) थी। वह जमैकेन लड़के स्टेन से मित्रता करना चाहती थी। लेकिन स्टेन मुझ पर आशिक हुआ समझता था, कि शायद मैं उसके साथ फंस जाऊंगी। ये जो नीग्रो लोग होते हैं न इन्हें खुद के बारे में शायद खुशफहमी होती है कि भगवान ने प्रत्येक 'बड़ी चीज'  उनको ही दी है। जबकि हकीकत में ऐसा कु छ भी नहीं होता। ये महज एक भ्रम होता है। इस भ्रम के बहुत से लोग (आमतौर पर औरतें, जिनमें से ज्यादातर अंग्रेज औरतें व कु छ एशीयन लड़कि यां भी) शिकार हो जाते हैं। इनको कोई  पूछे भई अगर काले (नीग्रो) इतने ही जांबाज होते हैं तो फिर काली (नीग्रो) औरतें गोरों या ऐशीयन मर्दों के पास क्यों जाती हैं। हमारे घर के सामने एक अफ्रीकन काले के साथ अफ्रोकरेबीयन काली रहती थी।  सुबह जब काले ने काम पर चले जाना तो पीछे से काली के पास एक गोरा आ जाता। सारा दिन गोरा वहां रहता तथा शाम को काले के आने से पहले वापिस चला जाता। डेढ़-दो साल से मैं यही सब कु छ होता देख रही थी। फिर एक दिन न्यूज़ एजैंट से अखबार लेकर आती हुई वह काली सैंडरा मुझसे टकरा गई। घर की ओर आती हुई ने मैंने उसे छेड़ लिया। वह लगी बताने, ''मैं तो इस अफ्रीकन हाथी के साथ भुलेखे में ही फंस गई। मैं तो समझती थी कि कितना बड़ा ऊंट जैसा है, तसल्ली करवा दिया करेगा मेरी। लेकिन कहां, इस भालू से तो कु छ भी नहीं होता (अपने अफ्रीकन पति को वह भालू कहा करती थी) मेरा तो कु छ भी नहीं बनता इसके साथ। विवाह के बाद दो तीन महीने बड़ी मुश्किल से काम चलाया। फिर ये गोरा मेरा बॉयफ्रंैड मिला तो कहीं जाकर तसल्ली हुई। नहीं तो यह  बिल्कु ल थोथा चना मेरे पल्ले पड़ गया था। सारी उम्र शारीरिक भूख मिटाने के लिए तरसती मर जाती।"

''विवाह से पहले नहीं पता था तुझे?"  मैंने सैंडरा को बीच में टोका था। 

''नहीं पहले तो ऐसे ही चूमा-चाटी करके ही बस कर देता था। मैं समझती थी कि विवाह के बाद ही इक्ठ्ठा सरप्राईज़ देगा। ले लो, दे दिया सरप्राईज़। ''गुडिय़ा, तुझे पता है हाथी के दांत जो दिखाई देते हैं बड़े-बड़े, वे तो सिर्फ दिखावे के लिए होते हैं,खाने वाले असली दांत तो और होते हैं छोटे-छोटे। वही इसका हाल है।

''तुझे डर नहीं लगता, अगर तुहारे भालू राम को किसी ने तेरे गोरे प्रेमी के बारे में बता दिया तो? मैंने शंका जाहिर की थी।"

 
''फिर क्या, मैं कौनसा डरती हूं? तुझे मैं सब बताती हूं। एक बार हमें, मतलब मुझे व मेरे गोरे आशिक को शाम को लेटे-लेटे नींद आ गई। हमारी आंख नहीं खुली व ऊपर से मेरे घरवाला काम निबटा कर आ गया। हमें उसने बैडरूम में इक्ठ्ठे लेटे हुए पकड़ लिया। पहले तो वह हमें मारने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन हम दोनों ने उसे पकड़ कर काबू कर लिया। फिर वह रोने लगा। मुझ से कहने लगा, ''क्या है इसके पास जो मेरे पास नहीं है?"  

''मैंने भी सीधा ही कह दिया बिना झेंप के, अपनी पैंट उतारकर इसके बराबर खड़ा होकर देख ले, तुझे अपने आप पता चल जाएगा। बस, तभी पड़ गया उसके सिरपर घड़ों पानी और बोला भी कु छ नहीं, उसे भी अपनी कमजोरी का पता चल गया था। पल्ले तो कु छ था नहीं, साला नामर्द। सारी रात मेरे पास रोता रहा। कहने लगा, मुझे छोड़ कर मत जाना। विवाह करवाया था उसके साथ, घरवाला था मेरा, मुझे भी तरस सा आ गया इस पर, तभी तो इसके साथ रह रही हूं। नहीं तो एक दिन भी नहीं काटती मैं ऐसे व्यक्ति के साथ। तथा फिर वो मेरा यार गोरा भी शादीशुदा है।" सैंडरा ने उदास मन से कहा।

बताना तो वह बहुत कु छ चाहती थी। लेकिन तब तक हमारा घर आ गया था। मैं सैंडरा को अलविदा कहकर सड़क पार चली गई। मैं नहीं चाहती थी कि अब्बा मुझे उसके साथ बात करते हुए देख लें, क्योंकि सारे मुहल्ले में उसकी बदचलनी के किस्से मशहूर थे। हम सबको सैंडरा के साथ बातचीत करने से अब्बा ने रोका हुआ था। अब्बा का याल था कि एक कीचड़ से सनी भैंस पूंछ हिलाकर दूसरी भैंसों को भी गंदा कर देती है। कबीर जी ने भी प्रवचन किया है, ''जो जैसी संगति मिलै, सो तैसो फल खाई।" बुरे से दूर रहकर ही इज्ज़तदार व्यक्ति बदनामी से बच सकता है।

सैंडरा जैसी चरित्रहीन औरत के साथ कोई कितनी भी इज्ज़तदार औरत जा रही हो तो लोग उस औरत को भी चरित्रहीन ही समझने लग जाते हैं। इस बारे में कारवैनटीज ने तो यहां तक कहा है कि  ''आप अपनी जान पहचान का दायरा बताओ,  मैं तुहें बता दूंगा कि तुहारा इखलाक (चरित्र) कैसा है। सैंडरा से मेल-जोल न रखने के अब्बा के विचार से तो मैं भी सहमत थी। बुरी संगत का व्यक्ति पर जरुर असर पड़ता है, चाहे थोड़ा बहुत ही पड़े।  मैं तो खुद ही उस से दूर रहती थी। ये तो अचानक इत्तफाक़  से मुलाकात हो गई थी उसके साथ। वैसे मैं कब मिलने वाली थी सैंडरा से।

इसके अलावा और भी मेरी क्लासफैलोज़, जिनके हब्शियों के साथ शारीरिक संबंध रह चुके थे, वे सब भी अपने कामुक तजुर्बों का जिक्र करते समय अपने मित्रों के गुप्तांगों के आकार के बारे तर्क रिपोर्टें दिया करती थी। सैंडरा ने जो कहा मैं उस से पूरा सौ प्रतिशत सहमत थी। क्योंकि इस संदर्भ में मुझे भी एक छोटा सा तजुर्बा हो चुका था। हमारी पी.ई. का अध्यापक भी एक अफ्रीकन था जो ऊंचा, लंबा जवान पूरा राक्षस जैसा। कम से कम छ: फीट तो होगा ही। उसे देखकर मैं सोचा करती थी कि वह तो अपनी घरवाली की चीखें निकलवा देता होगा। इसी कारण जब वह स्कूल पूल में तैरता होता तो मेरे लोचन (नयन) उसके स्वीमिंग ट्रंक पर ही टिके रहते थे। आंखों से मैं उसके गुप्त अंग के आकार का नाप लेती रहती थी। एक बार पानी से बाहर आते समय इत्तफाक़ न उसके ट्रंक की डोर टूट गई तथा पानी के दबाब से उसका कच्छा (निक्कर) उतर गया। उसके पास मैं पानी में तैरने के लिए पूल में जा रही थी। मेरी बिल्कु ल आंखों के सामने वह माईकल एंजलो के बनाए बुत की तरह नंगा खड़ा था। मैंने फटाफट अपनी आंखों पर हाथ रखकर उन्हें ढंक लिया था (पूरी नहीं ढंकी थीं, अंगुलियों के बीच में थोड़ी सी जगह रखकर उसमें से देखती रही थी)। सर ने फटाफट अपना कच्छा पहना तथा जल्दी से चेजिंग रूम में चले गए। उस दिन उन्हें देखकर मुझे हैरानी हुई थी। जो कु छ मैंने देखा वह मेरे मनो-विचार के आस-पास भी नहीं था, बहुत छोटा था।

खैर मैं स्टैन की बात बता रही थी। स्टैन इतना काला-कलूटा व कु रूप था कि मुझे कच्चे दूध जैसी को तो काले भूत की शक्ल से ही अलर्जी थी। वह तो पूरा सड़क पर डलने वाली लुक का ड्रम लगता था। कई लड़कियां तो उसे उसके काले रंग के कारण 'डीज़ल'  कहकर ही छेड़ा करती थीं। बड़े होठों वाले स्टैन का मुंह ऐसा था जैसे भगवान ने उसका चेहरा बना कर बाद में नाक पर मुक्का मार दिया हो। मुझे उस लंगूर जैसे के बारे में सोच कर ही उबकाई आने लगती थी। एक दिन क्लास में मेरे साथ डैस्क पर बैठी हुई ऐजंला कहने लगी, ''अरे शाजीया मुझ से तो स्टैन पटाया नहीं गया, चल तू ही फंसाले उसके साथ कुं डी। लट्टू है वह तेरे ऊपर।"

''कहां मैं हुस्न की रानी, मुसलमान तथा कहां वह टेढा-मेढा सा हब्शी, काला कलूटा, मुंह न माथा, काला जिन्न पहाड़ों लत्था (आया) । मेरी तो उसे जूती भी पसंद न करे। तेरी हिमत कैसे हुई ये सब कहने की....खबरदार, आगे से न मुझे ऐसी बात कहना।"  पहले तोलो फिर बोलो, ''मैंने ऐंजला की काफी खींच तान की।"

''तू फंसती नहीं तथा मुझे वह फंसाता नहीं, बिल्लो, हम गरीबों ने तो तुझे जॅफी में लेकर ही टाईम पास कर लेना है।"  ऐंजला ने मुझे अपनी बांहों में कस लिया था। और भी कई लड़कियां मुझे धक्के  से पकड़कर चूम लिया करती थीं। उनका कहना था, ''अरे मरजानी, हमें तो तू सुंदर ही बहुत लगती है।"  इस से आप अंदाजा लगा लें कि लड़कों का क्या हाल होता होगा।

रजनी नाम की एक भारतीय लड़की मेरी सहेली थी। वह हमारी क्लास के लड़के इकबाल के साथ घूमा करती थी। रजनी लालेआं (बनिए) की लड़की थी व इकबाल सिक्खों का लड़़का था। इकबाल भी मुझ पर ट्राई मारा करता था। पसंद तो मैं भी उसे बहुत करती थी। मध्यम कद-काठी, गेहुंआ रंग, तीखे नयन-नक्श, पूरा हार्ट थ्रोब था। बिल्कु ल मेरे पसंदीदा निकाह फिल्म के एक्टर राज बब्बर जैसा। कई बार तो मैं उसे राज बब्बर कहकर ही बुलाया करती थी। मेरी तो देखते ही सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाया करती थी। दिल जोर-जोर से धड़कने लगता। ऐसे लगता जैसे मेरे लिए ही वह दुनिया में आया था। और भी बहुत सारे सुंदर लड़के थे, लेकिन किसी और को देखकर वैसा कभी महसूस नहीं हुआ जैसा उसे देखकर होता था। वह मुझे सारी दुनिया से सुंदर लगता था।

औरत होना भी अपने आप में एक प्राप्ति है तथा खूबसूरत औरत होना महान प्राप्ति है। नाज-नखरे करने के अधिकार केवल हसीन औरत को ही प्राप्त होते हैं। मैं उन खुशकिस्मत औरतों में से एक थी। लड़कों को अंगुलियों पर नचाकर मुझे बड़ा मजा आता था। लेकिन हाय, एक इकबाल था जिसे देखकर मैं सब कु छ भूल जाती थी। जबकि मैं तो उसके हाथों की कठपुतली बनने को तैयार हो जाती थी।

जैसे किसी वस्तु को अगर हम आसमान की ओर फेंके तो वह धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण फिर धरती पर आ गिरती है। इसी तरह जब भी मैं इकबाल की मुहब्बत को अपने दिल में जगह देती तो एक भयानक डर उसे खींच कर मेेरे दिल से बाहर निकाल देता था तथा वह डर था मेरे व इकबाल के एक होने के बीच आने वाली मुश्किलें। मैं मुस्लमान तथा वह सिक्ख था। हमारे बीच धर्म का मजबूत बैरियर खड़ा था। यही हमारे मिलन के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट थी। हम स्टार-क्रॉस्ड लवर थे।

इकबाल मुझे सैट करने की अक्सर कोशिश करता रहता था। लेकिन मैं ही नहीं मानती थी। दिल से तो मैं उसे बहुत चाहती थी। लेकिन सहेली का आशिक होने के कारण अपने आपको रोक लेती थी। चाहे इस तरह अपने जज्बों को बांधकर रखना मेरे लिए बहुत ही दुखदायी व कठिन काम होता था, क्योंकि किसी को मुहब्बत न करना मुहब्बत करने से भी कई गुणा मुश्किल होता है, लेकिन मैं फिर भी किसी न किसी तरह अपने अरमानों को दबा लेती थी। ऐसा करने के पीछे भी मेरी मजबूरी थी। इकबाल को फांसकर मैं रजनी को खोना नहीं चाहती थी। इक बाल मेरे लिए रजनी को छोडऩे के लिए तैयार था। वैसे भी वे दोनों लोगों को दिखाने के लिए ही प्रेमी थे। असल में उनके बीच कोई प्यार-व्यार नहीं था। इंगलैंड के काफी संया में लड़के-लडकियां जवानी में इसी तरह करते हैं। यहां का माहौल ही इस तरह का है कि अगर लड़के के पास कोई गर्ल-फ्रैंड व लड़की के पास बॉय-फ्रैंड न हो तो फ्री सोसाईटी से संबंधित व आजाद याल वाले लोग ये समझने लगते हैं कि जरुर इस लड़के या लड़की में कोई कमी है, जिस वजह से इसकी किसी से कोई रिलेशनशिप नहीं है। इस लिए ज्यादातर लड़के-लड़कियां काम चलाने के लिए ऐसे ही कोई साथी बना लेते हैं तथा एक दूसरे से तब तक नाटक करते रहते हैं, जब तक असली इश्क करने वाला योग्य साथी नहीं मिल जाता। इकबाल व रजनी मित्रता का ढोंग कर रहे थे, इस असलियत को जानने के बावजूद भी मैं इकबाल व रजनी के बीच दूरी नहीं डालना चाहती थी।

साथ ही सबसे महत्त्वपूर्ण तो ये था कि मैं अभी तक इकबाल को स्वीकार करने या न करने के विचार को फैसलाकन व स्पष्ट रूप नहीं दे सकी थी। घडी के पेंडूलम की तरह मेरी सोच एक जगह नहीं टिकती थी। कभी एक तरफ व कभी दूसरी तरफ हो जाती थी।

लगभग उसी समय भारतीय फिल्म निर्देशक जे पी दत्ता ने 1971 में भारत व पाकिस्तान में रेगिस्तान के ईलाके 'लुंगीवाला सैक्टर' में हुई लड़ाई पर आधारित फिल्म 'बॉर्डर'  बनाई थी। इसमें दिखाया गया था कि 'पंजाब बटालियन के दो सौ जवान, छ: हजार दुश्मनों की फौजी पलटन को बिना हवाई फौज की मदद के पूरी रात बार्डर (सरहद) पार करने से रोके  रखते हैं तथा ज्यादातर फौजी जवान वतन की इज्जत-आबरु की रक्षा करते हुए हंसते-हंसते शहादत के जाम पी जाते हैं। लेकिन किसी हाल में भी वह दुश्मन फौज के मंसूबों को कामयाब नहीं होने देते। 'बॉर्डर'  फिल्म में पाकिस्तानी फौज को खलनायक की भूमिका में पेश किया गया था, इसलिए इंगलैंड में बसने वाले पाकिस्तानियों को यह फिल्म बहुत अखरी थी। खासकर वह सीन जिसमें मेजर कुलदीप सिंह के रोल में सन्नी देओल पाकिस्तानी फौज को गालियां निकाल रहा होता है। कु छ पाकिस्तानी जनूनी व कट्टर पंथी लोगों ने उन दुकानों को जलाया जिन पर इस फिल्म की वीडियो कापियां मौजूद थीं। उन्होंने दंगे फसाद करके फिल्म के प्रदर्शन को रोकने का असफल प्रयत्न किया था। सिनेमा व वीडियो लाईब्रेरियां ज्यादातर भारतियों की थीं। इस तरह तब दोनों भाईचारों में तनाव काफी बढ़ गया था।

उसी समय भारत ने पोखरन (राजस्थान) में अपने परमाणु बम का परीक्षण किया व जवाब में पाकिस्तान ने भी अपने परमाणु बम परीक्षण किए। जिस से दोनों देशों में युद्ध होने के आसार काफी साफ नज़र आने लगे थे।

इसके बाद भारत ने दोस्ती का हाथ बढ़़ाया तथा अमृतसर से लाहौर को बस सर्विस शुरु करने की पेशकश की तथा जिसे पाकिस्तानी सरकार ने काफी गर्म जोशी से लिया। दोनों देशों के संबंध सुधरने की हर एक को आशा दिखने लगी। भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी खुद सवार होकर पहली बस लेकर लाहौर आए तो लगभग उसी समय पाकिस्तानी खुफ ीया ऐजैंसी आईएसआई के खरीदे हुए भाड़े के टट्टू आतंकवादियों के द्वारा कश्मीर पर कब्जा करने के इरादे से कारगिल क्षेत्र में जंग छेड़ दी गई। भारतीय फौजियों ने अपनी जान पर खेल कर न सिर्फ दुश्मन के दांत खट्टे करके अपनी बहादुरी का सिक्का मनवाया बल्कि पाकिस्तान को अपनी गंदी व षडय़ंत्रपूर्ण चालों को चलने से बाज रहने का संदेश भी दिया। इस अवसर पर पाकिस्तान का समर्थक अमेरिका भी भारत के पक्ष में बोला।

उस दौर में पाकिस्तानियों व भारतियों के बीच दूरी बढ़ाने में एक और मसला भी कारण बना था। हुआ यह था कि कुछ मुसलमान लड़कों के द्वारा सिख लड़कियों को बरगलाकर (भ्रमित)  घरों से भगाने, उनका धर्म परिवर्तन करवाकर इस्लाम ग्रहण करवाने, तथा उनकी इज्जत आबरू से खेलने की घटनाएं पूरे देश के अलग-अलग हिस्सों में घटित हो रही थीं। इस मामले को लेकर उन दिनों सलोह शहर में मुसलमान व सिख लड़कों के गुटों के बीच कई जोरदार झड़पें भी हुई थीं। छुरे, किरपानें व गोलियां तक चलीं थीं। हालात इतने ज्यादा बिगड़ गए थे कि स्थिति पर पूर्ण नियंत्रण करने के लिए सलोह की पुलिस को काफी सती से काम लेने के साथ-साथ अपनी मदद के लिए लंदन के आसपास के सभी इलाकों से अतिरिक्त सुरक्षा बल भी मंगाने पड़े थे। फिर बाद में अंग्रेज शांति दूतों ने बीच में पड़कर इस धर्मांध्ता की आग को शांत किया था।

सिख कौम की आंखों में मुसलमान तिनके की तरह चुभते थे, क्योंकि मुसलमान हुकमरानों ने उन पर अनेक तरह के जुलम ही नहीं किए थे, उन्होंने सिखों के गुरूओं को भी शहीद किया था। यह सदियों पुरानी दास्तान सिख कौम की याददाशत में आज भी ताजा थी।

मुसलमानों के दिलों में सिखों के प्रति पैदा हुई नफरत की दीवार पर हर रोज नई परत उसारी जा रही थी। ये काफिर लोग उनको बिलकुल पसंद नहीं थे।

आसपास घटने वाली ऐसी बहुत सी असुखद घटनाएं जानने के बाद मैंने इकबाल की ओर बढ़ते अपने कदम रोक लिए थे, लेकिन वह मेरे करीब आता रहा। न तो इकबाल से अपना दिल काबू में रहता तथा न ही मेरा दिल  काबू में रहता। जैसे किसी दिवार में कोई गेंद जितनी जोर से मारी जाती है उतनी रफतार से वह वापिस आ जाती है। उसी तरह इकबाल के यालों को मैं जितना भी अपने दिमाग से निकालने का यत्न करती, उतने ही वे ज्यादा आते थे। जैसे तैसे दिन आराम से हाईवे की फास्ट लेन में चलते ट्रैफिक की तरह गुजर रहे थे।

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