Monday 4 May 2015

20 कांड- नींद न देखे बिस्तर


ठांय, अन्दर आकर मैंने घर का दरवाजा बंद किया है। कंधे से हैंडबैग दूर पड़े मेज पर फेंकती हँू। अभी सीधी काम से आ रही हूँ। इस उमस में सांस घुट रहा है। कितनी आग सी लगी पड़ी है। पसीने से तर-ब‐तर हुई पड़ी हूँ मैं। पता नहीं आज गर्मी है या पैदल चलने के कारण है? दूरी भी कौन सी थोड़ी चलनी पड़ती है। एक चलती भी मैं बहुत तेज हूँ। सुबह घर से काम पर व शाम को काम से घर तक पूरे आठ (एक तरफ की दूरी) मील चलना पड़ता है। टांगें दर्द करने लगती हैं। शरीर में इतनी भी जान नहीं कि चार कदमों पर पड़े सोफे पर जाकर बैठ सकूं। जहां खड़ी हूँ, वहीं उसी जगह जमीन पर थकावट से लुढ़ककर गिर पड़ती हूँ।

पसीने से गीले होकर कपड़े शरीर के साथ ही चिपक गये हैं। पूरे जिस्म में से इतनी दुर्गन्ध आ रही है कि मुझसे खुद ही अपनी दुर्गन्ध सहन नहीं हो रही। पालथी मारकर बैठी हुई कोट के साथ ही ब्लाऊज को पकड़कर ऐसे उतार देती हूँ, जैसे कसाई बकरे की खाल उतार देता है। बटन व जिॅप खोलकर बैठे-बैठेे ही टेढ़ी होकर भारी-भरकम तंग जीन्स को उतारने की कोशिश करती हूँ, जोकि टांगों में बुरी तरह से फंसी पड़ी है। अम्मी जब किसी को ऐसी पतलून पहने देखा करती थी तो वह कटाक्ष में इस पैंट को 'पॅद घुॅटनी' कहा करती थी।
''हूँ.....अ..... इस पैंट को उतारने में तो बच्चा जनने जितना जोर लग जाता है। दस घंटे की लंबी शिट की थकावट से हड्डीयां चूर-चूर हुई पड़ी हैं। बिल्कुल हिमत नहीं है मुझमें। दो-चार मिनट कमर सीधी करने के लिये चलो यहीं फर्श पर ही लेट जाती हूँ।
आह, नीचे कमर लगते ही आराम सा मिल गया है, नींद से आंखें बंद होने लगी हैं......
***
ओह माई गॉड, मेरी तो आंख ही लग गई थी, साढे पांच बजे से आकर लेटी हुई हूँ, अब सात बज गये हैं, पूरा डेढ घंटा हो गया है, पता ही नहीं चला कब नींद आ गई थी। किसी शायर ने सच ही कहा है...।
                         
 'नींद न देखे बिस्तर को
भूख न देखे मांस,
मौत न देखे उम्र को,
इश्क न देखे जात।'

बहुत आराम कर लिया। उठूं, उठकर नहा-धो लूँ। शरीर से मैल की बत्तीयां उतारती हुई मैं खड़ी होती हूँ। अन्डर वीयर उतारकर जमीन पर फेंकने के बाद चल पड़ती हूँ तथा चलते हुये ही ब्रा की हुक खोलकर उसे भी फेंक देती हूँ। बिल्कुल नंगी होकर बाथरूम में घुस जाती हूँ। दरवाजा खुला ही छोड़ देती हूँ। कौनसा किसी के आने का डर है। मैं अकेली ही तो हूँ इस समय घर में। ज्यादा से ज्यादा मैक्स ही तो आ सकता है। उसकी कोई परवाह नहीं है। उसने तो सब कुछ देखा हुआ है। वह भी इतनी अच्छी तरह कि उतनी अच्छी तरह तो मैंने खुद भी अपने जिस्म को नहीं देखा होगा। सारी रात तो मैं उसके साथ बिना कपड़ों के  गुजारती हूँ। फिर अब नहाने के लिये कुण्डी लगाने का क्या काम? वैसे भी मैंने कभी कुण्डी लगाई ही नहीं। सच पूछो तो कुण्डी लगाती ही नहीं। जब से मैक्स ने तोड़ी है, तब से ठीक करवाई ही नहीं। कोई भी ऐसी बात नहीं हुई थी कि आदमी घर की चीजें तोडऩे लग जाये। मामला सिर्फ इतना ही था कि टीवी का रिमोट कंट्रोल कहीं तकिये के नीचे दब गया था। मैक्स ने सभी जगह देखा लेकिन तकिये के नीचे नहीं देखा। जब तलाश करके थक गया तो उसने मुझे आवाज लगाई। मैं गुसलखाने में नहा रही थी। पानी के शोर से मुझे मैक्स की आवाज सुनाई नहीं दी। बस इतने में ही खीझ गया वह। दरवाजे में लात मार-मार कर चिटखनी तोड़ दी तथा मुझे पीटने लगा, ''तेरी मां की, बता रिमोट कहां है?"

पहले तो मैं कहने लगी थी, ''चूतड़ों में दबा रखा है, निकाल ले।"

भई बताओ रिमोट कंट्रोल यंत्र कोई साबुन, शैंपू या कोई और नहाने का सामान है, जिसे लेकर मैं गुसलखाने में नहाने चली गई हूँ। जहां पर टी.वी. पड़ा है, वहीं पर आस-पास रिमोट पड़ा होगा। इतनी तो साली व्यक्ति में कॉमनसैंस होनी ही चाहिये। इतनी जल्दी कौनसा तूफान आता था? मैंने नहाकर निकलना ही था, फिर ढूंढकर दे देती। नुक्सान करके रख दिया, सारा दरवाजा खराब हो गया, अब उस दिन से दरवाजा खुला ही होता है।

बॉथ टब में घुसकर मैं पॉलीथीन की चिलमन खींचकर अपने आस-पास दिवार सी बना लेती हूँ ताकि पानी के छींटे टब से बाहर फर्श पर न गिरे। फर्श पर बिछाई लाइनों पर पानी गिरने से कीचड़ हो जाये तो फिसलन हो जाती है। पैर फिसलकर गिरने का डर रहता है। मुझे तो कोई संभालने वाला भी नहीं है। एक बार गीली लाइनों से मेरा पैर फिसलने से मैं गिर गई थी। पीठ पर ऐसी ढेढ़ी व जोरदार चोट लगी थी कि दो तीन सप्ताह तक बैड से हिल नहीं सकी थी। तब इतनी दुखी हुई थी कि भगवान ही जानता है। मैक्स ने तो पानी की घूंट तक नहीं पिलाई थी। अगर होंठ सूखने पर पानी पास होता तो पी लेती थी, नहीं तो भूखी-प्यासी वैसे ही पड़ी रहती थी। पीठ मेरी डाक्टरों ने लकड़ी की प्लेटों से बांधी हुई थी। अपने आप उठ नहीं सकती थी। टॅटी-पेशाब मेरा ऊपर बिस्तर पर ही निकला करता था। कई सप्ताह तक नरक भरी जिन्दगी जीना पड़ी थी मुझे। मेरे तो कानों को हाथ लग गये थे। अब मैं हर जगह पूरी सावधानी से काम लेती हूँ। थोड़ी सी लापरवाही के कारण व्यक्ति को पछताना पड़ता है।

फव्वारे की स्विच ऑन करके पानी छोड़ती हूँ। बर्फ जैसा शीतल पानी मेरी छाती पर गिरता है। अर-र-र- दांत खींचकर धुकधुकी लेती हुई मैं फव्वारे के नीचे से एकदम दूर हट जाती हूँ। पानी ठंडा-गर्म करने वाले फव्वारे के बटन को घुमाकर उसे गुनगुने पानी वाली जगह पर कर देती हूँ। पानी के नीचे हाथ करके देखती हूँ कि पानी कैसा है? हां, यह हुई न बात, अब मेरी मर्जी का गुनगुना पानी आ रहा है।

मैं फिर फव्वारे के नीचे हो जाती हूँ। आहा-हा-हा, बहुत आराम आ रहा है, ऐसे लगता है जैसे कोई मालिश करके टांगें-बाहें दबा रहा हो। हाड खुल से जाते हैं, गर्म पानी से।

फव्वारा बंद करके तरल साबुन बॉडी स्पंज पर लगाकर शरीर पर लगाती हूँ। पेट, कंधे, छाती, जांघें, बाजू, सारा शरीर झाग से भरा हुआ है। फव्वारा दुबारा चलाया है। पानी से सारा साबुन उतार दिया है। साबुन में मिले तेल के कारण पानी की बूंदें जिस्म से फिसलती हुई जाती हैं।पानी कुछ गर्म लगता है। बटन को घुमाकर ठण्डे की तरफ कर देती हूँ।.... और..... बस यहां ठीक है। न ठण्डा, न गर्म, बीच का है। दिल करता है बर्फ वाले पानी से नहाऊं, तब गर्मी मरेगी। फव्वारे के नीचे से दूर होने को बिल्कुल दिल नहीं करता। मन करता है इसी तरह पानी के नीचे खड़ी नहाती रहूँ।

छोड़ यार, बिल भी तो मैंने ही देना है। निकलूं यहां से। पानी बंद करके पर्दे पीछे कर देती हूँ तथा तौलीया खींचकर जिस्म पौंछने लगती हूँ। तौलीया गीला तथा मेरा जिस्म सूखा हो गया है। पूरी तरह गीला तौलीया रेडीएटर पर डाल देती हूँ। सैंट्रल हीटींग लगी हुई है। रेडीएटर पूरे गर्म हैं। जल्दी ही सूख जायेगा।
अब मैं कोई कपड़ा नहीं पहनूंगी। रोज मैं ऐसा ही करती हूँ। घर में कुछ नहीं पहनती। शुरू में इन्सान हर समय नंगे ही रहा करते थे। फिर धीरे-धीरे आदि मानवों ने ठंड से बचने के लिये अपने आपको पेड़ों के पत्तों से ढंकना शुरू कर दिया। ऐसे ही भोज पत्रों की पोशाकों का आविष्कार हो गया तथा विकास करके मौजूदा वस्त्रों का रूप धारण कर लिया। पत्तों की पोशाक से मुझे एक चुटकुला याद आ गया है।

एक बार एक पति-पत्नि चित्रकला की प्रदर्शनी देखने गये। पति महोदय एक औरत की खूबसूरत तस्वीर के आगे खड़े हो गये। यह पेंटिंग एक ऐसी औरत की थी जिसने अपने शरीर पर सिर्फ पत्ते लपेटकर ही अपने तन को ढंक रखा था। जब पति को उस चित्र पर अपनी आंख गड़ाये काफी समय हो गया तो पत्नि ने उसकी बाजू पकड़कर खींचते हुये कहा, ''आओ चलो भी, अब किसका इन्तजार है?"

तस्वीर में आंख गड़ाये खड़े पति महोदय ने जबाव दिया, ''बेगम तुम चलो, मैं तो पत्तझड़ का इन्तजार कर रहा हूँ।"

वैसे भी कपड़े पहनने का क्या फायदा। इन्सान नंगा ही इस दुनियां में आता है तथा नंगा ही इस संसार से चला जाता है। श्री गुरू ग्रन्थ साहिब में लिखा है,
                       
 ''कपडु़ रूप सुहावना, छडि दुनियां अंदरू जावणा।
नंगा  दोजकि  चालिया तां  दिसै  खरा  डरावना।"

इन्सान को अच्छे कर्म करने चाहिये। वही दरगाह में साथ जाते हैं। किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिये।

मैं निरवस्त्र इसलिये नहीं हूँ कि मेरे पास वस्त्र नहीं हैं। ........हैं, बहुत हैं। ढेरों वस्त्र जमा कर रखे हैं मैंने। लेकिन अल्मारीयां भरने का क्या फायदा? पहनने तो कपड़े दो ही होते हैं। हर समय नंग-धड़ंग रहने की आदत मेरी पक्की हो चुकी है। पहले-पहले तो मुझे कपड़े उतारने की आदत इसलिये पड़ी थी क्योंकि मैं सैक्स बहुत करती थी। बार-बार कपड़े उतारने व पहनने के झंझट से बचने के लिये ही मैं कपड़े नहीं पहनती थी। जब दिल करे मैक्स को घसीट लेती थी। मैक्स को भी मेरा नंगा जिस्म देखकर ही आग लगा करती थी। टूटकर पड़ जाता था वह मुझ पर। फिर धीरे-धीरे हमारे बीच सैक्स व प्यार कम होता चला गया तथा तनाव व बेगानापन बढ़ता गया। बीच में तो हालात इस हद तक पहुँच गये कि हम एक दूसरे से पूरी तरह बोर हो गये थे। उस दौर में मैं इतनी ज्यादा डिप्रैस्ड रहने लगी कि मुझे अपनी सुध-बुध ही नहीं रही। जब इन्सान को अपनी होश ही न रहे तो फिर उसे इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं रहती कि उसने क्या पहना है, क्या नहीं, कुछ पहना भी है या......।

अब मैं कपड़े इसलिये नहीं पहनती ताकि मेरे अंदर जो सैक्स की भूख है वह मरी रहे। जब आप खुद भी नंगे तथा दूसरों को भी नग्न देखते हो तो तुम्हारे न्दर से काम की इच्छा कम हो जाती है। जैन धर्म के दो मुय संप्रदाय हैं एक को श्वेताबर कहते हैं, जो हमेशा सफे द कपड़े धारण करते हैं। दूसरा संप्रदाय दिगंबर होता है जो कपड़े पहनने में विश्वास नहीं रखते। भारत में साधुओं का एक वर्ग है, जिन्हें 'नागा साधु' कहा जाता है। ये साधु कोई वस्त्र धारण नहीं करते तथा दिन-रात नंगे घूमते रहते हैं। इसके पीछे उनका यही मकसद है कि उनके बीच संभोग की इच्छा उत्पन्न न हो, उनके अन्दर से काम मर जाये।

काम एक पहाड़ी की तरह होता है। जैसे हम पहाड़ी पर चढऩा शुरू करते हैं तो आगे से चढ़ाई आती रहती है। जैसे-जैसे हम चढ़ाई चढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे हम खुद भी ऊंचे उठते जाते हैं तथा आगे-आगे और ऊंचाई आती रहती है। जब हम खुद भी शिखर पर पहुँच जाते हैं तो वहां खड़े होकर हमें आस-पास का सारा नजारा दिखाई देने लग जाता है। हमने धरती की चीजें जमीन पर रहकर तो देखी ही होती हैं, लेकिन बुलंदी पर पहुँचकर वह दृष्य कैसे व कितने भिन्न लगते हैं, यह वहां पहुँचकर ही जाना जा सकता है। फिर हम शिखर से आगे बढऩे के लिये जितने कदम भी उठाते हैं, उतना ही हम नीचे की ओर आ रहे होते हैं। इस तरह हम उस पहाड़ी को पार कर लेते हैं। इसी तरह संभोग होता है। काम रूप पहाड़ी को पार करने के लिये हमें कम से कम एक बार तो जरूर उसके शिखर पर चढऩा पड़ता है। शिखर पर चढ़े बिना हम उसे पार नहीं कर सकते। हां, साईड से होकर या बाईपास मारकर हम बिना चढ़े पहाड़ी की दूसरी तरफ तो जा सकते हैं, लेकिन हम पहाड़ी के शिखर से दिखने वाले दृष्यों को देखने से वंचित रह जायेंगे। सही निर्णय करने के लिये तो हमें उस पर चढ़कर ही देखना पड़ेगा। मैंने भी शुरू में काम-क्रीड़ा पर ज्यादा जोर दिया तथा काम रूपि पहाड़ी पर चढ़ती गई। शिखर पर पहुँच कर मुझे अहसास हुआ कि यह सैक्स तो कुछ भी नहीं है। क्यों मैं इस चंद पलों के खेल के पीछे पागल हुई पड़ी हूँ। दुनियां में सैक्स के बिना और भी बहुत सी चीजें हैं तथा वह सब कुछ मैं तभी देख सकी हूँ, क्योंकि मैं सैक्स की पहाड़ी के शिखर पर खड़ी थी। अब मुझे सैक्स की वह पहले वाली लालसा नहीं रही तभी तो मैं दुनियादारी को समझने लायक हुई हूँ। वैसे मेरे कहने का यह तात्पर्य कत्तई नहीं है कि वस्त्रों को त्यागकर ही इन्सान को अकल आती है।

भूख बहुत लगी है। कुछ पेट पूजा का प्रबंध करूं। रसोई में जाकर खाने के लिये कुछ बनाती हूँ। कल के शूशी रोल व पिकिंग डॅक भी पड़ी होगी, वही सब गर्म करके खा लेती हूँ। बना हुआ खाना फेंकना थोड़े ही है। नूडल स्टिक से खाने लगती हूँ। मुँह में डालते समय तीलीयों में से फिसलकर मीट नीचे गिर जाता है।, अरे पाखंड करके क्या लेना है। चीन वाले तो गपड़-गपड़ करके तीलीयों (स्टिकों) से पता नहीं कैसे खा लेते हैं? मुझे अभी तक इस तरह खाने का तरीका नहीं आया। मैं तो कांटे से ही खाती हूँ।

......अभी तो जोर की भूख लगी थी। चार निवाले खाये नहीं कि पेट भर गया। खाना बीच में ही छोड़कर प्लेट रखकर छत पर जाने लगती हूँ। ऊपर जाकर बैडरूम में मैक्स का इंतजार करूंगी। आधी रात को गिरता-पड़ता आयेगा। अगर अच्छे मूड में होगा तो हम सैक्स करेंगे तथा सो जायेंगे। अगर खराब मूड में खीझ भरा आया तो हम किसी न किसी बात पर तकरार करेंगे तथा लड़-झगड़ कर सो जायेंगे। हर रोज यही सब। सालों से एक ही नियम बना हुआ है। बोर हो गई हूँ इस मकसदहीन सी जिंदगी से। मन को कुछ भाता नहीं। न टेलीवीजन देखने को मन करता है। एक मिनट भी घर पर दिल नहीं लगता।
छत पर पहुँचकर सोने वाले कमरे का दरवाजा खोलकर देखती हूँ। इस कमरे में कितना अंधेरा है। नीचे तो अंधेरा नहीं था। जल्दी ही दिन छिप गया है। लाईट जला देती हूँ। खिड़की के पास जाकर पर्दे खोलकर खिड़की खोल देती हूँ। ऊफ कितनी उमस हुई पड़ी है। दरवाजे-खिड़कीयां सारा दिन बंद रहने से भड़ास यहां जमा हो जाती है तथा गर्माहट बाहर नहीं निकलती।

आहा, खिड़की खोलते ही फर्र-फर्र करती ठंडी-ठार हवा अंदर आने लगी है। जैसे फोड़े-फुन्सी पर दवाई लगाने से आराम महसूस होता है, उसी तरह से गर्मी से भुने शरीर को हवा के झोंकों से राहत प्राप्त हो रही है। मैं खिड़की में से मुँह निकालकर वहां खड़ी होकर ज्यादा से ज्यादा हवा लेने लगती हूँ।
पी.........पी...…(कार का हार्न)........यो.......सैक्सी..........पां...........पां...… नीचे सड़क पर खड़ी कार में बैठे किसी मनचले ने हार्न बजाकर मुझे छेड़ा है।

''फक्क औफ" मैं दो अंगुलीयां खड़ी करके उसे गाली निकालती हूँ। वह बेशर्म सीटी बजाने लगा है। आंखें गड़ाकर इधर देख रहा है। क्या इसने कभी औरत नहीं देखी? मुझे क्या आम लगे हुये हैं? आम? मैं अपनी लटक रही छातीयों की ओर देखती हूँ। हाय, मैने तो कोई कपड़ा नहीं पहन रखा है। उस लुच्चे ने तो मुझे नंगी को देख लिया है। उस लड़के की ओर देखकर एकदम पीछे हट जाती हूँ तथा पर्दा खींचकर खिड़की के आगे कर देती हूँ। कभी-कभी क्या हो जाता है मेरे दिमाग को? अच्छा भला जानती हूँ कि जब कमरे के अन्दर लाईट जलती हो तब बाहर से सीसे के अन्दर सब कुछ नजर आता है। फिर क्यों नंगी होकर खिड़की में खड़ी होती हूँ? लोगों ने तो देखना ही है, आंखें बंद थोड़ा न कर लेंगे। काम के भूखे तो रूपये खर्च करके भी औरत का नंगेज (नग्न शरीर) देखते हैं। ऐसे लोगों को मुत में सब कुछ देखने को मिले तो और क्या चाहिये? मेरी ही गलती है। मुझे कपड़े पहनकर रखने चाहिये। औरत भी केले की तरह होती है। जब तक केला छिलके में रहता है, सुरक्षित होता है। जैसे ही छिलका उतर जाता है, वह खा लिया जाता है। इसी तरह जब औरत बेपर्दा हो जाती है तो मर्द उसे खाने को करते हैं। इसी कारण हमारे धर्म में बुर्का पहनने की परम्परा चली थी, ताकि औरत मर्द की हवस से बची रहे। आदमी का क्या है? झाड़ पर चुनरी डाल दो तो उसी के आसपास चक्कर लगाने लग जायेंगे। वस्त्रों से परहेज करके घूमते रहना कोई शिष्टाचार नहीं है। इन्सान की कपड़े पहने रखने की ओर रूचि बनाये रखने के लिये तिब्बती लोगों ने तो एक अलग ही रीति चलाई हुई है। इंडोनेशिया के बौध मठों में अगर आपको जाना हो तो चाहे आपने लाख कपड़े पहन रखे हों, लेकिन फिर भी आपको उनके ऊपर से एक धोती सी लपेट कर जाना पड़ता है, जिसे वे लोग सारंग या सैश कहते हैं।

बैड के तकिये के पास मेज से व्हिसकी की आधी बची बोतल उठाती हूँ। ढक्कन खोलकर मुँह को लगाती हुई बैड पर बैठ जाती हूँ। गटागट करती हुई दारू मेरे अन्दर उतर जाती है। पहले-पहले तो सूखी शराब बहुत कड़वी लगा करती थी। चार घूंट भी नहीं पी जाती थी मुझसे। अब तो कोई अन्तर ही नहीं रहा। जैसा पानी पी लिया वैसे ही शराब पी ली। बिल्कुल फीकी सी महसूस होती है यह लाल परी। शायद जिंदगी में कड़वाहट इस कद्र भर गई है कि और कुछ कड़वा ही नहीं लगता।

मैं अपने बीते जीवन के बारे में सोचने लगती हूँ। जब तक मां-बाप के पास थी, तब तक सुख ही सुख थे मेरे दामन में। जब से घर से बाहर कदम रखा है, दुख ही दुख देखे हैं मैंने। जीवन में सहन किये जुल्मों सितम के बारे में याद करके मुझे कंपकंपाहट शुरू हो जाती है। धुकधुकी सी लेकर शराब की बड़ी सी घूँट भर लेती हूँ।

बहुत दिल करता है मां-बाप को एक बार मिलने का। मुझमें तो उनके साथ संपर्क की भी हिम्मत नहीं पड़ती। पूरे सत्रह वर्ष हो गये हैं मुझे घर से भागे। वैसे ही उनके हिसाब से तो मैं कब की मर-खप गई हूँ। मेरे सारे भाई-बहन अपने अपने घरों में रच-बस रहे होंगे,.....पुत्र-पुत्रीयों वाले हो गये होंगे,...... तथा मैं बांझ ही मर जाऊंगी। कितनी इच्छा थी मेरी इकबाल का बेटा जनने की, सब दिल की दिल में ही रह गई।

किसी शायर ने भी क्या खूब कहा है, ''कितना अजीब रिश्ता, कितनी अजीब दूरी, न हो सके वह अपने, न बन सके पराये।" 

कहने को तो मैं कहे जा रही हूँ कि मैं इकबाल को भूल गई हूँ, लेकिन नहीं हकीकत तो यह है कि इकबाल मुझसे अलग नहीं बल्कि मेरे जिस्म का ही हिस्सा है। एक अहम अंग है, वह अंग जिसे काटकर फेंकने के बाद मैं जिंदा नहीं रह सकती। काफी समय पहले किसी से सुनी हुई पजंाबी कवियत्री अमृता प्रीतम की लाईनें याद आती हैं, उसने एक जगह लिखा था, ''रल (मिल) गई इस विच बूंद तेरे इश्क दी, इसे लयी मैं उम्र दी सारी कुड़त्तन (कड़वाहट) नूं पी लिया।" 

मैंने ये लाईनें सुनी थीं तो मैं बहुत रोई थी। कितने कड़वे सच लिख देते हैं, ये शायर लोग। मुझे ऐसा लगता है जैसे ये लाईनें मेरे लिये ही लिखी गई हों। जब कभी भी जिंदगी से मायूस होकर मैं आत्म हत्या करने के बारे में सोचती तो इकबाल मेरी आंखों के आगे खड़ा हो जाता। सोचती हूँ, हो सकता है, कभी न कभी .... किसी न किसी मोड़ पर उससे फिर मुलाकात हो जाये। इकबाल के प्यार व दिदार के लिये ही मैं जिंदा हूँ; वर्ना अब तक मैं कब की मर गई होती। सच्चा आशिक महबूब को जिंदगी व झूठा मौत देता है। जैसे कपड़े ड्राई-क्लीन के बाद स्वच्छ हो जाते हैं, ऐसे ही मुहब्बत इन्सान की आत्मा को पवित्र तथा साफ करके रखती है। महबूब ओवरआल की तरह तुम्हारे साथ लिपटा रहकर तुम्हारी हिफाजत करता है।

वैसे सिर्फ प्रेमी ही नहीं, जिन्दगी में आया व संबंध या रिश्ता रखने वाला हर मर्द औरत का वस्त्र होता है। जो कभी बाप बनकर उसे बुर्के की तरह ढंककर रखता है, कभी कवच जैसा भाई बनकर रक्षा करता है, कभी खावंद (पति) बनकर अपने प्यार से औरत के हुस्न को ग्लैमरस पोशाक की तरह निखारता है, कभी गर्म ओवरकोट की तरह बेटा बनकर गर्माहट व आराम देता है। जब भी कोई औरत इन वस्त्रों को उतारकर या फाड़कर अपने से अलग करती है तो वह नंगी हो जाती है। कोई भी उसके जिस्म को देख सकता है। वस्त्रों के बिना औरत को दर्दनाक व शर्मनाक जिन्दगी व्यतीत करनी पड़ती है। सजावटी व अजीबो गरीब कपड़े कुछ समय के लिये तो दुनिया का ध्यान जरूर खींच लेते हैं तथा सारे लोग आपकी ओर देखने लग जाते हैं। लेकिन ऐसी फैंसी ड्रैसों में आप कभी भी खूबसूरत नहीं लगते तथा न ही ऐसे चमकीले कपड़े ज्यादा मजबूत या आरामदायक होते हैं। इस तरह के मतलबप्रस्त आशिकों जैसे वस्त्र कुछ देर के लिये सिर्फ दिखाने के लिये ही पहने जा सकते हैं।

कब से पी रही हूँ, अभी तक तो कमबख़्त दारू भी नशा नहीं करने लगी। बोतल वापिस मेज पर रखकर लेट जाती हूँ। ऐसे ही पड़ी-पड़ी अब छत को घूरती रहूंगी। नींद कौनसा अभी ही आ जायेगी। आज तो कोई बात (कहानी) सुनने को दिल करता है। छोटे होते समय हमें सभी बहन-भाईयों को कहानीयां सुनने का बहुत शौक होता था।  अम्मी हर रोज रात को हमें कोई न कोई कहानी सुनाया करती थी। कई बार  अम्मी की कहानी अभी बीच में ही होती थी कि हम लोग सो जाते थे। सोते समय की एक कहानी जो  अम्मी अक्सर ही सुनाया करती थी, वह मुझे आज भी याद है। एक भोलाराम नाम का व्यक्ति होता है। वह शहर से बकरी खरीद कर लाता है। रास्ते में उसे तीन ठग मिलते हैं। ठगों का दिल बकरी पर आ जाता है तथा वे आपस में सलाह करते हैं कि किसी न किसी तरह भोलू से बकरी हथिया ली जाये। तीनों ठग अलग-अलग हो जाते हैं। तयशुदा योजना के तहत पहला ठग जाकर भोला राम को पूछता है, ''क्यों भाई, ये क्या ले जा रहे हो?"
         
''दिखाई नहीं देता? बकरी है।" भोले ने उत्तर दिया,
       
''बकरी कहां है, ये तो कुत्ता है।"
         
भोला उस ठग से बहस करने लगा, ''कुत्ता नहीं भई यह बकरी है, बकरी।"
       
''नहीं कुत्ता है।"
       
''नहीं बकरी है।"
           
''कुत्ता।"

''बकरी।"

ठग भोला राम से काफी देर बहस करने के बाद चला जाता है। वह थोड़ा आगे जाता है तो उसे दूसरा ठग मिलता है, ''भोला राम कहां से आ रहे हो?"
''शहर गया था, बकरी खरीदने।"

''तथा ले आये कुत्ता?" ठग ने ठहाका लगाया।

भोला राम ने बकरी की ओर देखकर जबाव दिया, ''कुत्ता नहीं, यह बकरी है।"

''बकरी क्या ऐसी होती है, यह तो कुत्ता है।"

भोला राम की उस ठग के साथ भी काफी बहस होती है। थोड़ा आगे जाने पर भोलाराम को तीसरा ठग मिलता है, ''और सुनाओ मित्र, कुत्ते को कहां ले जा रहे हो?" 

कुत्ता कह रहे हैं तो जरूर ही यह कुत्ता होगा, बकरी नहीं। गांव में जाने पर लोग मजाक न करें, इसलिये वह बकरी का रस्सा वहीं छोड़कर चला जाता है तथा ठग बकरी को संभाल लेते हैं। भोला राम वाली त्रासदी ही मेरे साथ घटित हुई है। मुझे मेरी सहेलीयां कहती रहीं कि उनका पश्चिमी संस्कृति बढिय़ा है तथा मेरा पूर्व की संस्कृति घटीया है। मैंने उसे ही मान लिया। मेरे साथ पापी मेमें धोखाधड़ी कर गईं। मुझ बेसमझ को क्या पता था कि जिस तराजू में मेरी सहेलीयों ने दोनों सभ्यताओं को तोल कर मुझे दिखाया था उस तराजू की तोल व बाट दोनों में ही खोट थी।

जब अंग्रेज सहेलियों ने मुझसे यह कहा था कि तुम्हारे धर्म में औरतों को मस्जिद में जाकर इबादत करने का भी हक नहीं है तो उस समय अगर मैं उनसे पूछती कि तुम्हारे अंग्रेजों ने औरतों को कितने अधिकार दिये हुये हैं? कितनी अंग्रेज औरतें पादरी या रैव (REV) बनी हैं? इसाई धर्म में तो ज्यादा से ज्यादा औरतें नन ही बन सकती हैं। किसी भी नन को विवाह करवाने की इजाजत नहीं है। मुझे तो इसमें भी पादरीयों की चाल नजर आती है। पादरीयों ने जान बूझकर यह कानून बनाया है ताकि सारी नन अतृप्त रहे तथा पादरी अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिये उनका इस्तेमाल कर सकें। टी.वी., अखबारों में आये दिन अनेक खबरें पढऩे को मिलती है। फलां जगह पादरी ने व्यभिचार किया, फलां जगह जब्र-जनाह (बलात्कार) किया, बगैरा.....बगैरा।

और कौनसा क्षेत्र है जहां अंग्रेजों ने औरतों के साथ भेदभाव नहीं किया? पुराने समय में अंग्रेज औरतें तो अपना नाम तक नहीं लिख सकती थीं। उन्हें अपनी पहचान बताने के लिये मिस्ट्रैस (रखैल) का संज्ञिप्त शब्द मिसिज लिखकर उसके साथ अपने असली नाम की जगह सिर्फ अपने पति का नाम ही अंकित करना पड़ता था।

इसके अलावा आयरलैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स तथा इंगलैंड के संगठित राज्य को यूनाइटिड क्वीनडम की बजाए अभी तक यूनाइटिड किंगडम ही पुकारा जाता है। जबकि इस राज्य पर रानी एलिजाबेथ नाम की औरत हकूमत कर रही है। किंगडम का सरप्रस्त किंग होता है तथा किंग एक मर्द ही हो सकता है। किंगडम इसलिये कहा जाता था ताकि औरत को राजगद्दी पर बैठने से वंचित किया जा सके। चाहे अंग्रेज मर्दों की यह कुटिलनीति कामयाब नहीं सकी तथा सिंहासन को औरतें ही संभालती रही हैं।

हमारे पूर्व में तो बाबा आदम के जमाने से ही औरतें मर्दों के कंधे से कंधा मिलाकर चलती रही हैं। द्वापर युग में ककई जैसी भारतीय औरतें राजा दशरथ के साथ युद्ध में हिस्सा लेती थी। सुल्तान रजीया जैसी लड़कीयां तत पर बैठकर हुकूमत करती रही थीं...........

सनातनी अंग्रेजों ने तो औरतों को बराबर की नौकरी करने का अधिकार भी नहीं दिया था। हैडमास्टर, चेयरमैन, फायरमैन, पोस्टमैन..... आदि काम धंधों के पदनाम जो कुछ साल पहले तक कायम रहे, अंग्रेजों की इसी लिंग भेद प्रवृति के सूचक थे। फिर भी अगर आधुनिक समय में औरतें नौकरी करने भी लगी तो उन्हें एक जैसा काम करने पर भी मर्दों से कम तन्खाह दी जाती रही थी। ये तो भला हो नारी संस्थाओं का, जिनके संघर्ष से बराबरी का कानून बना तथा औरतों को बराबरी के अधिकार मिलने लगे।

अंग्रेज पुरूषों की षडयंत्रकारी सोच तो यहां तक जाती है कि उन्होंने अपने लिये समतल तलवे वाले जूते बनवाये तथा औरतों के लिये ऊंची एड़ी वाले सैंडिल, उन्होंने ऐसा इसलिये किया ताकि स्त्रियों को तेज चलने में कठिनाई पेश आये तथा वे तेज चलकर मर्दों से आगे न निकल सकें।

जितना अंग्रेजों ने औरतों को दबाकर रखा है, उतना और ∙िसी भी कौम या कबीले ने नहीं दबाया। कितनी गूढ़-ज्ञान की बातें करने लग पड़ी हूँ। बचपन से ही बहुत रोशन दिमाग तथा होशियार होती थी मैं। शिक्षा व ज्ञान की देवी सरस्वती व मनवीरा की मुझ पर फुॅल कृपा थी। अगर चाहती तो तब अंग्रेजनों को ऐसे मुँह तोड़ जबाव देती कि उनकी बोलती बंद करके रख देती। लेकिन उस समय मेरी तो बिल्कुल मति मारी गई थी। मुझे अपनी फिरंगी सहेलीयों को अपनी सहायता व संस्कृति के हक में देने के लिये उस समय एक भी दलील याद नहीं आई थी, तथा उनके उकसावे में आकर मैं सही रास्ते से भटक कर गलत रास्ते पर पड़ गई थी।

सबसे बड़ी दुश्मनी तो मेरे साथ एंजला ने निकाली थी। जैसे वह फारसी की कहावत है न? ''गंदुमनुमा जौं फरोश", अर्थात गेहूं दिखाकर जौं बेच दिये। उसके भाई मैक्स के साथ कोई लड़की फंसती नहीं थी। भाई का जुगाड़ फिट करने के लिये उस कंजरी ने मेरी जिंदगी तबाह करके रख दी। बाकी की सभी लड़कीयां भी एंजला के साथ मिली हुई थी। मेरे गले बांधने के लिये उन्होंने एक राय से मेरे पास मैक्स की झूठी तारीफों के पुल बांधे थे। इस तरह सारी सहेलीयां मुझे बरगला कर बदनामी के किनारे पर ले गई थीं। मेरे सामने पानी इतना गंदा था कि मुझे नजर ही नहीं आया कि आगे कितनी गहराई है। मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई थी, वैसे-वैसे डूबती गई थी। जब तक मेरे मन में पीछे मुडऩे का विचार आया था, तब तक मैं गले तक डूब चुकी थी। अब सहेलीयों को बुरा-भला कहने से क्या होगा? कसूर तो मेरा अपना है, क्योंकि मैंने अंधी ने उन अंधी सहेलीयों को अपनी अगुवानी करने को कहा था। मैक्स का भी दोष नहीं था। जब गुड का लड्डू तोड़ा जाता है तो चींटीयों के मुँह में भी थोड़ा सा पड़ जाता है। घर से भागी थी तो किसी न किसी के साथ तो घर बसाना ही था।

विवाह हर इन्सान की जिंदगी में घटित होने वाली सबसे महत्वपूर्ण व हसीन घटना होती है। इसे सीधी-सपाट चल रही जिंदगी में आने वाला खूबसूरत मोड़ भी कहा जा सकता है। घर से भागने के कारण मैं विवाह की खुशी व सुहाग का जोड़ा पहनने का सुअवसर प्राप्त करने से सारी उम्र महरूम होकर रह गई हूँ। जिस ढंग से उस समय मेरा लगन होने जा रहा था, उस विवाह को मेरी सहेलीयां 'फोर्सड मैरिज' कहकर उसकी निंदा करती रही थी। दरअसल वह तो 'अरेंज मैरिज' होती है, फोर्स तो ये है जो सहेलीयों ने करवाई है। मैं नादान थी जो उनकी लच्छेदार बातों में आ गई थी। मैं तो अब जाकर फोर्सड मैरिज व अरेंज मैरिज का अन्तर समझने लायक हुई हूँ। कुछ भी बुरा या गलत नहीं होता उस अरेंज मैरिज में। दो परिवार जो काफी समय से एक दूसरे को जानते होते हैं, या कोई बीच का व्यक्ति जो दोनों परिवारों को कई पीढ़ीयों से जानता होता है, सब इकट्ठे बैठ जाते हैं। आपस में विचार-विमर्श किया जाता है। दोनों परिवारों की अच्छाईयां-बुराईयां देखी परखी जाती हैं। वर व वधु के गुण-अवगुण नापे-तोले जाते हैं। अन्त में दोनों परिवारों के सयाने बुजुर्ग, जोकि पूरी जिंदगी का तजुर्बा हासिल कर चुके होते हैं, वे अंतिम निर्णय लेते हैं। अगर उन्हें लगे कि लड़का-लड़की का सही जोड़ होता है अर्थात दोनों एक दूसरे के सही जोड़ीदार बन सकते हैं तो सबकी (विवाह वाले लड़का-लड़की की भी) सलाह से रिश्ता पक्का कर दिया जाता है। लड़के को लड़की दिखाई जाती है तथा लड़की को लड़का। बस इसे ही अरेंज-मैरिज कहा जाता है, क्या बुराई है इसमें? ऐसे ही पश्चिमी लोग इसे हौवा बनाकर पेश करते हैं। विवाह किस ढंग से हुआ है, इसका उसकी सफलता या असफलता से कोई संबंध नहीं होता। अगर अरेंज मैरिज असफल होती है तो लव मैरिज भी कम नहीं टूटती। इसमें कोई अत्तिकथनी नहीं होगी अगर मैं ये कहूँ कि अरेंज के मुकाबले प्रेम विवाह ज्यादा असफल होते हैं। ये जो आये दिन धड़ाधड़ तलाक हो रहे हैं, उनमें ज्यादातर प्रेम विवाह वाले ही होते हैं। इसका मुय कारण यह है कि प्रेम विवाह वाले दंपति जोड़े विवाह से पहले प्रेमी-प्रेमिका होते हैं। थोड़ा सा समय मेल-मिलाप होता है। इसलिये उस समय वे एक दूसरे के साथ और तरह से पेश आते हैं। विवाह के बाद वे पति-पत्नि बन जाते हैं। हर समय वे एक दूसरे के साथ रहते हैं। इसलिये उनका रवैया बदल जाता है। उसमें से बनावटीपन खत्म हो जाता है। पति-पत्नि एक दूसरे की असलियत से रूबरू हो जाते हैं। किसी विपरीत लिंग वाले व्यक्ति की कमियां देखनी हों तो एक रात उसके साथ नि:वस्त्र होकर गुजार लो, आपको उसके सब दोष नजर आ जायेंगे।ऐसे ही जब विवाहित जोड़ों को अपने जीवनसाथी में ज्यादा दोष नजर आने लग जायें तो उनमें दरार पड़ जाती है। यही दरार बढ़कर तलाक तक पहुंच जाती है। प्यार करते समय साथी के दोष नजर नहीं आते। 'लव इज ब्लाइंड, एंड मैरिज इज आई ओपनर' (प्यार अंधा होता है तथा शादी आंखें खोलने वाली) कितनी सचाई छिपी है इस वाक्य में, है न? विवाह की खटखटाहट होते ही प्यार के नशे में बंद हुई आंखें खुल जाती हैं। और फिर यह भी कि प्रेम विवाह पश्चिम की नहीं बल्कि पूर्व की खोज थी। हिन्दुस्तानी इतिहास में स्वयंवर तथा महिर्षी मनु के द्वारा अपनी स्मिृतियों में वर्णित विवाह के आठ रुपों में से दो ब्रहम तथा गंधर्व विवाह की प्रथाएं भी तो मौजूदा प्रेम विवाह का पुरातन रूप ही था।

इस तथ्य में जरा भी सच्चाई नहीं है कि हमारे मुस्लमान लोगों के सभी निकाह ही जब्रदस्ती होते हैं। मौलवी साहब गवाहों की मौजूदगी में पूछते हैं कि क्या दुल्हन को दुल्हा स्वीकार है या नहीं। अगर दुल्हन कुछ न बोले तो विवाह की रस्म आगे नहीं बढ़ती। अगर लड़की तीन बार पूछने पर 'कबूल-कबूल-कबूल' कहे, तभी मौलवी साहब निकाह को हरी झंडी दिखाते हैं। मर्जी के बिना खाविंद (पति) गले नहीं बांधा जाता। दोनों पक्षों के द्वारा एक दूसरे को जुबानी तौर पर जीवनसाथी स्वीकार करने के बाद उसे लिखित रूप में भी संभाल लिया जाता है। उस लिखित सर्टीफिकेट को हम 'निकाहनामा' कहते हैं।

फिर बाद में शादी की पवित्र रस्म को कोई खिलौना न समझे इसके लिये विवाह के समय लड़के द्वारा लड़की को देने के लिये 'जर मेहर' तय हो जाता है। यह 'जर मेहर' एक तयशुदा रकम या जायदाद होती है, जो शरीयत मुताबिक पति के द्वारा अपनी पत्नि को देनी होती है, अगर किसी सूरत में वह अपनी पत्नि से तलाक लेना चाहता हो।

कितनी रात हो गई है। हरामजादा, मैक्स अभी तक नहीं आया। पता नहीं कहां धक्के खाता घूम रहा होगा? दिन में तो वह जहां चाहे वहां धक्के खाता रहे लेकिन कम से कम रात को तो मेरे पास आ जाये। औरत को मर्द की जरूरत होती है। सौ तरह का दुख-सुख करना होता है । कहां, इसे तो जरा भी मेरा लाड़-प्यार नहीं है। अगर प्यार होता तो मेरी यह हालत नहीं करता। बहुत जालिम है, बेहद मानसिक तथा शारीरिक यातनाएं देता है यह मुझे। जांघें मेरी ब्लेड से छिली पड़ी हैं, स्तन जलती हुई सिगरेट से जलाये पड़े हैं, मेरे ताज महल जैसे जिस्म का सत्यानाश करके रख दिया है इसने।

बाहर से शीतल हवा की फुहार आती है तथा मेरे जखमों से छलनी वजूद को चीरकर गुजर जाती है। नग्न अवस्था में रहने में भी दुख ही दुख है, मेरा तो शरीर ही नहीं आत्मा भी लिबास विहीन हो गई है। अन्दर-बाहर नंगी, अल्फ नंगी हो गई हूँ मैं।

जवानी के नशे में चूर होकर अहंकार में कंधों के ऊपर से थूकना शुरू कर दिया था मैंने। यौवन की मदमस्ती में अकल साथ छोड़ गई थी। मैंने अपने ही हाथों खुशीयों के वस्त्र फाड़कर चीर-चीर कर दिये थे। अब तो मेरी तकदीर भी मेरी तरह नग्न होकर रह गई है।

बोतल में लगभग एक पैग शराब बची है, उसे डकारकर खाली बोतल फर्श पर लुढ़का देती हूँ। ऐसे ही मर्द करते हैं औरत के यौवन का रस पीते हैं तथा उसे खाली करके फेंक देते हैं। मेरी भी मैक्स ने यही हालत कर रखी है। बिल्कुल हाल नहीं जानता मेरा तथा न ही इस घर में मेरी कोई पूछ-पड़ताल है। जबकि मैं इस घर की पूरी मालकिन हूँ। मैं समझती थी मैक्स पारस होगा तथा मेरी लोहा बनी देह को रगड़कर सोना कर देगा। लेकिन ये तो जंग लगा लोहा निकला, इसने तो मुझे भी गला दिया।

जीवन का संघर्ष करते-करते थककर टूट गई हूँ। सब जन्म के रिश्ते-नाते छोड़कर एक धर्म के रिश्ते को अपनाने चली थी, बाजी हारकर औंधे-मुँह गिरी हूँ। जुआ भी कौनसा छोटा-मोटा हारी हूँ? कितना बड़ा दांव लगाया था मैंने, ''न खुदा ही मिला, न विसाले सनम, न इधर के रहे, न उधर के रहे", वाली बात मेरे साथ हुई है। इस घटना क्रम के बाद ही यह समझने लायक हो पाई हूँ कि मोमबत्ती का धागा तब तक ही महफूज रहता है जब तक उसके आस-पास मोम लिपटी होती है। अगर आग धागे को कहें कि तुम मोम की कैद में हो, आओ मुझसे मिल जाओ, मैं तुम्हे मोम से आजाद करवाती हूँ, तो धागे को आग की बातों में नहीं आना चाहिये। क्योंकि जैसे-जैसे धागे को लगी आग मोम को पिघलाती है, वैसे-वैसे उसके साथ धागा भी जल रहा होता है। जब पूरी मोम पिघल जाती है, तब धागे को अपनी मूर्खता का ज्ञान होता है। लेकिन तब तक तो आग धागे को जलाकर उसे तबाह कर चुकी होती है। आजाद होने के भ्रम में नादान धागा अपनी हस्ती ही मिटा चुका होता है। मैं तो सबको यही कहूँगी कि मोम जैसे मां-बाप को छोड़कर आग की लपटों जैसे बेगाने लोगों के पास कभी मत जाओ। आग का कुछ नहीं जाता। मोम व धागा ही जलकर राख बनते हैं। मोम धागे का वस्त्र होती है। मेरी दुश्मन सहेलीयों ने मुझे मेरे सारे सगे-संबंधियों से तोड़कर रख दिया है। कहती थीं तुझे आजादी दिलाती हैं। पेड़ को धरती से जड़ सहित उखाड़ देने पर उसे आजाद जिंदगी नहीं, बल्कि मौत मिलती है।

पता नहीं मेरे मां-बाप पर उस समय क्या गुजरी होगी?.........… 

जीते जी उन्हें बदनामी की 'लहद' में लिटाकर अपने हाथों उनकी कब्र बना आई थी। अब गड़े मुर्दे उखाडऩे का क्या फायदा? वे जैसे भी जिस हाल में होंगे यकीनन सुखी ही होंगे। अगर नहीं भी हैं तो मैं यही दुआ करती हूँ कि प्रमात्मा उन्हें खुशीयां दे। हर समय खुदा उनका हाफिज-ओ-नासिर रहे। आमीन-सद-आमीन।

सीढ़ीयों में खटपटाहट हो रही है, लगता है मैक्स आ गया है। हां वही है, मैं बैड पर हल्का सा लेट जाती हूँ। कमरे में आते ही मैक्स ने पैंट व कच्छा उतार दिया है। लडख़ड़ाता हुआ मेरी ओर आता है तथा आकर मेरे ऊपर लेट जाता है।

लो, जरा भी अक्ल नहीं है इसे तो, बिना चुंबन लिये ही सीधा सैक्स करने लग गया है। ये हमेशा ही ऐसे करता है। जब भी मेरे पास आता है तो कार वाला हिसाब ही समझता है, भई चाबी लगाओ और चला लो भी इसने दिल से प्यार नहीं  किया। भई खुद मजा नहीं लेना तो न सही, साथी को तो लेने दो। आनन-फानन में काम खत्म करके सो जाओ। इसे तो इतना भी नहीं पता कि औरत को पहले मेहनत करके गर्म करना पड़ता है। नहीं तो मर्द तो अपनी आदत पूरी करके एक तरफ होकर सो जाता है। लेकिन औरत का कुछ भी नहीं बनता, औरत काम भूख से तडफ़ती व तरसती रहती है। कोका पंडित कोक शास्त्र में लिखता है कि औरत की संभोग में तसल्ली करवाने के लिये कभी भी उसके अंग में अंग डालने की जल्दी मत रो औरत आटे की तरह होती है पहले उसे अच्छी तरह से गूंथों तथा अच्छी तरह से उफान आने पर इन्तजार करो। जब तैयार हो जाये तो फिर रोटीयां उतारो। देखों कैसे फूल-फूलकर उतरेंगी तथा स्वादिष्ट भी इतनी होंगी कि पूछो ही कुछ मत। जो मर्द अपना जाब्ता कायम रखकर औरत से क्रीड़ा करने से पहले अच्छी तरह 'फोर प्ले' करे, वही संभोग के दौरान भरपूर आनंद लेकर नारी की तसल्ली करवा सकता है।

मैक्स से तो अच्छी तरह से शारीरिक ढांचा भी नहीं हिलता, मैं ही नीचे पड़ी उछल-उछल कर स्वाद लेने की कोशिश करती रहती हूँ।

चलो जी, बोल गया इसका तो भोंपू। अपनी सारी गंदगी व मैल मेरे अन्दर फेंककर मैक्स मेरे ऊपर से नीचे उतरकर दूर जाकर लेट गया है।

लो, और सुन लो, जनाब ने तो खर्राटे मारने शुरू कर दिये हैं। अक्सर ऐसे ही करता है। मुझे किक मारकर स्टार्ट कर देता है तथा अपना इंजन बंद कर लेता है। मैं तडफ़ती.....मचलती रहती हूँ तथा ये साहब बहादुर सैक्स करते हैं तथा सो जाते हैं। सैक्स करने के बाद कुछ देर के लिये तो मुझे भी नींद आ जाया करती है लेकिन थोड़ी देर बाद फिर जाग आ जायेगी। डाक्टर तो कहते हैं कि मनुष्य को सेहतमंद रहने के लिये जन्म समय से पंद्रह साल तक दस से बारह घंटे, पंद्रह से पच्चीस साल तक आठ से दस घंटे तथा पच्चीस से साठ साल तक की आयु तक छ: से आठ घंटे तक सोना जरूरी होता है। मैं ढंग से दो घंटे भी नहीं सोती। काम पर सारा दिन नींद आती रहती है। घर आकर गायब हो जाती है। लंच ब्रेक के दौरान जब कभी नींद का झोंका लगाने लगती हूँ तभी ब्रेक खत्म हो जाती है। नींद त्यागकर उठना पड़ता है। मालिक तो काम देखते हैं। उन्हें किसी और बात से क्या मतलब? इसी तरह सोते जागते कश्मकश में रहते ही एक दिन मेरी जिंदगी का टायटैनिक जहाज मौत रूपी आंटलांटिक महासागर में डूब जायेगा, मैं मर जाऊंगी तथा मौत का देवता डैमोगोरगन अपने यमों के साथ आकर मुझे ले जायेगा। मेरे दुखों की दास्तान तो बहुत लंबी है, अगर सारी उम्र भी सुनाती रहूँ तो भी खत्म नहीं होगी, लेकिन जिंदगी खत्म हो जायेगी, इससे पहले कि मैं चुप हो जाऊं, मैं जवान हो रहे हर वजूद को यही शिक्षा देना चाहती हूँ कि तुम लोग मेरी तरह नादानी में वस्त्र उतारकर मत फेंकना तथा नंगे होने से बचकर रहना, नहीं तो तुम्हारा भी मेरे वाला हाल होगा।

मेरा दिल करता है कि अपने वस्त्र पहन लूँ, लेकिन मेरे वस्त्र मेरी पहुँच से दूर खूंटी पर लटक रहे हैं। मेरे आलस से टूटे शरीर में इतनी हिम्मत नहीं कि मैं उठकर अपने वस्त्र उठा सकूँ। वस्त्रों के बिना ही किसी न किसी तरह काम चलाना पड़ेगा। इसलिये अपने सुस्ताए बदन को लेकर मैं इसी तरह नंगी ही पड़ी रहती हूँ।

मैक्स मेरे साथ गहरी नींद में सो रहा है। खर्राटे मार रहा है। मैं भी उबासीयां ले रही हूँ। आंखें नींद से बोझल हो रही हैं। चलो घड़ी दो घड़ी जितनी आंख लगती है वही सही। इस समय नींद पूरा जोर मार रही है। मेरी आंखें बंद हो रही हैं, मैं सोती जा रही हूँ.....मैं सोती जा रही हूँ....मैं सो....सो गई हूँ।
                                                         
 अंतिका
अगर इस नावेल को पढ़कर  वस्त्र  उतारकर   फेंकते                                              
समय  किसी  के  हाथ  रूक  जायें  या  कोई  उतारे
 हुये  वस्त्र  दुबारा  पहन  ले  तो  मैं  इस  नावेल को
 लिखने के मनोरथ में अपने आपको सफल समझूंगा।
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