Monday 4 May 2015

1. कांड- भोर का इंतजार



Cover Model: Madhuri Gautam Photography by Vicku Singh Gaurav Sharma & Rishu Kaushik Makeup by Gagz Brar

 ''ऐंह.......हैं....ऐं...हां….।" मैं एकदम ठिठक कर जाग गई, डर से मेरा वजूद इस तरह कांप उठा, जैसे बज रही सांरगी की तार में क ंपन होती है। हैरान परेशान होकर इधर-उधर देखने लगती हूं.....अरे ? ये तो मैं कोई सपना देख रही थी। मैं तो अपने घर में, अपने पलंग पर लेटी  हुई हूं। यहां नदी कहां ? अभी-अभी देखा सपना  मुझे दुबारा याद आने लगता है।

दूर-दराज, किसी अन्जान सी जगह में कोई अज्ञात सा गांव है। शायद यह एशिया का कोई पुराना गांव होगा। प्राचीन समय में घूम रही थी मैं। कु छ जवान लड़कियों की टोली बनाकर गांव से बाहर नदी पर नहाने के लिए जाती हैं। एक पशु चरा रहा लड़का उन्हें छेड़ता है। वे लड़कियां उस चरवाहे की ओर कोई तबज्जो दिए बिना आगे निकल जाती हैं। चरवाहा उनकी बेपरवाही क ो अपनी बेइज्जती समझ कर उन लडकियों का चुपके-चुपके  पीछा करने लग जाता है। लड़कियां आगे जाकर सुनसान नदी के किनारे अपने कपड़े उतारकर रख देतीं हैं तथा  नहाने लग जाती हैं। वे गीत गा-गाकर एक दूसरी को रगड़-रगड़ कर नहलाती हैं। कौन सा गीत गाती थीं वे ?...हां गाने के बोल कु छ इस प्रकार थे........
 
''उजड़ा बुर्ज लाहौर का ते हेठ व्गे दरिया,
मल-मल नावण गोरीयां ते लैज गुरां दा नां…"


चरवाहा पेड़ की ओट में छिपकर चोरी-चोरी उन सुंदरियों के नंगे शरीर (जिस्म का वह आधा हिस्सा, जो नहाते समय पानी से बाहर रह जाता है) देखता रहता है। लड़कि यां नहाने में इतनी मस्त होती हैं कि उन्हें  दुनिया व भगवान की कोई परवाह नहीं रहती। आकस्मिक हवा चलती है तथा किसी लड़की की चुनरी उड़कर चरवाहे के पास आ गिरती है। पैरों में पड़ी चुनरी देखकर चरवाहे के मन में एक शरारत आई। बदला लेने के लिए वह उन लड़कियों के सारे कपड़े चुराकर छिपा देता है। जब काफी समय के बाद लड़कियां नहाकर पानी से बाहर निकलती हैं तो वे अपने कपड़े गायब हुए देखकर घबराहट में आ जाती हैं। तभी चरवाहा पेड़ के पीछे से निकलकर उनके सामने आ जाता है। लड़के को देखकर लड़कियां झुंझलाहट में आ जाती हैं तथा वे अपने शरीर के गुप्त रहने वाले अंगों को अपनी टांगों व बाजुओं  से ढंकने का प्रयास करती हैं। काम वासना का भूखा चरवाहा अपने होंठों पर जीभ फि राकर हंसने लगता है तथा वह लड़कियों के आगे शर्त रखता है कि जो-जो लड़की उसके साथ शारीरिक संबंध बनाएगी वह उनके कपड़े वापिस कर देगा। लड़कियां उलझन में पड़ जाती हैं तथा सोचने लगती हैं कि वे नग्न अवस्था में अपने गांव वापिस कैसे जाएंगी। काफी देर तक वे चरवाहे से अपने कपड़े लेने के लिए मिन्नत-मसाजत करती हैं, लेकिन चरवाहा उनकी कोई बात नहीं सुनता। आखिरकार जब चरवाहा किसी बात पर भी समझौता नहीं करता तो लाचारीवश लड़कियां मज़बूर होकर चरवाहे की शर्त मान लेती हैं। इस तरह ब्लैकमेल करके चरवाहा उन सभी लड़कियों से शारीरिक संबंध बनाकर उन्हें भोग लेता है तथा उनके कपड़े वापिस कर देता है। आंखों में आंसू लिए रोती हुई लड़कियां गांव की ओर चल पड़ती हैं। लड़कियों की इज्ज़त लूट लेने के बाद चरवाहा अपनी जीत पर प्रसन्न होकर हंसने लगता है। ऊंची आवाज़ में डरावने व भयंकर ठहाके, राक्षसों की तरह। बहुत डर लगता है चरवाहे के ठहाकों से.....।

तभी मेरी आंख खुल गई। इतना ही था मेरा सपना। कितना अजीबोगरीब सपना था। लोग कहते हैं, जो हम दिन भर करते या सोचते हैं। हमें रात को उसी का सपना आता है। हमारी इच्छाओं के प्रतिबिंब होते हैं ये सपने। लेकिन मैंने तो इस तरह का ऊट-पटांग कभी नहीं सोचा। विद्वान व्यक्ति कहते हैं कि सपनों का कोई न कोई मतलब जरुर होता है। यूरोप के लगभग सभी विकासशील देशों में सपनों के माहिर जगह-जगह अपनी दुकानें सजाकर बैठे हैं, जो आम जनता को उनके सपनों के अर्थ बताकर अपना धंधा चलाते हैं। जिस तरह ज्योतिषी हाथ देखकर किस्मत का हाल बताते हैं। उसी तरह ये ड्रीम-ट्रांस्लेटर (सपनों के अनुवादक) तुहारे सपने में जो हुआ, उसे तुहारे मुंह से सुनकर उसके अर्थ सरल रूप में तुहें बता देते हैं। जिस तरह बढिय़ा आलोचक कलात्मक या साहित्यक रचना की चीर-फाड़ करके आलोचनात्मक टिप्पणी करते हैं। क्या हो सकता है मेरे इस सपने का अर्थ? क्या संबंध हुआ इस सपने का मेरे साथ नंगी लड़कियां.....वस्त्र.....काम का भूखा मर्द.....। ये सब किस चीज का प्रतीक है। मेरे तो भी पल्ले नहीं पड़ रहा। सच में याद आया, मेरे सपने का एक हैरतअंगेज़ पक्ष यह था कि जैसे फिल्मों में किसी नायक या नायिका का डबल रोल करने के लिए एक ही सूरत के दो पात्र होते हैं। वैसे मेरे सपने वाली लड़कियों की सूरत मेरे साथ हू-ब-हू मिलती थी। ऐसे लगता था कि जैसे वे सब मेरी रंगदार फोटो कॉपियां हों। क्या संबंध हो सकता है उन लड़कियों का मेरे साथ? मैं तो हकीकत में कभी भी उन अपनी हमशक्ल लड़कियों को मिली भी नहीं। कौन थीं वे? क्या लगती थीं वो मेरी? क्या संबंध था मेरा उनके साथ? मुझे यह सपना क्यों आया है? अल्लाह ही जाने।

मैं अन्धेरे में चमक रहे क्लॉक से टाईम देखती हूं, उई मां, रात का एक ही बजा है अभी तो आधी रात ही बीती है। अभी आधी रात तो बाकी पड़ी है। कैसे बीतेगा इतना समय ? दिल तो करता है कि फिर लेट जाऊं।  सुबह होने तक सोती रहूं। लेकिन एक बार नींद उखड़ जाए तो फिर जल्दी आंख कहां लगती है? एक आम आदमी अपनी उम्र का एक तिहाई हिस्सा सोकर गुज़ारता है। मेरी आंखों से नींद कोसों दूर है। अजीब किस्म की बेचैनी, टूटन व थकावट सी लगी हुई है। न मैं सो सकती हूं और न ही जाग सकती हूं। क्या करूं? इस समय तो टेलीविज़न पर भी कोई काम का प्रोग्राम नहीं आता होगा (सिर्फ व्यस्क चैनलों पर बालिगों के लिए देखने वाली लुच्ची फिल्मों के) यह खसम (पति) तो लाइट भी नहीं जगाने देगा, नहीं तो कोई न कोई बोरिंग सी किताब ही पढऩे लग जाती,समय ही निकालना है। जैसे भी हो।

मेरे कानों में अपने हम बिस्तर पति के खर्राटों की आवाज आ रही थी। कितने ऊंचे-ऊंचे खर्राटे मारकर आवाज का प्रदूषण फैला रहा है। इसके खर्राटे कोई सुनकर देखे ओह तोबा-तोबा जैसे कोई इंजन चल रहा होता है, या किसी ने कानों के पास लाऊड-स्पीकर लगा दिया हो, इसके खर्राटे कानों के पर्दे फाडऩे तक चले जाते हैं। मेरी नींद को क्या दोष? कल से या तो मैं अपने कानों में प्लग लगाकर सोने लगूंगी या फिर इसे नाक पर लगाने वाला प्लास्टर या रबड़ का क्लिप, जो खिलाड़ी खेेलते समय आराम से सांस लेने के लिए लगाते हैं, वह लाकर दूंगी। डाक्टर से इसके खर्राटों का ईलाज पूछा था, उसने कहा था कि मरीज को देखना पड़ेगा, कई बार तो गले की नाडिय़ों का ऑप्रेशन करने की जरुरत भी पड़ती है।

''कोई खर्राटों से बचने का आसान रास्ता नहीं है।"  मैंने सवाल किया था।
 
''है....घर वाले से तलाक ले लो ।"  मैंने रुंआसी होकर कहा था, ''यह नहीं हो सकता....बहुत मुश्किल है।"

''क्यों..? हो क्यों नहीं सकता? तुम तो मुसलमान हो, शरीयत के अनुसार तो शादी होने के तुरंत बाद ही खत्म किया जा सकता है, तीन बार 'तलाक...तलाक…तलाक'  कहो तो विवाह खत्म हो जाता है, बस फिर तुम आजाद हो, इस से आसान ढंग और क्या हो सकता है।"  डॉक्टर हंसने लग पड़ा था।

मैं चुप हो गई थी। हर व्यक्ति के पास अपनी लाईफ-हिस्टरी बताई भी तो नहीं जा सकती। मैं डॉक्टर को क्या बताती कि न तो मेरी शादी शरीयत अनुसार हुई थी तथा न ही शरीयत अनुसार टूट सकती है। इन अंग्रेज लोगों को यही तो भ्रम है हमारे धर्म के बारे में। मेरा दिल करे कि डॉक्टर को खरी-खोटी सुनाकर बताऊं कि इस्लाम में सुविधा के लिए विवाह करवाने का रिवाज व इसे खत्म करने की रस्म अर्थात् तलाक अगर आसान बनाए गए हैं तो इसका मतलब यह हरगिज़ नहीं कि इसे खेल समझा जाए। इस्लाम हरगिज यह शिक्षा नहीं देता कि जीवन साथी को वस्त्र समझो तथा जब वस्त्र तंग होकर परेशान करने लगे तो उसे फैंक कर कोई दूसरा वस्त्र पहन लो। ' नहीं' हमारे मज़हब की किसी धार्मिक किताब में बिल्कुल ऐसा नहीं लिखा हुआ है। अगर हमारे धर्म में ढील दी गई है तो उसमें सती भी पूरी की गई है। कल्पना करो कि कोई दंपति गलती से एक दूसरे से तलाक ले लेता है तथा बाद में फिर से अपनी भूल सुधारने के लिए विवाह करवाना चाहता है तो इस सूरत में वे तलाक शुदा दंपति सीधा ही निकाह नहीं कर सकता। निकाह से पहले उन्हें हलाला की रस्म निभानी पड़ती है। हलाला की रस्म में औरत को अपने पहले तलाक देने वाले पति से फिर विवाह करने से पहले, किसी और मर्द से निकाह करना पड़ता है तथा बाकायदा कम से कम एक रात के लिए नए पति के साथ उसकी पत्नी बनकर रात गुज़ारनी पड़ती है। अगर इस रात के दौरान मर्द तथा औरत के बीच शारीरिक संबंध न बने तो हलाला की रस्म को संपूर्ण हुई नहीं माना जाता है। हलाला के  उपरांत अगले दिन नए पति से तलाक लेकर औरत फिर से अपने पहले पति से निकाह करवा सकती है। यहां मैं तुहें एक मज़ेदार किस्सा सुनाती हूं। एक बार एक मूर्ख व्यक्ति ने ताव में आकर अपनी खूबसूरत व गुणवंती पत्नी को तलाक दे दिया। दो-तीन दिन के बाद उसे अपनी गलती पर पछतावा हुआ। उसने अपनी पत्नी से दुबारा तालमेल करने की सोची। लेकिन दुबारा इक्ठ्ठे होने के लिए उन्हें इस्लामी कानून के अनुसार हलाला करना जरुरी था। उसने हलाला करने के लिए एक बूढा सा व्यक्ति यह सोचकर ढंूढ लिया कि बूढे से उसकी पत्नी के साथ शारीरिक संबंधों जैसी कोई बात नहीं होगी तथा उसे अपनी पत्नी पहले जैसे ही मिल जाएगी। लेकिन हो कुछ और ही गया। बूढे की जवानी के समय में खाई हुई खुराकों ने रंग दिखा दिया। सुंदर स्त्री देखकर तो बूढे की नसों में नया जोश आ गया। वह व्यक्ति जब अगले दिन बूढे से अपनी पत्नी को वापिस लेने गया तो बूढे ने तलाक देने से इंकार कर दिया। दूसरी ओर उसकी पत्नी कहने लगी, ''मूर्ख, उस समय तलाक क्यों दिया था? औरत वस्त्र नहीं है कि जब मैला हो जाए उतार दो तथा फिर धोकर दुबारा पहन लो। मुझे तो बाबा जी जंच गए हैं, मैं इनके साथ ही रहूंगी।"  

कहते हैं कि उस जवान औरत का साथ पाकर बाबे का बुढ़ापा कु छ ही दिनों में जवानी में बदल गया तथा वह तलाकशुदा खाबिंद (पति) साहिब सारी उम्र रोते रहे।

ओहो, करवट बदलती हूं, तो हैरानी होती है कि कैसे बच्चों की तरह बेफिक्र होकर पड़ा है। इसे न तो अपनी चिंता है तथा न ही मेरी। इसके हिस्से के फिक्र-फांके भी मैं ही संभाले बैठी हूं। जिस तरह ये हर समय खूब खाता-पीता तथा सोता है। उसी तरह मैं केयर-फ्री क्यों नहीं हो सकती? इसकी तरह मुझे कभी सकून हासिल क्यों नहीं हो सकता? क्यों मैं हर समय तडफ़ती रहती हूं। मैं गर्म कड़ाही में पड़ी हुई खील की तरह हर समय सिंकती रहती हूं। मेरी आंखों से नींद की क्या दुश्मनी है। ये महाशय लेटते बाद में हैं तथा सो पहले जाते हैं। मैं आम तौर पर लाईट बुझाने के बाद भी कई-कई घंटे अंधेरे में छत को घूरती रहती हूं। कई बार तो सारी-सारी रात जागते हुए ही निकल जाती है। नींद लाने के लिए सभी ढंग व तरीके  अपनाकर देख चुकी हूं। किसी का थोड़ा सा भी असर नहीं हुआ। नींद वाली गोलियां तो जैसी खाई, जैसी न खाई, कोई फायदा नहीं होता। डॉक्टर कहता है, ''गोली कोई जादू-टोना नहीं हैं, खाकर खुद भी सोने की कोशिश करो।" 

मैं तो पूरा जोर लगाती हूं सोने का, अगर नींद आए ही न तो मैं क्या कर सकती हूं? अरोमा थै्रपी के किसी माहिर ने सोने से पहले तकिए पर लैविंडर व चमेली की कु छ बूंदों का छिड़काव करने को सुझाव दिया था, यह नुस्खा भी आजमा कर देख चुकी हूं, कोई कामयाबी नहीं मिली।

'बच फलावर रेमेडीज़'  की अनिंद्रा के ईलाज की सभी दवाइयां लेकर देख चुकी हूं, लेकिन किसी का कोई फायदा नहीं हुआ। होयोपैथी की कोई दवाई नहीं छोड़ी, सबका सेवन कर चुकी हूं। किसी के प्रयोग से कोई अंतर नहीं पड़ा। घरेलू उपचार की कंपनियां जड़ी-बूटियों से दवाइयां बनाती हैं जो खास किस्म के हारमोन पैदा करती हैं तथा अंधेरा होते ही हमें नींद के आगोश में ले जाती हैं। लेकिन ये सब दवाइयां मेरे लिए फालतू , बेमतलब व बेकार साबित हुई है। मैं चाय से पूरा परहेज करती हूं। काफी भी कभी जीभ पर नहीं रखी। मैं जानती हूं इनमें पाया जाने वाला तत्त्व कैफीन नींद का पक्का दुश्मन होता है। सोने से पहले नंगे पैर घास पर भी खूब टहल कर देखा है। गुनगुने पानी से नहाकर व ठंडे पानी के छींटे मार-मार कर भी देख चुकी हूं। मधुर संगीत सुनने का नुस्खा भी खूब अजमाकर देखा है। मैने तो शास्त्री संगीत की कैसट ला लाकर घर भर लिया है। सोने से पहले कई दिन तक लगातार गुनगुना दूध भी पीती रही हूं , और तो और योग के आसन व दूसरी कसरतें, जिन्हें नींद लाने में कारगर होने का दावा किया जाता है, वे भी मेरे लिए मददगार साबित नहीं हुईं। मुझे तो ऐसे लगता है जैसे निंदिया रानी मुझ से रुठी हुई है, नफरत करती है मुझसे। किसी से सुना था कि नीला रंग नींद लाने में सहायक होता है, इसलिए मैंने तो बैडरूम की दिवारों को भी नीला पेंट किया हुआ है। कालीन, चादरें, तकिए व रजाई के गिलाफ व पर्दे, मेरे कमरे की हर चीज़ नीली है। यहां तक कि कारपैट भी नीला ही रखा हुआ है। लेकिन सब बेकार है। मेरा याल है कि आज की रात भी मुझे चौकीदार की तरह कमरे में चहल-कदमी करके या अंधेरे में झांकते हुए गुजारनी पड़ेगी। मुझे तो शुरु से ही नींद काफी मुश्किल से आती थी। बचपन में तो अमी लोरी सुनाती तो मुझे पता ही नहीं चलता था कि कब नींद ने आंखें झपका दीं। लोरी में मां की ममता छिपी होती है तथा ममता में इतनी ताकत होती है कि वह बच्चे के हर रोग, पीड़ा व परेशानी को खत्म करके सुख की नींद सुला देती है। हाय, काश अब मैं अमी के पास होती तो मैं उसकी गोद में सिर रखकर लेट जाती तथा फिर वह अपने आप ही चाहे लोरी सुनाती, चाहे थपथपाती या सिर में तेल की मालिश करती, या फिर जो मर्जी करके मुझे सुला देती। मुझे पक्का पता है कि पौने बारह तक तो मैं जाग रही थी। उसके बाद ही कहीं नींद आई होगी। मुश्किल से थोड़ी सी आंखे बंद हुई थीं, वह भी बुरे सपने ने आकर खुलवा दी। खीझ आ रही है स्वपन देव पर, पता नहीं अब दुबारा आंख लगेगी या नहीं। लगता है, बाकी रात मुझे ऐसे ही जागकर काटनी पड़ेगी। ये कौन सी नई बात है, हर रोज का ही काम है। मन उचाट सा हो रहा है। अजीब किस्म की भड़काहट है। सिग्रेट पीने को दिल करता है। लेटे-लेटे ही सिरहाने की तरफ मेज को टटोलती हूं। लाईटर व सिग्रेट की डिब्बी उठाकर खोलती हूं। अंगुली से सारी डिब्बी जांच ली। लेकिन उसमें एक भी सिग्रेट नहीं है। सारी डिब्बी खाली पड़ी है। पैंट की जेब में दूसरी डिब्बी होगी, शायद ? बिस्तर से उठकर खंूटी से लटक रही जीन्स में से एक सिग्रेट निकाल कर होठों में दबा लेती हूं तथा लाईटर जलाकर सुलगा लेती हूं। लाईटर मेज पर रखकर लंबा कश लेती हूं तथा सिग्रेट को अंगुलियों की कैंची में पकड़कर मुंह से बाहर निकाल लेती हूं। अंदर गए हुए धुएं को सांस के जोर से बाहर निकालती हूं। तंबाकू के धुएं का फव्वारा ऐसे निकलता है, जैसे स्टार्ट खड़ी किसी मोटरकार के गैस पैडल को दबाने पर एगजॉस्ट पाईप धुआं बाहर छोड़ता है। मेरे छल्लेदार धुएं का एक बादल सा बन कर छत की ओर उड़ जाता है।

पांच-छ: सौ साल पहले जब सिग्रेट अभी ईजाद नहीं हुई थी, तब लोग सिगार का प्रयोग करते थे। सिगार तंबाकू के  पत्तों को लपेट कर बनाई हुई पाईप को कहते हैं। यह दो से साढ़े पांच इंच तक लंबी हो सकती है। सिगार के एक हिस्से को सुलगा कर दूसरा हिस्सा नाली की तरह मुंह में लगाकर सांस अंदर खींची जाती है। तंबाकू का धुआं तथा महक सांसों में मिलकर व्यक्ति के अंदर चली जाती है तथा खून में घुल जाती है। इस तरह तंबाकू के शरीर में जाने पर आदमी को सरूर व हल्के से नशे का अनुभव होता है। सिगार स्पेनी शब्द सिगारो (ष्द्बद्दड्डह्म्ह्म्श) का बिगड़ा हुआ रूप है। सिगार का नाम सिगार शायद  सीक-आर (ह्यद्बद्मज्ड्डह्म्) से पड़ा है। माया सयता, यूनानी सयता व केंद्रीय अमेरिका के आदिवासी लोग, जिन्हें माया कहा जाता है, उनकी बोली मायावी या मायानी में सिक-आर के शब्दों का अर्थ 'सुलगते नशे का सेवन' करना होता है। पहले-पहले सिगार पीना सिर्फ अमीर लोगों का शौक हुआ करता था। सोलहवीं सदी में सीविले (ह्यद्ग1द्बद्यद्यद्ग) स्पेन का एक शहर के भिखारी व गरीब लोग रइसों के कंडम करके फंैके हुए सिगारों को इक्ठ्ठे करके उनके छोटे-छोटे टुकड़े कर लेते थे तथा फिर उस चूरे को कागजों (जिन्हें स्पेनी लोग पैंपलेट कहते हैं) में भरकर पीते थे। वे लोग इसे सिगारीलोस (ष्द्बद्दड्डह्म्ह्म्द्बद्यशह्य) अर्थात् छोटा सिगार कहते थे। लगभग अठारहवीं सदी के मध्य तक सिगार इटली,  पुर्तगाल, लीवैंट तथा रूस में काफी प्रचलित हो गए थे। निपोलियानी युद्ध के समय फ्रांसीसी व बर्तानवी फौजी लश्करों को रूस में सिगार की जानकारी हुई व उन्हें भी इसकी आदत पड़ गई। उसके बाद सिगार फ्रांस में काफी लोकप्रिय हो गए। फ्रांसीसी लोगों ने ही सिगारों को चूर्ण की बजाए तंबाकू के पत्तों को सुखा कर उनका चूर्ण कागजों में भरने की तकनीक की खोज की तथा इसे आजकल की सिग्रेट का रूप व नाम दिया है।

फूह....ह.....फू ह....मैं जैसे-जैसे कश-दर-कश खींचती जा रही हूं वैसे-वैसे सिग्रेट कम होती जा रही है, जिंदगी की तरह जल-जलकर फिल्टर तक आ पहुंची लपटों को मेज पर मसलकर मैं सिग्रेट को बुझा देती हूं। मन करता है कि लगते हाथ एक और पी लूं। दुबारा डिब्बी उठाती हूं। डिब्बी बहुत हल्की है। पहले उसे खटकटाती हंू। लेकिन जब उसमें कु छ खटकता नहीं है तो डिब्बी खोलकर देखती हूं। ढक्कन खोलकर उसमें अंगुली डालती हूं। उसमें कु छ भी नहीं मिला। यह डिब्बी भी खाली हो गई। जो अभी-अभी पीकर हटी हूं, वह आखरी सिग्रेट थी। अभी कल ही काम से वापिस आते समय नया बीस सिग्रेटों का पैकिट खरीदा था। रात होने तक ही अठारह सिग्रेटें, (एक पति महोदय को दे दी थी जब उसने मांग ली थी) पी गई थी। बाप रे बाप मैं इतनी सिग्रेटनोशी करने लग पड़ी। पूरे दिन में पचास-साठ तक सिग्रेट पी जाती हूं। एक सिग्रेट हमारी जिंदगी के तीन सैकिंड कम कर देती है। सैकिंडों, मिनटों से क्या होना है, मैं तो चाहती हूं कि घंटे, दिन, महीने ही नहीं, बल्कि मेरी उम्र के सालों के साल ही कम हो जाएं। इस लिए मुझे चेन स्मोकिंग की लत लग गई है, मरना चाहती हूं मैं, क्या रखा है अब जीने में भी, जब जिंदगी नर्क बनकर रह गई हो। जीवन इस तरह नीरस हो गया है कि जीने का उत्साह ही नहीं रहा है। न कोई उमंग ,न कोई तरंग,न चाह, न उत्साह। जिंदगी एक सज़ा बन कर रह गई है। हर समय यही चाहती हूं कि कब वह समय आए जब मेरी मौत हो जाए, ताकि मैं सुखी हो जाऊं। सोचती हूं कि जैसे बकवास किताब को बिना पढ़े बंद कर देते हैं, उसी प्रकार बिना जिए इस जि़ंदगी को ठप कर दूं। तीन-चार बार तो मरने की कोशिश कर चुकी हूं, यह अलग बात है कि हर बार नाकाम रही हूं।

हूं.....कंपकंपी सी छूट गई। सर्दी हो गई है। मेरी रजाई किधर गई। अकेला ही सारी रजाई ओढ़कर सो रहा है। रजाई टटोलते समय मेरे हाथ पति के निरवस्त्र शरीर को लग जाते हैं। अरे, ये भी नंगा ही पड़ा है, तो फिर रजाई किधर गई। सारे बैड पर हाथ-पैर मारकर टटोल चुकी हूं,लेकिन रजाई कहीं भी नहीं मिली। हो सकता है कि रजाई नीचे गिर गई हो। लाईट जगाने के लिए तकिए की ओर दीवार पर लगी डिमर स्विच को धीरे-धीरे घुमाकर मध्यम सी उतनी ही रोशनी करती हूं, जिस से रजाई नज़र आ सके। ज्यादा लाईट इसलिए नहीं करती कि कहीं पति महोदय की नींद न खुल जाए। मैं नहीं चाहती कि उसकी भी नींद खराब हो जाए। रजाई पैरों के पास पलंग पर लटक रही है। पैरों की ओर गिरी हुई रजाई उठाकर पति का नंगा शरीर ढंकते हुए मुझे अपने आप पर ही गुस्सा आता है। इस मर्द के जिस शरीर पर लट्टू होकर विवाह करवाया था, अब उसी मिट्टी के ढेर से कितनी नफरत हो गई है। मुझे तो खुद समझ नहीं आता कि मैंने इसमें ऐसा क्या देखा था, जो मैं मर मिटी थी। न इसकी शक्ल न अकल। बस एक चमड़ी ही गोरी है,और कु छ भी नहीं। लेकिन जैसे कहावत है कि 'मक्खी व औरत गिरते समय अच्छी या बुरी जगह नहीं देखती' जब भी गिरेंगी गंदी जगह ही गिरती हैं। मैंने भी जवानी के नशे में अंधी होकर हांफती हुई भैंस की तरह बैठते समय कीचड़ वाली जगह को देखा ही नहीं। बस धम से बैठने के लिए मौका देख लिया। इसमें मेरा भी कोई दोष नहीं था, जवानी चीज ही ऐसी है, इस अवस्था में आकर तो कीट पतंगो के भी पंख उग आते हैं तथा वे जलती हुई शमा में कू द पड़ते हैं। पंजाबी गायक गुरदास मान के गीत की तरह ''वाह नी जवानिए तेरा भी जवाब नहीं,ओ केहड़ा बंदा जो कीता तूं खराब नहीं।"

असल में उस समय मेरी भी अल्हड़ उम्र थी। इस आदमी के साथ सोती थी, इसलिए ये मुझे अपना खुदा नजर आता था। शारीरिक भूख आदमी की अक्ल पर पर्दा डाल देती है। कुछ भी सोच समझ नहीं रहती। उस समय इसके अवगुण भी इसके गुण ही लगते थे। जैसे-जैसे उम्र में परिपक्वता आती गई, मेरी समझ का नजरिया बदलता गया। इसके नुक्स ध्यान में आने लगे। धीरे-धीरे इसका अवगुणों से भरा चरित्र नंगा होकर सामने आने लगा। अपने आप ही समय बीतने पर फिजीकल आकर्षण(शारीरिक खींच) भी खत्म होता गया तथा इस व्यक्ति का असली व जालिमाना चेहरा दिखाई देने लगा। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। नपोलियन ने कहा है कि 'मनुष्य जवानी में गलती, प्रौढ़ उम्र में संघर्ष व बुढ़ापे में पश्चाताप करता है।' मैं भी अब बुढ़ापे की ओर बढ़ती हुई पश्चाताप कर रही हूं। शायद मेरा इस तरह तडफ़ना ही मेरे गुनाहों का प्रायश्चित है। उस समय तो मुझे कुछ पता ही नहीं लगा था। चढ़ती हुई जवानी की डोर ने ऐसा मदमस्त किया था कि काम वासना से ग्रसित होकर मुझे अच्छे-बुरे, सही-गलत, नैतिक-अनैतिक, भले-बुरे अर्थात् किसी भी नकारात्मक या सकारात्मक पहलू के अंतर को पहचानने की समझ नहीं रही थी। धीरे-धीरे ठोकर खाकर बड़ी देर बाद ज्ञान हुआ है तब असली-नकली का अंतर देखने लायक हुई हूं। घटना के घटित हो जाने के बाद समझदार होना किधर की समझदारी है। वैसे हमारी जिंदगी खुद एक बहुत बड़ी अध्यापक होती है, जो हमें पाठ पढ़ाकर ही पीछा नहीं छोड़ती, हमें अच्छी तरह सिखाकर,रट्टा लगवाकर दम लेती है। मैं भी पूरी तरह माहिर हो चुकी हूं। अब तो हंस की तरह चोंच से दूध में से पानी छानकर अलग कर सकती हूं। अब तो वक्त से यही गिला है कि मुझे काफी देर से अक्ल आई है। अगर कहीं पहले समय रहते समझ आई होती तो जीवन खराब होने से बच जाता। 'खैर, अब पछताए क्या होत जब चिडिय़ा चुग गई खेत।'  शायद ये सब  कु छ हो जाने पर ही मुझे समझ आनी थी। महात्मा बुद्ध को भी कलिंगा की लड़ाई में लाखों लोगों की जिंदगी से खेलने के बाद ही रुहानियत का रास्ता दिखाई दिया था। इसी तरह मेरे हाथों भी कई आत्माओं का दुखी करना लिखा था। तभी तो मैं उन पापों का दंड भुगत रही हूं। पति महोदय लात मारकर अपने ऊपर से रजाई उतार लेते हैं। अभी कु छ देर पहले तो मैंने इन्हें रजाई दी थी। शायद ये गर्मी महसूस कर रहे हैं। पता नहीं इसने कौन सा बकरा खाया हुआ है जो इसे ठंड ही नहीं लगती । चलो अगर रजाई नहीं लेता तो न सही, जैसे इसकी मर्जी इसे ठंड नहीं लगती होगी, पर मुझे तो ठंड से कंपकंपी लगी हुई है। हमारे शरीर का जरुरत के हिसाब से एक तापमान होता है। जो कि एक औसत मनुष्य के लिए लगभग 37 डिग्री सैल्सियस होता है। जब भी वातावरण का तापमान हमारे शरीर के तापमान से कम हो जाता है, तो हमारा जिस्म गर्मी छोडऩे लग जाता है। शरीर लगातार ताप छोड़ता व ठंड सोखता रहता है। इसके फलस्वरूप हमें ठंड लगती है। गर्म कपड़े पहनने से या कंबल, रजाई बगैरा ओढऩे पर गर्मी कपड़ों व हमारे शरीर के बीच अटक जाती है तथा बाहर हवा में नहीं जाती। कु छ लोगों का विचार है कि गर्म कपड़े हमें गर्माहट देते हैं, यह धारणा गलत है। असल में हमारे अपने शरीर की गर्मी ही हमें तपिश देती है, तथा इसी वजह से हमें सर्दी महसूस नहीं होती। कपड़े तो उस तपिश को रोक कर रखने का काम करते हैं। मेरे मर्द ने स्लीपिंग गाऊन पहना हुआ है इस लिए उसे ठंड नहीं लगती। मुझे कपड़े पहनकर सोने की आदत नहीं रही। बहुत समय पहले ही छूट गई थी। अब तो कपड़े पहन कर सोना अटपटा सा लगता है। पहले-पहल तो कपड़े उतारकर सोने मेंं मुझे बड़ी शर्म महसूस हुआ करती थी। फिर धीरे-धीरे आदत सी पड़ गई। अब तो हालत ये हो गई है कि मैं दिन में भी घर पर कु छ नहीं पहनती। जैसे अब नंगी हूं, इसी तरह पूरी तरह नग्न होकर ही घर में रहती हूं। छोटे-छोटे बच्चों की तरह नंग-धड़ंग । अब कपड़ों से बहुत ही असुविधा व घिन्न सी होती रहती है। सुबह होने पर मैं उठकर तैयार होऊंगी, खाना तैयार करुं गी। इसके लिए माईक्रोवेव में रखकर व अपना खाना साथ लेकर नौकरी पर चली जाऊं गी।

अभी तो चारों तरफ घुप्प अंधेरा है। कितनी लंबी व अंधकार भरी रात है। सुना है गमजदा रातें लंबी व काली ही होती हैं,न जाने कब अंत होगा इस रात का। मेरा मन बहुत विचलित हो रहा है। मेरा दिल करता है कि इन्हेें उठाकर कहूं कि मेरे साथ बातें करो, ताकि मेरा समय आसानी से गुजर जाए। पर रहने दो बाबा, अगर जगाया तो उठकर झगड़ा करने लगेगा, तथा कहेगा कि ''मेरी नींद खराब कर दी।"  

इसलिए सुबह अमृत बेला में क्यों चांडाल को गले डालूं। दो कौड़ी की कद्र नहीं है इस आदमी को मेरी। बुरा हाल कर दिया इसने मेरा। जब से इसके पल्लू से बंधी हूं, नाश करके रख दिया इसने मेरे हुस्न का। भर जवानी में ही बूढ़ी हो गई हूं। मेरे रूप की वह पहले वाली धार रही ही नहीं। पराए मर्दों को चाहे मैं आकर्षित करने की सामर्थय अब भी रखती हूं फिर भी मैं अपने अंदर से बहुत बदसूरत व बूढ़ी महसूस करती हूं। उम्र तो चाहे मेरी सारी बत्तीस-तेंतिस साल की है। उम्र से क्या होता है। आदमी उम्र से कभी भी बूढ़ा नहीं होता। वह तो जितना दिखाई देता है या महसूस करता है, उतना ही बूढ़ा होता है, चाहे उसकी उम्र जितनी मर्जी ज्यादा हो। एक कुहार को किसी ने एक हीरा दे दिया था। उसने धागे में पिरोकर अपने गधे के गले में बांध दिया। हीरे सहित गधा हर समय मिट्टी में लेटता रहा करे। वही हीरे वाली दुर्दशा इस बेकद्र इंसान ने मेरी की हुई है।

या अल्ला, ये मैं क्या कर बैठी हूं। मायके घर में मैं स्वर्ग के सुख भोगती थी। ऐसी मेरी खराब किस्मत  मुझसे तत पर बैठकर राज न हो सका तथा मैं बांदी बन गई हूं। आचार्य चाणक्य ने अपनी नीति में लिखा है कि ''जैसे एक पेड़ को आग लग जाने पर सारा जंगल जल जाता है। उसी तरह एक लड़की के  खराब आचरण से सारे कु ल का नाश हो जाता है।"   

कितना बुरा समय था वह, जब मैंने कु लक्षणी ने खानदान के माथे पर कलंक लगाया, परिवार की सरदारी मिट्टी में मिलाई, बाबुल की पगड़ी को दागदार किया, अमा के सिर में रेत डलवाई, भाइयों की गर्दनों को झुकने पर मज़बूर किया। सबसे बड़ी बात अपने हाथों से अपनी जिंदगी के आलीशान महल को खन्डहर बना दिया। काश मुझे पाताल लोक की नदी लीथी का पानी पीने को मिल जाए, जिसे पीकर मैं सब पुरानी बातें भूल जाऊं। भगवान करे वह गुजरा समय फिर आ जाए, ताकि मैं अपनी गलतियों को ठीक कर संकू। ''आईविश आई कु ड टर्न दा क्लॉक बैक....आई विश....।"

ये क्या बच्चों की तरह मैं ऊल-जलूल बक रही हूं। उम्र, पानी और वक्त भला कभी वापिस आए हैं। जिस हालत से मैं अब गुज़र रही हंू, मेरी इस त्रासदी भरी स्थिति में घिरी हुई भावनाओं को पंजाबी के कवि भाई वीर सिंह ने अपनी समय नामक कविता में बड़ी सुंदरता से चित्रण किया है। वे लिखते हैं:-

''रही वास्ते घत्त समें ने इक न मन्नी,
फड़-फड़ रही धरीक खिसकाई कन्नी,
किवें न सकी रोक अटक जो पाई भन्नी,
हो,   अजे   संभाल   इस   समें   नूं ,
कर   सफल   उडंका   जांवदा,
एह   ठहिरन  जाच  न  जानदा,
ते लंघ गिआ न मुड़के आंवदा"

समय के सिर पर दोष मढऩे का क्या फायदा। शायद मेरी तकदीर में ही  दुश्वारियां खज्जल खुआरियां लिखी हुई थी। अब्बा जान कहा करते थे कि इस दुनिया में आने से पहले ही हर व्यक्ति अपनी अच्छी बुरी किस्मत लिखाकर आता है। मैं अपनी किस्मत की शिला (तखती) पर दु:खों तकलीफों व कष्टों के शिलालेख लिखवाकर इस दुनिया में आई थी। किस बुरे समय अपने हाथों ही खुशियों की चिता जलाई थी मैंने। आज भी वे सुनहरी दिन याद करके आंखों में आंसू आ जाते हैं। अब तो तमाम उम्र ही ऐसे रोने-पीटने में गुज़रनी है। एक जापानी लोक कहावत है कि ''जिसने सुबह को संभाल कर खूबसूरत नहीं बनाया, उसकी रात रंगीन नहीं हो सकती।" 

मैंने भी जवानी संभाल कर खर्च नहीं की। अब बुढ़ापा पुरसुकू न तथा आरामदायक कैसे हो सकता है। हे...मेरे भगवान, मुझे दुखों, मुसीबतों से लडऩे की ताकत देे, मोक्ष के मार्ग का दीदार करवा, मेरे मालिक मुझे मुक्ति दे। डर लगता है मुझे इस घोर अंधकार से। मेेरा दम घुट रहा है इस वातावरण में। तिल-तिल मर रही हूं मैं। मेरे चारो तरफ झूठ व कालिख पसरी हुई है। कितनी गहन अंधेरी है यह रात। कब खत्म होगी, कब सुबह होगी, कब सूरज चढ़ेगा? कब....कब....कब....?

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