Monday 4 May 2015

कांड 9 -लंबी उड़ान

 Model: Madhuri Gautam Photography by Vicku Singh Gaurav Sharma & Rishu Kaushik Makeup by Gagz Brar
ईस्टर की छुट्टियां नजदीक आ रही थीं। पाठयक्रम की सारी पढ़ाई खत्म हो चुकी थी। छुट्टियों से पहले स्टॅडी लीव हो जाती थी, जिसका मतलब स्कूल न जाकर घर बैठकर ही पढऩा था तथा सिर्फ जून के महीने में परीक्षा देने ही स्कूल जाना था। हाई स्कूल का पांचवां व अंतिम साल होने के कारण यह साल बहुत महत्वपूर्ण था। जल्दी ही 'रवीजन सैशन' हो जाना था। हमारे अध्यापकों ने सलाह बनाई थी कि दूर-दराज जाकर दो-चार दिन की ब्रेक कर लेने से हमारा सभी बच्चों का दिमाग तरो-ताजा तथा खाली हो जायेगा तथा इसके बाद डटकर परीक्षा की तैयारी करना काफी लाभदायक रहेगा। इस बात को ध्यान में रखकर स्कूल की तरफ से मेरी क्लास के लड़के-लड़कीयों को एक सप्ताह के लिये फ्रांस ले जाने की काफी समय पहले ही योजना बना ली थी। ट्रिप पर जाने की सारी तैयारीयां पूरी हो चुकी थीं। एक दो विद्यार्थी, जिनके मां-बाप खर्च नहीं उठा सकते थे, उन्हें छोङ र बाकी सभी जा रहे थे। मैंने भी अपना नाम नहीं लिखवाया था, क्योंकि मैं जानती थी कि लड़की होने के कारण मेरे रूड़ीवादी विचारों के मां-बाप मुझे लड़कों के साथ दूसरे देश में नहीं जाने देंगे। वैसे मुझे घूमने-फिरने का ज्यादा शौक भी नहीं था।

उधर पाकिस्तान में मेरे होने वाले जीजाजी ने बी.एस.सी. मैडीकल कर ली थी। डिग्री ले लेने के बाद असलम एकदम पूरे खाली थे, वह न तो आगे पढ़ सकते थे तथा न ही कोई कोर्स कर सकते थे, क्योंकि उन्होंने विवाह करवाकर यहां इंगलैंड में आ जाना है। इसीलिये पाकिस्तान में किये हुये कोर्स यहां पर कोई ज्यादा फायदेमंद साबित नहीं होते। वहां की शिक्षा की यहां पर कोई ज्यादा अहमियत नहीं है। फिर दूसरे हाथ नाजीया की भी यही इच्छा थी कि उसका पति विलायत की किसी यूनिवर्सिटी से ही पोस्ट ग्रेजूऐशन करे। इसी कारण नाजीया की ससुराल वाले, नाजीया को जल्दी पाकिस्तान बुला रहे थे ताकि जल्दी से जल्दी उनका निकाह पढ़ा दिया जाये। पाकिस्तान जाने तथा खास करके निकाह के नाम को तो नाजीया पहले ही कपड़े उतारे फिरती थी।
मी अब्बू विवाह के लिये इतनी जल्दी करने के हक में न होते हुये भी मान गये थे। वे भी अपने समधीयों को नाराज नहीं करना चाहते थे। इसलिये ईस्टर की इन छुट्टीयों में ही परिवार के द्वारा हम दोनों बहनों का विवाह कर देने के विचार के साथ वीजा हासिल कर लिया गया था तथा पाकिस्तान की टिकटें खरीद ली गई थीं।

कोशिश तो अब्बा जी की यही थी कि मेरी और नाजीया की शादी इकट्ठे ही कर दी जाये। पहले क्योंकि नाजीया का विवाह लगभग एक साल बाद करने का इरादा था, इसलिये मेरे मां-बाप उसके विवाह की तैयारी धीरे-धीरे कर रहे थे। अब स्कीम बदल जाने के कारण उनके पास काम ज्यादा व समय कम रह गया था। यहां की खरीददारी, फिर पाकिस्तान जाकर गहने-कपड़ों की खरीददारी के अलावा ढेर सा सामान व और सारे प्रबंध भी करने बाकी थे। पूरी धूमधाम से विवाह करने के लिये खुली दौलत ही नहीं, खुला समय भी चाहिये होता है।
दो साल हो चुके थे नाजीया की मंगनी हुई को। अभी तक सारे इन्तजाम नहीं हो सके थे। विवाहों के काम तो बिल्कुल गीले अनाज को साफ करने जैसे होते हैं, जो खत्म होने को ही नहीं आते। जब तक शुभकार्य समाप्त नहीं हो पाता, तब तक आदमी को हाथ-पैर मारते रहना पड़ता है। कभी यह खरीद लो, कभी वह खरीद लो, एक काम करते हैं, तो दो और काम रह जाते हैं। नाजीया के विवाह की तैयारीयों में ही अमी तथा अब्बू को चक्कर घिन्नी की तरह घूमना पड़ रहा था, लेकिन मेरा तो सब कुछ ही नये सिरे से करना था। जिसे अंग्रेजी में ''स्टारटिंग फ्रांम दा स्क्रैच" कहते हैं। यानि कि लड़का देखने से लेकर दाज-दहेज तैयार करने तक।

अब्बा को भी इस बात का पूरी तरह अहसास था कि वह इतने कम समय में शायद मेरा विवाह न कर सकें। इसलिये मेरे मां-बाप ने यह योजना पहले से ही बना ली थी कि अगर समय की कमी के कारण वे मेरा विवाह इस बार न कर सके तो वे मेरे लिये वर तलाश कर बात पक्की कर लेंगे या मंगनी जैसी छोटी-मोटी रस्म कर देंगे तथा फिर हम वापिस इंगलैंड आ जायेंगे। मैं यहां आकर एक तो अपनी परीक्षा दे लूंगी तथा साथ ही अमी-अब्बू मेरे विवाह की तैयारी कर लेंगे। इसके अलावा अभी मेरे सोलह साल की होने में कुछ महीने बाकी थे। कानून मुताबिक विवाह योग्य होने के लिये मेरा सोलह साल का होना जरूरी था। परीक्षा के बाद दुबारा जाकर विवाह करने से यह कानूनी अड़चन भी दूर होती थी। उसके बाद पाकिस्तान जाकर मेरी शादी करने में कोई रूकावट नहीं पड़ सकती थीं। अगर इस बार मेरा विवाह हो जाता तो अमी-अब्बू ने पैसे देकर मेरा विवाह कचहरी में रजिस्टर करवा देना था। पाकिस्तान में ये काम आम ही चलता है। सरकार-दरबार में सभी जगह रिश्वत चलती है तथा उम्र बगैरा को कोई नहीं पूछता। आंखें बंद करके विवाह दर्ज कर देते हैं। बस मुट्ठी या जेब गर्म करने पर झट से तुहारे हाथ में मैरिज सर्टीफिकेट पकड़ा देंगे।

इस बात का मुझे पूरा यकीन था कि अगर मैं पाकिस्तान चली गई तो अब्बू कम से कम मेरी सगाई तो जरूर ही कर देंगे। मुझे निकाह की तैयारीयों में से शहनाई की आवाज साफ सुनाई देने लगी थी। हमारे घर में दिन-रात नाजीया के द्वारा सुहाग के गीत गुनगुनाए जा रहे थे, ''साडा चिड़ीयां दा चंबा बे, बाबल बे असीं उड़ जाना। साडी लंबी उडारी बे, बाबल किहडे देश बे जाना---।"

विवाह की याद दिलाने वाली हर चीज मेरे दिल पर छुरीयां बनकर चलती थी, क्योंकि मेरे विवाह के संबंध में मेरी कोई मर्जी नहीं पूछी गई थी। मैं इस तरह 'हलाल' नहीं होना चाहती थी। चाल्र्स डिकंज ने एक जगह लिखा है कि, ''अगर मौका गंवा लिया तो समझो सफलता गंवा ली।" 

मैंने फैसला कर लिया था कि मैं घरवालों को बताये बिना चोरी से फ्रांस छुट्टीयां मनाने चली जाऊंगी। पीछे से मेरे मां-बाप मुझे तलाश-तलूश कर अपने-आप थक हारकर बैठ जायेंगे तथा मैं इकबाल के साथ रहूंगी। घर से भागकर आशिक के साथ एक पहली रात रहना ही जोखिम भरा होता है। उसके बाद तो सारी रातें साधारण व आम बन जाती हैं। पाकिस्तान जाकर किसी अजनबी के साथ विवाह करवाने से मुझे इकबाल के साथ भाग जाने का खतरा उठाना ही भविष्य के लिये लाभदायक लगा था।

फ्रांस के ट्रिप पर जाने के लिये सबसे पहले इकबाल ने ही टिकट खरीदी थी। इस तरह इकबाल के फ्रांस जाने के बारे में मुझे पहले से ही पता था। मैंने भी इजबल की मदद से अपनी टिकट गुप्त तौर पर खरीद ली थी। इजबल को भी मैंने इस बारे में किसी के साथ जिक्र नहीं करने के लिये पक्का कर लिया था।
इत्तफाक से जिस दिन हमने फ्रांस जाना था, उसी दिन पाकिस्तान इंटरनेशनल ऐयर लाइंज के हवाई जहाज की शाम की उड़ान में ही मेरे घरवालों की पाकिस्तान जाने की सीट बुक हुई थी। अगर सीट कहीं एक दिन भी पहले बुक होती तो मैंने मारा जाना था।

घर से भागने का इरादा होते हुये भी दिखावे के लिये मैं पाकिस्तान जाने की तैयारीयां भी जारी रख रही थी। मैं किसी को भी अपनी योजना की भिनक नहीं लगने देना चाहती थी। रवानगी वाले दिन फलाइट तो शाम की थी। सुबह से ही हमारे घर के सभी लोग भार तोल-तोलकर अटैची बांधने में व्यस्त थे। फ्रांस को जाने के लिये डोबर तक ले जाने को कोच हमारे स्कूल से ही सुबह नौ बजे चलनी थी।

बिल्कुल मौके पर आकर मैं सहेली को मिलने के बहाने घर से निकल गई थी। घरवालों ने भी रोका नहीं था। उन्हें अन्दर की बात की जानकारी नहीं थी। अब्बा ने तो मुझे हंसकर कहा था, ''हां-हां मिलले, जिस-जिस से मिलना है।" 

मेरा दिल तो करता था कि मैं अब्बा से गलबहीयां होकर मिलूं। अमी व सारे बहन भाईयों को गले लगकर मिलूं। पता नहीं उनके साथ फिर मिलाप होगा या नहीं। चाहते हुये भी मैं ऐसा नहीं कर सकी थी। मैंने दुनिया के सबसे मजबूत पत्थर ग्रेनाइट की तरह अपना दिल पक्का कर लिया था। घर से बाहर निकलते ही मेरा जोर-जोर से रोना निकल गया था तथा मैंने बंद रखने के लिये मुंह पर हाथ रखकर तेजी से स्कूल की ओर जाती सीधी सड़क पर जाकर किसी और तरफ जाने के लिये लंबी उड़ान भर ली थी।

जल्दी-जल्दी दौड़ती हुई मैं स्कूल पहुुंची थी। मेरे जाने तक एक कोच तो भरकर जा चुकी थी। दूसरी कोच सिर्फ मेरा ही इंतजार कर रही थी। मैं आसपास देखकर जल्दी से चढ़ गई थी ताकि कोच जल्दी से जल्दी चल पड़े। इजबल ने मेरे बैठने के लिये सीट रोक रखी थी। मैं उसी सीट पर जाकर बैठ गई थी। मुझे देख कर सभी को ताज्जुब हुआ था, ''अरे तूंने तो बताया ही नहीं था कि तुम भी चल रही हो।"

इस तरह के शब्दों के साथ बार-बार कोई न कोई लड़का मेरे पास आकर बात करने लगता। मेरे साथ आकर बातें करने का उनका असली मकसद तो यह होता था, कि मैं वहां से उठकर उनके साथ जाकर बैठूं। मैं भी बेवकूफों जैसी अदाकारी करके टाल-मटोल कर देती थी।

मेरे पास आने वाला मुझसे कहता, ''आओ वहां चलते हैं? चलकर बैठते हैं, मेरे साथ वाली सीट खाली पड़ी है।"

''नहीं, यहीं ठीक हूँ, तेरे सामने बैठी ही हूँ, यहां कौनसा खड़ी हूँ मैंं। तुझे बैठने की जरूरत है, तुम जाकर बैठो। कहीं पास खड़े-खड़े ही थक मत जाना।" मैं सामने वाले को आगे से कड़क जबाव देती थी।

मुझे मानती न देखकर आगे से लड़के मुझे लालच देते, ''आओ वहां खिड़की की तरफ बैठ जाना।"

''हां-हां खिड़की के पास बैठकर जुकाम लगवाना है?" मैं ऊपर से बात कहती।

''नहीं मैं तो-----।"

''ना बाबा, माफ कर मुझे, मैं तो यहीं पे ठीक हूँ, मैं उनको हाथ बांध कर उल्टे पैर वापिस भेज देती।"

पंद्रह-बीस मिनट में ही कोच शहर से बाहर निकलकर मोटर वे पर पहुँच गई थी। अब मैं अपने घर से काफीदूर निकल आई थी।

दोपहर तक मैं अपने शहर से दूर जा चुकी थी। लेकिन मेरा दिल डर रहा था कि कहीं अब्बा आकर मुझे पकड़ ही न ले। अब्बा के पास काले रंग की डैटसन कार थी। उन दिनों इंडियन लोग वौक्सहाल की कैवलीयर, मोंडेयू या फोर्ड की एस्कार्ट, फीमेस्टा आदि गाड़ीयां ही खरीदते थे। गोरे लोग रोवर की गाड़ीयां व हमारे पाकिस्तानी हांडा, टोयटा या निशान की ही गाड़ीयां आम तौर से रखते थे। हमारे लोगों में निशान की डैटसन कार इतनी प्रचलित हो चुकी थी कि गोरों ने तो चुटकुला ही बना लिया था कि, ''अखबार का इश्तिहार, अब्दुल डायड डैटसन फॉर सेल।"

मोटर वे (सड़क) पर जाती कोच के पास से जब भी कोई काली कार गुजरती तो मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगता तथा मैं अपने आप को छिपाने की कोशिश में साथ बैठी इजबल के अन्दर को घुसडऩे लगती। हर काली कार देखकर मैं खौफजदा हो जाती थी। चाहे वह कार किसी और कंपनी या मॉडल की ही क्यों न होती। लेकिन मैं तो काला रंग देखकर ही सहम जाती थी। परछाईं की तरह डर मेरे साथ चिपका हुआ था।

डोबर पहुंचते-पहुंचते कोच को दोपहर हो गई थी। वहां उतरते ही मैं जल्दी से दूसरी कोच की ओर गई थी। सभी बच्चों के उतरने पर ही मुझे पता चला था कि इकबाल तो आया ही नहीं था। मुझे उसी जगह दिल का दौरा पडऩे वाला हो गया। लेकिन मैंने अपने आप को जैसे-तैसे संभालकर रखा था। मुझे रह-रह कर इकबाल पर गुस्सा आ रहा था। कितना ढिंढोरा पीटता रहा था, ''फ्रांस जाना है, फ्रांस जाना है।" 

यह तो वह बात हुई, ''मेला-मेला करती रही, मेले वाले दिन घर पे रही।" 

मैं समझती रही थी कि इकबाल शायद दूसरी कोच में चला गया है। स्कूल से इस कोच में चढ़ते समय मेरे दिमाग में ही नहीं आया था कि किसी को इकबाल के बारे में पूछ ही लूं। लेकिन फिर भी कौनसा वापिस जा सकती थी। पीछे भी खतरे के बारूद की सुरंगें थीं। मुझे इकबाल पर बेतहाशा गुस्सा आया था। मैं इकबाल के लिये घर-बार, परिवार सदा के लिये छोड़ आई थी। बिमार क्या? चाहे वह घायल होता, उसे तब भी आना चाहिये था। लेकिन उसे भी नहीं पता था कि मैंने उसके लिये कौन-कौनसे कदम उठा लिये थे। सब कुछ तो मैंने अकेली ने इश्क में अंधी होकर अपने आप किया था। मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाया हुआ था। मेरी हालत उस तपस्वी जैसी थी, जो सारी उम्र कष्ट उठा कर भक्ति करता रहा हो तथा अन्त में उसे पता चले कि वह जिस देवता को रिझाने के लिये अपनी सारी उम्र गंवा बैठा है, असल में वह देवता तो है ही नहीं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? न आगे जा सकती थी न पीछे। अगर आगे कुआं था तथा पीछे खाई थी। रेगिस्तान में खड़े पेड़ की तरह मैं अकेली रह गई थी। निराशा व बेसहारा, मल्लाह व चप्पूओं के बिना पानी में खड़ी किश्ती की तरह, जिसे पानी की लहरें अपने साथ बहाकर जिधर मर्जी ले जाये। मेरा दिल करता था कि पेट में चाकू मारकर मैं अपनी जिंदगी खत्म कर लूं।

इजबल को मेरे दिल की तरंगों का पता था। मैंने उसके पास अपना दर्द खोल दिया था। अपनी तकलीफ बताते हुये मैं रोने लगी थी। इजबल मुझे चुप करवाने व समझाने लगी थी, ''जो होता है अच्छा ही होता है, हमारी जिंदगी एक भरी हुई मशीनगन की तरह होती है, जिसकी संभावना रूपी एक गोली चलते ही नई गोली अपने आप ही चैंबर में आ जाती है। अगर हमारी पहले चलाई गई गोली निशाने पर न लगे तो हमें निराश नहीं होना चाहिये, जबकि अपने निशाने पर तुरंत घोड़ा दबाकर अगली गोली चला देनी चाहिये।"

मैं इजबल के विचारों से सहमति रखती थी। हमारी बातें सुनकर एंजला भी हमारे पास आ गई थी। आधी-अधूरी बात सुनकर एंजला भी सलाह देने लगी थी, ''मैं कहती हूँ सब कुछ भूल-भालकर नजारे लूट, ऐश कर।"

मैं सुन्न हुई खड़ी थी। इजबल ने मेरा कंधा दबाकर कहा था, ''चिंता करने से गम कभी कम नहीं होते। फिक्र मत कर, मैं तेरे साथ हूँ। सब ठीक हो जायेगा।"

''अब तो तुहारा ही सहारा है।" मैं इजबल व एंजला की जोड़ी के साथ ही चल पड़ी थी। उस समय मुझे यही सही लगा था। मैंने मन ही मन सोचा था कि टेंशन लेकर क्या बनेगा? जो होना है, वह तो होकर ही रहेगा। मुझे भागवत गीता का सार याद आ गया था, ''जो हो गया है अच्छा है, जो हो रहा है वह भी अच्छा है, तथा जो होगा वह भी अच्छा ही होगा।" 

बीते समय के लिये ज्यादा क्या सोचना? भविष्य की चिंता छोड़कर वर्तमान पर ध्यान दूं। मैं इस तरह के विचारों पर विचार करती हुई आगे बढ़ती गई।

डोबर से फ्रांस को दो घंटे बाद फैरी चलनी थी। सभी बच्चे शरारतें करते हुये इधर से उधर भागते फिर रहे थे। नब्बे बच्चों में से मैं अकेली ही पाकिस्तानी लड़की थी। बाकी सारे बच्चे अंग्रेज, हब्शी या भारतीय लड़के-लड़कीयां थे। कुछ मुस्लिम लड़के हमारे साथ जरूर थे, लेकिन मुस्लिम लड़की मेरे बगैर कोई और नहीं थी। सभी लड़कीयों के इंगलिश पहनावा था तथा मेरे अकेली के सलवार कमीज लटकाई हुई थी।

बर्मिंघम यहां हम रहते थे तथा हमारा स्कूल था, वहां पर पाकिस्तानीयों व भारतीयों की काफी आबादी होने के कारण कभी महसूस नहीं हुआ था। हमारे स्कूल की ड्रैस सफेद ब्लाऊज व काली स्कर्ट/पैंट होती थी, मैं काली सलवार व सफेद कमीज पहनकर चली जाती थी। सर्दीयों में उनकी जर्सी तथा जैकट आदि वस्त्र इसमें शामिल हो जाते थे। मैं ही नहीं बाकी सारी मुस्लिम लड़कीयां यही पहनावा धारण करके स्कूल आया करती थीं। कईयों को तो सूट के साथ वस्त्रखंड या स्कार्फ जैसा सहीरी बुर्का भी पहनना पड़ता था। पहले-पहले मैंने पंजाबी सूट पहनकर स्कूल जाने से इन्कार किया था। ''मैंने सूट नहीं पहनना, पश्चिमी कपड़े पहनूंगी।"

मी ने मुझे समझाया था, ''नहीं बेटा जमाना खराब है।"

''जमाना उनके लिये खराब है, जो खुद खराब होते हैं।"

''नहीं मेरी बच्ची कहना मान, जिद्द न कर। अपने समाज की औरतें शरीर की नुमाईश नहीं करतीं।"

''जैसा देश, वैसा वेश।" मैंने जिद्द की थी। लेकिन अमी-अब्बू ने मेरी एक नहीं सुनी थी।

''हमें मत पढ़ा, हमने तुझे जन्मा है, तूने हमें नहीं, तुझे यही कपड़े पहनने पड़ेंगे। जो कहा है, वही करना पड़ेगा।"
   
गुस्से में मैं पहले ही दिन स्कूल नहीं गई थी, लेकिन जब मैंने देखा कि मेरी बहन नाजीया भी सूट पहनकर जाती है  तो मैं  दूसरे दिन सूट पहनकर स्कूल चली गई थी। स्कूल में तो सभी मुस्लिम लड़कीयों के सूट पहने देखकर मैं सूट पहनने लग गई थी। हमारे आस-पास सभी देसी लोग ही रहते थे। लेकिन उस बंदरगाह वाला सारा डोबर का इलाका अकेले फिरंगीयों का ही था। सभी गोरे-गोरीयां मेरी ओर तथा मेरे पहनावे की ओर इस तरह से देख रहे थे, जैसे मैं चिड़ीयाघर से छूटकर आया कोई अद्भुत जानवर होऊं या कोई एलीयन (दूसरे गृह का व्यक्ति) जो गलती से इस धरती पर आ गया हो। हर एक आता-जाता मेरी ओर जरूर ऐसे देखकर लांघता, जैसे मैं कोई ट्रैफिक लाईट हूँ, जिसे सबने कानूनन देखकर लांघना होता है। मुझे बेगाने लोगों का अपनी ओर इस तरह झांकना बहुत बुरा लग रहा था। बेहद शर्म आ रही थी मुझे, सफर पर जाने के लिये मैं बिल्कुल खाली हाथ गई थी। मेरे पास कोई ओवरकोट भी नहीं था, जिसे पहनकर मैं अपनी सलवार ढंक लेती। मैं घबराहट में थी। एंजला मेरी परेशानी समझ गई थी तथा वह मुझे बाजू से पकड़कर पाखाने में ले गई थी।
''ले मेरे कपड़े पहन ले। समझदार लोगों ने कहा है कि खाये मन माफिक, पहने जग माफिक।" 

एंजला ने बैग में से निकालकर एक जोड़ा अपने कपड़ों का मुझे दे दिया था।

एंजला से फटाफट वह कपड़े पकड़कर मैंने अपना सलवार कमीज उतार लिया था, इसे अब क्या करुं ? ं''मैंने अपना सलवार सूट समेटते हुये एंजला से पूछा था।"

''फेंक इसे, अब तूने क्या करना है यह?" मैं अपने कपड़े कूड़ेदान में फेंककर उधार लिये कपड़े पहनने लग पड़ी थी। जो वस्त्र एंजला ने मुझे दिये थे वह एक माइक्रो मिॅनी स्कर्ट तथा एक बस्टीयर था।

मेरी कमर पतली होने के कारण खुली स्कर्ट पर बैल्ट लगाकर मैंने काम चला लिया था। लेकिन तंग आकर बस्टीयर में मेरी वजनदार छातीयों का छिपना काफीनामुमकिन था। इजबल के तो छोटे-छोटे उभार थे। उसे तो लड़कों का ध्यान खींचने के लिये छातीयां बड़ी बनाने के लिये अपनी ब्रा में ब्रैस्ट पैड या रूमाल घुसेडऩा पड़ता था। लेकिन मेरे भरपूर स्तन तो बुरी तरह से फंसे पड़े थे। कपड़े के कसाब से मेरी गहराई छाती और भी फूल गई थी। छाती औरत के जिस्म का सबसे काम उकसाऊ अंग होता है। दस साल की उम्र में ही मैं ब्रा पहनने लगी थी। बारह साल की उम्र में ही मेरे बत्तीस साईज की अंगी आने लगी थी तथा तब छत्तीस डी.डी आता था।

पखाने में लगे बड़े-बड़े शीशों के सामने चल-फिरकर मैंने अपने आपको देखा तो मुझे अपनी चाल ही बदली हुई नजर आने लगी। उस दिन पहली बार मैंने अंग्रेजी पहनावा पहनकर देखा था। जिस्म की नुमाईश करने वाला पहनावा पहनकर मुझे बड़ा अजीब लगा था। मैं उस खानदान से संबंध रखती थी। जिसकी औरतें बुर्का-फरोश हुआ करती थीं। मुझे अपने जिस्म के हर अंग को ढक कर रखने की आदत थी। पहनी हुई पोशाक की मांग अनुसार अपनी दोनों कसकर गुंंथी हुई चोटीयां भी मैंने खोल ली थीं। उस लिबास के साथ चोटीयां नहीं जंचती थीं। इजबल ने मुझे अपनी लिपस्टिक दे दी थी। दूसरी लड़कीयों की तरह मैं लिपस्टिक को आम ही नहीं लगाती थीं। सच तो यह है कि इससे पहले मैंने लिपस्टिक सिर्फ एक दो बार ही लगाई थी। मुझे होंठ रंगने की इजाजत नहीं थी तथा न ही जरूरत। लिपस्टिक के बिना ही मेरे होंठ काफी लाल होते थे। आम तौर पर मेरे होंठों की लाली देखकर लोग मुझसे सवाल किया करते थे कि, ''क्या तूंने लिपस्टिक लगाई है?" 

मेरे इन्कार करने पर आगे वाले को यकीन नहीं आता था तथा होंठों पर अंगुली फेरकर तसल्ली की जाती थी।

उस समय मेरे होंठों का रंग फीका पड़ा हुआ था। लिपस्टिक की हल्की-हल्की परत चढ़ाकर मैंने अपने रसीले होंठों को पूरा लाल कर लिया था, गहरा लाल बिल्कुल, लाल खून जैसे। काम के प्रतीक लाल रंग की लिपस्टिक लगाने से मेरा फिक्र में मुरझाया चेहरा चमक उठा था। उन सभी ने मिलकर मुझे ऐसे तैयार किया, जैसे कोई बदमाश व्यक्ति मेले में जाने के लिये अपनी घोड़ी का श्रृंगार करता है या कोई ड्राईवर किसी ग्राहक के विवाह पर डोली के लिये जाने वाली अपनी कार सजाता है।

जुल्फें झटकती तथा पैर पटकती हुई जब मैं धड़ाधड़ करती टॉयलेट से बाहर निकली थी तो लड़कों ने दिल थाम लिये थे। मेरा अधनंगा शरीर आग के शोले निकाल रहा था। मेरा दिल करता था कि पहने हुये वे थोड़े से वस्त्र भी उतार कर फेंक दूं ताकि मुझे देखने वाले सभी लड़कों पर बिजलीयां गिर पड़ें। वैसे नौजवानों को मार डालने में कमी तो मैंने अब भी नहीं छोड़ी थी। मुझे इस रूप में देखकर सबकी आंखें खुली रह गई थीं।

''यू लुॅक स्टॅनिंग---- यू लुॅक अबसोलूटली ब्यूटीफुल----यू लुक गोरजीअस----क्या कहना-----बहुत सुन्दर लग रही हो-----कमाल लग रही हो-----यू लुक मोर अटरैक्टिव इन इंगलिश क्लॉथज।" 

हर कोई मुझसे यही कह रहा था। कई तो आहें भरते, ''हाय-हाय" करने लगे थे। मैं अपने हुस्न के घमंड में उड़ रही थी। मेरे सामने बाकी की सभी लड़कीयां जीरो, बिल्कुल शून्य हो गई थीं। सारे लड़के मेरी ओर ऐसे घूम गये थे, जैसे वहां पर मेरे सिवाऐ और कोई लड़की थी ही नहीं।

जैसे किसी मशहूर हस्ती को देखने के लिये लोगों की भीड़ जुड़ जाती है। इसी तरह लड़कों का हजूम मेरे आस-पास इकट्ठा होकर प्यासे भंवरों की तरह मंडराने लगा था। हर कोई मेरे साथ छेडख़ानीयां कर रहा था।

बिना शक हर सुन्दर लड़की की हसरत होती है कि लड़के उस पर अपनी जान न्यौछावर करें। रास्ते में नजरें बिछाकर उसके इंतजार की धूप में सदैव सूखते रहें। हर समय व हर ओर चाहने वालों का ही तमाशा लगा रहे। लेकिन कोई भी लड़की, लड़कों को इस हद तक अपने पीछे नहीं लगाना चाहती कि लड़के उसका जीना ही दुस्वार कर दें। हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ी लड़कों की फौज ने मेरे नाक में दम कर दिया था। मुझपर बेहूदा व अश्लील कमेंट कसे जा रहे थे।

फैरी में मैं जिस ओर भी जाती, उधर ही मेरे पीछे पूरी भीड़ ही आ जाती । कोई मेरा रास्ता रोककर खड़ा हो जाता। कोई मेरे साथ खुद को घिसाकर गुजरता या मेरे पास से गुजरते समय चिकोटी भी काट लेता। लड़कों ने डोबर से फ्रांस पहुंचने तक मेरी जान सूली पर टांग रखी थी। एक लोफर से लड़के को तो मैंने खींझकर थप्पड़ भी मार दिया था। एक अवारा से पीछा छुड़ाती तो दूसरा आ जाता था। फिजूल बकवास व छेडख़ानीयां झेलते हुये खीझकर अन्त में मैं रोने लगी थी।

मुझे परेशान होती देखकर एंजला ने अपने भाई मैक्स को मेरी मदद को कहा था, जो उस समय फैरी में हमारे साथ ही सफर कर रहा था। उसका भाई हमारे स्कूल में तो नहीं पढ़ता था। बड़ा था तथा बेरोजगार था। काम तलाश रहा था। वैसे मुझे एंजला ने बताया था कि वह काम तो करता था। क्लबों में जाकर ड्रग्स बेचता था। रातों को चोरीयां करता था। वह फ्रांस से सस्ती बीयर तथा सिगरेट लाकर इंगलैंड के दुकानदारों को बेचकर मुनाफा कमा लेता था। इस तरह नशीले पदार्थों की तस्करी करके वह अपने नशे-पत्ते का प्रबंध कर लेता था। सुना था कि एंजला की तरह देखने को भी वह टपोरी सा लगता था। बदमाश टाईप होने के कारण कोई शरीफ लड़का उसके साथ पंगा नहीं लेता था। ऐसे मैक्स के दबकाने तथा उसके मुंह लगने के डर से मुझे लड़कों से छुटकारा मिल गया था। उसके बाद मैं फैरी में आजाद पक्षी की तरह दौड़ती रही थी। हम सभी सहेलीयां लापरवाह होकर घूमती रही थीं। किसी लड़के ने मेरे साथ छेडख़ानी नहीं की थी।

फ्रांस की बंदरगाह कैले में फैरी से उतरते ही हम सभी टूरिस्ट बसों में सवार होकर चल पड़े थे। फ्रांस पहुंचकर दिन छिपने तक जो तीन-चार घंटे हमारे पास थे, उतना समय हम घूमते रहे थे। रात को हमने होटलों की जगह फ्रांस के एक छोटे से गांव में रात काटनी थी। शाम को हम उस गांव में पहुंच गये थे। यात्रीयों के ठहरने को उस गांव के एक खुले मैदान में पक्के तौर से ही तंबू लगे हुये थे। विद्यार्थी ज्यादा होने के कारण हमें दो-दो को एक तंबू सांझा प्रयोग करने की हिदायत थी। मैंने तथा एंजला ने एक बढिय़ा सा तंबू रोक लिया था।

मैक्स ने भी हमारे तंबूओं के पास ही तंबू किराये पर लिया हुआ था। जब एंजला से मुझे इस बात का पता चला था तो मेरे मन में आया था कि क्यों न मैं मैक्स का धन्यवाद अदा करूं। उसने लड़कों से मेरा पीछा छुड़ाकर मेरी मदद की थी। ऐसा न होने पर मुझे फ्रांस का भ्रमण करते समय न तो आजादी तथा न ही आनंद महसूस होना था। वह मेरे लिये सुरक्षा के देवते पैलेडीयम का अवतार बनकर आया था। इसलिये मैक्स को ढूंढती हुई मैं उसके पास चली गर्ई थी। मैक्स एंजला के कारण तब तक मेरे करीब नहीं आया था। फैरी में भी हमारी मुलाकात नहीं हो सकी थी। मुझे अपने तंबू के आगे खड़ी देखकर वह देखता ही रह गया था। उसके मुंह से आवाज भी नहीं निकल रही थी। मिट्टी के बुत की तरह वह मेरी ओर मुंह फाड़कर देख रहा था। मैक्स की आंखें इस तरह खुली थीं कि लग रहा था जैसे अभी बाहर आ जायेंगी। मैंने धन्यवाद करने के लिये खुद की बात चलाई थी। बाद में मुझे बातों में लगाकर मैक्स ने मुझे रुकने का निवेदन किया था। शिष्टाचार के लिये मैं उसके पास बैठ गई थी।

मैक्स को पहली नजर देखकर हमारे बीच कोई ''कैमेस्टरी" होना तो दूर की बात थी। मुझे तो वह बिल्कुल पसंद नहीं आया था। उसका शरीर पानी पीकर अफराये भैंसे जैसा था। हाथों व बाजूओं पर टैटू बने थे। आंख की पलक में छेद करके बाली पहनी हुई बेहद खराब लग रही थी। सिर पर उस्तरा फिराकर बिल्कुल सफाचट किया हुआ था। इस तरह के स्किनहैड गोरे आमतौर पर नस्लवादी होते हैं। शुरू से ही स्किनहैडों के लिये मेरे मन में नफरत थी। एक बार क्या हुआ कि मैं अपने भाईयों व अमी के साथ फुटपाथ पर जा रही थी। सामने से साइकिलों पर इसी टाईप के गोरे आ रहे थे। जब वे हमारे पास आये तो सभी ने हमारे मुंह पर थूका तथा ''पाकी" कहकर हमें गाली देते हुये भाग गये थे।

मेरी एक और सहेली के घर पर स्किनहैड गोरे स्प्रेकैन वाले रंग से रात को ''काले लोगों हमारे देश से दफा हो जाओ", लिख गये थे।

मेरे अब्बा के साथ भी कई घटनाएं हो चुकी थीं। ऐसे फिरंगी पहले टैक्सी बुक करके ले जाते तथा फिर किराया देने के बजाए भाग जाते थे। ऐसा करते समय अक्सर इनकी गिनती तीन-चार होती तथा फिर भागते भी अलग-अलग दिशाओं में अलग-अलग होकर, ताकि अकेला व्यक्ति असमंजस में पड़ जाये। ऐसे ही एक बार जहां सवारीयों ने कहा, अब्बा ने वहां गाड़ी पहुंचा दी थी। गाड़ी के रूकते ही नस्लवादी गोरे बिना किराया दिये कार से निकलकर भाग गये तथा सब-वे (भूमिगत रास्ता) में उतरकर कहीं छिप गये। अब्बा जल्दी में चाबी कार में ही छोड़कर उनके पीछे भाग लिये थे। थोड़ी दूर जाकर अब्बा ने उन्हें दबोच लिया था तथा पीटकर किराया वसूल कर लिया था, लेकिन जब वापिस आये थे तो टैक्सी यहां छोड़कर गये थे, वह वहां पर नहीं थी। उन गोरों का कोई साथी लेकर उडऩ-छू हो गया था, जो पहले से ही वहां पर खड़ा था।

एक और घटना में ऐसे हुआ कि कुछ गोरों ने अब्बा की टैक्सी किराये पर कर ली थी। जिस ओर वे कहते रहे अब्बा उन्हें उसी ओर ले जाते रहे। ऐसे सुबह से शाम हो गई तथा वे अब्बा को एक ही शहर में उन्हीं सड़कों पर बार-बार घुमाते रहे। तंग आकर अब्बा ने उन्हें टैक्सी रोककर पूछा कि उन्हें असल में जाना कहां है? उन्होंने कोई और जगह बताई जो वहां से काफी दूर थी। अब्बा ने कहा कि पहले पिछला किराया चुकता करो, फिर मैं आगे गाड़ी लेकर जाऊंगा।

इतनी बात होने पर कार में बैठे तीन-चार गोरे नीचे आ गये तथा उन्होंने अब्बा को खिड़की खोलकर बाहर खींच लिया तथा पीटने लगे, ''ये लो किराया, हरामजादे, और चाहिये किराया?" वे लोग अब्बा को बहुत देर तक पीटते रहे थे। ठोकरें मार-मारकर उन्होंने अब्बा का नाक मुंह जमी कर दिया था। महीना भर अब्बा बैड पर पड़े पट्टीयां करवाते रहे थे। तब से मुझे बहुत बुरे लगते थे गंजे सिर वाले अंग्रेज। पहले तो मैं मैक्स के पास सहमी सी खड़ी थी। लेकिन जब वह दोस्ताना बातचीत करने लगा तो मैं भी खुलकर बात करने लगी थी। मुझे उसकी बातचीत में से बिल्कुल भी नस्लवाद की बू नहीं आई थी।
वहां पास में ही एक पब था, जो हमें वहां बैठे ही दिखाई दे रहा था। मैक्स मुझे पब की ओर खींचने लगा था। मैंने थोड़ा-बहुत मना किया था, लेकिन वह टलने वाला नहीं लग रहा था। मैंने सोचा कि अगर ज्यादा जोर लगाता है तो साथ देने के लिये चली जाती हूँ। वह बीयर पी लेगा तथा मैं कोक या जूस बगैरा पी लूंगी। हम पब में चले गये थे। मैक्स मुझे पूछे बगैर ही व्हिस्की के डबल शॉट (पटियाला शाही पैग) डलवा लाया था। मैंने पीने से इन्कार कर दिया था, ''मुझे तो माफ करो।"

''क्यों?"

मैंने इकबाल से सुनी बात सुना दी थी। ''गुरू अमरदास जी ने कहा है कि, ''जिसके पीने से बुद्धि खत्म हो जाती है तथा काम में अड़चनें आ जाती हैं। अपने-पराये की पहचान नहीं रहती तथा खसम (भगवान) से धक्के खाने पड़ते हैं। जिसके पीने से भगवान को भूल जाते हैं तथा दरगाह में सजा मिलती है। इस तरह का नशा बिल्कुल नहीं पीना चाहिए। ''नहीं, भई, मैंने ये कभी नहीं पी है।"

''कोई बात नहीं, आज पीकर देख लो।"

''बरटैंड रस्ल कहता है", शराबनोशी एक तरह की आत्महत्या है। 

''नहीं भई मैं नहीं। सिखों के गुरू ग्रन्थ साहिब के पन्ना 553 पर दर्ज है, ''इतु मद पीतै नानका बहुतै खटीयै बिकार।" 

मैंने इन्कार किया था तो मैक्स ने डांटने के लहजे में कहा था, ''पकड़-पकड़, नखरे मत कर।" उसकी आवाज में काफी रौब था। मै उससे डरती हुई रोने लगी थी।

मैक्स मुझे चुप कराने लगा था, ''रो मत, चुप कर, सौरी गलती हो गई।"

जहाज के रूकने की तरह मैं काफी देर बाद जाकर चुप हुई थी। मेरे चुप होते ही मैक्स फिर से वहीं पहले वाला राग अलापने लगा था, ''सिर्फ एक घूंट भर ले? सिर्फ एक घूंट?"

धीरे-धीरे उसकी आवाज में से निवेदन का सुर दबकर हुक्मराना सुर उभर रहा था।

''पीती है या नहीं?" वह गुस्से से कड़का था।

मैं कुछ नहीं बोली थी। मुझे डर था कि इस बार अगर मना करूंगी तो कहीं मैक्स मुझे पीटने न लग जाये। मेरी आंखों के सामने अब्बा का जमी चेहरा घूमने लगा था। नाक मुंह से निकल रहा खून----दांत टूटे हुये। मैक्स मेरी ओर आंखें निकालकर देख रहा था, मैं बहुत सहम गई थी।

शराब ही है, जहर तो नहीं? देखा जायेगा। भर लेती हूँ घूंट। मैंने अनमने से मन से गिलास उठाकर गले में उड़ेल लिया था। मुझे ऐसे लगा था जैसे अन्दर से मेरा कलेजा छीला गया हो। सारा मुंह कड़वाहट से ऐसे भर गया था जैसे कोई कड़वा फल खा लिया हो। वैसे एक घूंट पीकर चौदह तबक रोशन हो गये थे। सातों पर्दे खुल गये लग रहे थे। ऐसे लगा जैसे हलक से सीधी पैरों तक उतर गई हो।
मैं समझती थी कि एक गिलास पीने से मेरा पीछा छूट जायेगा। लेकिन कहां? मैक्स मुझे पूछे बिना ही एक पैग और ले आया था। मैंने उसे सत शब्दों में जबाव दे दिया था, ''तूने एक घूंट पीने के लिये कहा था, मैं एक गिलास पी चुकी हूँ, अब नहीं।"

''थोड़ी सी और पी ले, पी ----ले, पी----ले, पी----ले?"

''नहीं मैं नहीं", मैंने जोर-जोर से सिर हिलाया था। यूनान के शराबी जिन्हें बैकअनल कहा जाता है, वे मदिरा देव मैक्स को लीबेशन यानि शराब का चढ़ावा चढ़ाकर उसकी उपासना करते हुये डिथिरैंब नामक गीत गाते हैं। मैक्स की ''पी-पी" भी मुझे डिथिरैंब से कम नहीं लग रही थी।

''बच्चों वाली आदतें छोड़, अब तू जवान हो गई है-----अपने विचारों को भी मैच्योर (परिपक्व) कर।"

''मुझे बच्ची ही रहने दे। जवानी के हाथ मैं देख चुकी हूँ। ट्रेलर में ही मेरा जीना हराम हो गया है। आगे जाकर फिल्म चली तो पता नहीं क्या होगा।?"

''अब तो तूने पीकर देखी ही है। क्या तेरी जान निकल गई? ये रहा गिलास, खींचने की कर, जहां एक पिया है, वहां एक और सही।"

मैं बिना कुछ कहे सामने पड़े गिलास को देखती रही थी। मेरा दिमाग मुझे ठोकर मारकर भरा हुआ गिलास गिरा देने के लिये कह रहा था। लेकिन मेरी ललचाई नजर उसका विरोध कर रही थी।

''बस यही आखरी पैग। फिर और के लिये तुझे नहीं कहूँगा।" मैक्स ने बहुत ही इसरार से कहा था।

मैं आंखें बंद करके पूरे का पूरा गिलास खींच गई थी। फिर उसके बाद एक और----और----तथा और मैक्स इसी तरह मुझे एक के बाद एक गिलास जब्रदस्ती पिलाता गया था। धक्के से शराब पिलाकर शराबी करने में मुझे उसकी कोई चाल नजर आई थी। मुझे उसकी मैली आंख साफ नजर आ रही थी। पांच-छ: पैग पीने के बाद पता नहीं मुझमें हिमत व हौंसला कहां से आया था या शायद यह शराब का असर था कि मैं मैक्स को टूटकर गले पड़ गई थी, ''मुझसे नहीं और पी जााती, दूर कर ले, नहीं तो तेरे मुँह पर मार दूंगी गिलास।" 

नशे के असर में मैं थरथरा कर बोली थी।

मुझे गुस्से में देखकर मैक्स दब गया था। सभी लोग हमारी ओर देखने लगे थे। मैं मौका संभालकर वहां से दौड़ पड़ी थी। रास्ते में आते-आते मुझे चक्कर से आने लगे थे। आंखों के आगे तारे नाच रहे थे। सिर चकरा रहा था। मैं समझ गई थी कि अल्कोहल का नशा मेरे ऊपर हावी हो रहा था। डगमगाती हुई मैं जैसे-जैसे कैंप तक पहुँची थी तथा सीधी अपने तंबू में चली गई थी।

नशे की धार को कुंद करने के लिये मैं फैरी में से खरीदे हुये संतरे के रस की बोतल में से दो तीन गिलास पीकर स्लीपिंग बैग में घुसकर सो गई।

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