इजबल नाम की अंग्रेज लड़की हमारे स्कूल की एक और हॉट (गर्म) प्रॉपर्टी मानी जाती थी। गर्मा-गर्म पकौड़ों की तरह लड़कों में उसक ी बहुत मांग थी। उसकी आंखें पूरी नीली थीं,समुंदर के पानी जैसी । मेम होने के कारण जाहिर है कि वह गोरी थी। लेकिन उसकी नरम, मुलायम चमड़ी, मौस्चराईज़र क्रीम व हल्का सा मेक-अप करने पर और भी लिस्क (चमक) जाती थी। उसके होठों पर हमेशा हल्की सी लिपस्टिक लगी होती थी, जिस कारण उसके लब (होंठ) काफी आकर्षित लगते थे। उसके कंधों तक लमबे कटे हुए बालों का असल रंग तो गेहूंआ था, लेकिन वह हर महीने उन्हें नए हेयर कलर से रंग लिया करती थी। जिस कारण इजबल की दिखावट पर हर महीने पहले से भी ज्यादा निखार आ जाता था। उसकी बातचीत में इतनी मिठास होती थी कि सुनकर ऐसा लगता था जैसे बाग में कोई कोयल गीत गा रही हो। हर समय उसे बातें करते सुनने को दिल करता रहता था। अपनी सुडौल टांगों की बनावट सुंदर होने के कारण वह आम तौर पर उन्हें नंगी रखने के लिए मिनी स्कर्ट ही पहना करती थी। उसका मध्यम दर्जे का शरीर था, न ही बहुत मोटी व न ही पतली। वह न तो लंबी थी तथा न ही ठिगनी थी। उसका सिर से पैरों तक समूचा ढांचा ही देखने को बहुत कामुक प्रभाव देता था। नि:संदेह इजबल भी मेरी तरह एक 'आईटम' मेरे विचार में हमारे स्कूल की सबसे सुंदर लड़की थी। लेकिन इजबल मुझे सबसे हसीन समझती थी। एकबार तो उसने अपने मुंह से भी मुझे कहा था, ''हाय, शैजीया ,भगवान ने तुझे जी भरकर रूप दिया है। मुझे तुझ से बड़ी जलन होती है। अगर तुम न होतीं तो मैंने इस स्कूल की सबसे सुंदर लड़की होना था।"
मैं हवा में उडऩे की बजाए उसे ही पमप मार देती थी,''नहीं, यार....तुझे ऐसे ही भ्रम है। दूसरे की थाली में पड़ा लड्डू बड़ा ही लगता है। तुम कौन सा कम हो? मुझ से दो पैसे ज्यादा ही होगी, कम नहीं। मर जानीए , तेरा शरीर तो ऐसे है जैसे दूध में गुलाब गुंथा हुआ हो।"
''कहां ? अगर मैं तुझ से ज्यादा खूबसूरत होती तो लड़के मुझे छोड़कर तेरे पीछे नहीं दौड़ते। तू तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ती।"
इजबल के मुंह से ऐसा सुनकर मझे अपनी सुंदरता पर घमंड हो जाता था। मुझे देखने के बाद कोई भी लड़का किसी दूसरी लड़की की ओर नहीं देखता था। इजबल मेरी काफी अच्छी सहेली थी। मुझ से ज्यादा वह इकबाल की दोस्त थी। तीसरी-चौथी क्लास में उसका इकबाल के साथ आशिकाना था। वह ब्रेक (रिसैस्) के दौरान खेल के मैदान में निरंतर एक दूसरे को चूमते-चाटते रहते थे। शायद उसी समय से मैं इकबाल में दिलचस्पी लेने लगी थी। मेरे मन में यह भावना आती थी कि अगर वह इकबाल को चूम सकती है तो मैं क्यों नहीं? मुझ में क्या कमी है? इस तरह मैं भी इकबाल को प्यार करने लगी थी। मेरा भी इकबाल के साथ वह सब करने को दिल करता जो इजबल करती थी। दो-तीन साल बहुत धुंआधार इश्क चलने के बाद इजबल व इकबाल की किसी बात पर अनबन हो गई थी। इश्क तो बेशक अब उनका नहीं था। लेकिन फिर भी इजबल की इकबाल के साथ अच्छी खासी दोस्ती थी। इजबल का जन्म दिन नजदीक आ रहा था। इस अवसर पर इजबल बड़ी धमाकेदार पार्टी दे रही थी। उसने अपनी पार्टी में मुझे भी आमंत्रित किया था।
बीमार होने के बाद इकबाल कहीं इजबल को मिला था। इजबल बताती थी कि इकबाल तो पहचाना भी नहीं जा रहा था। सूखकर कांटा हो गया था। रंग-बदरंग हो गया था। तभी शायद इजबल ने इकबाल को अपनी पार्टी में आने का निमंत्रण दिया था। मुझे जब इस बात का पता चला तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा था। ऐसा लग रहा था कि जैसे भगवान ने फरियाद सुन ली हो। बहुत समय हो गया था कोशिश करते, मुझे इकबाल के दर्शन करने का यही एक मौका बनता दिखाई दे रहा था। मुझे यकीन था कि इकबाल वहां पहुंचेगा तथा मैं उस से अपने दिल की सभी बातें कर लूंगी।
बिल्कु ल मौके पर आकर इजबल ने मुझे बताया था कि पार्टी दिन में न होकर रात को है। इस तरह मेरा जाना तो वहीं पर ही रद्द हो गया था। रात को जश्न होने के कारण मुझे घर वालों से बाहर जाने की इज़ाज़त मिलने का तो शून्य प्रतिशत चांस भी नहीं था। हमारे घर में तो लड़कियों को दिन में भी बिना मतलब घर के दरवाजे से बाहर पैर नहीं रखने दिया जाता था, रात को बाहर किसने जाने देना था? वह भी अंग्रेज लड़की के जन्म दिन की पार्टी पर, नो चांस, कदाचित नहीं।
मेरा इस पार्टी में शामिल होना जरुरी था। सारी सहेलियां तो मुझे पहले ही 'पार्टी पौंपर' समझती थी। मैं पहले भी उनके साथ कभी किसी पार्टी-शार्टी में नहीं जाती थी। इसी कारण मेरी सहेलियां अक्सर मुझे 'मिस बोरिंग' कहकर छेड़ा करती थी। इस पार्टी में न जाने से सबको मेरा मजाक उड़ाने क ा एक और मौका मिल जाना था। उधर इजबल ने भी बिना फालतू नारज हो जाना था। साथ ही सबसे बड़ी बात इकबाल से मिलने की समस्या भी इसी पार्टी में जाने से हल होनी थी।
इंसान तभी अंगुली टेढी करता है, जब सीधी अंगुली से घी न निकले। पार्टी में शामिल होने की इज़ाज़त तो मुझे मिलनी नहीं थी। इसलिए मैंने बिना बताए चोरी से पार्टी में जाने का मन बना लिया था। उस समय मेरी प्राथमिकता सिर्फ इकबाल को मिलना ही था। पार्टी वाली शाम मैं नहा धोकर जल्दी रोटी खाकर पहले ही सोने चली गई। अममी ने सोने के समय की इबादत अर्थात् 'नमाज-ए-खुफतन' (सलातुल इशा) भी अदा कर ली थी। लगभग नौ बजे, जब मुझे यकीन हो गया कि घरवाले सभी लोग समझ रहे हैं कि मैं सो चुकी हूं तो लेटकर करवटें बदलने की जगह मैंने अपने कपड़े उतारे तथा 'हियूगो बाम' जनाना आफटर शेव सारे शरीर पर लगाई। (लगाई नहीं बल्कि चुपड़ ली कहना ज्यादा उचित रहेगा) खास कर गर्दन पर। मैंने अलमारी खोली व सबसे शानदार सूट निकाल कर पहना। सभी कपड़ों पर गूची परफयूम लगाया । मेरे अंग-अंग में से इत्र की महकें आ रही थी। ज्वैलरी बाक्स में से निकाल कर मोतियों की माला का सैट पहना। तैयार होकर मैं कु छ देर तक बाकी सभी के सोने का इंतजार में विडियो गेम खेलने बैठ गई।
सही समय आने पर मैंने कमरे की खिड़की खोली, जो कि हमारे घर की पिछली ओर बगीचे की तरफ खुलती थी। मैंने अपने सैंडिल उठाकर पहले तो खिड़की में से नीचे घास पर फैंक दिये, फिर धीरे-धीरे बैडरूम की खिड़की के साथ चादर बांधी तथा उससे लटक कर नीचे उतर गई। इस तरह पिछले दरवाजे से होती हुई मैं घर से बाहर निकल गई थी। आगे जाकर मैंने एक सिंह की टैक्सी हाथ देकर रोकी तथा उसमें बैठकर इजबल के घर पहुंच गई।
पार्टी पर लगभग हमारा सारा स्कूल ही आया हुआ था। लेकिन वह नहीं आथा था, जिसके लिए मैं गई थी। मुझे औरों से क्या लेना-देना था। मुझे तो इकबाल के आने से मतलब था। शायद वह देरी से आएगा, यह सोच कर मैं इकबाल की प्रतीक्षा करने लगफे
रास्ते की तरफ आंखें बिछा कर बैठी इंतजार करती की मेरी जान निकलती जा रही थी। जब मेरे सब्र की इंतहा हो गई तो मैंने शराब परोस रही इजबल को रोककर पूछा,''इकबाल कहां है? उसने आना नहीं है क्या?"
''नहीं अभी तक तो नहीं आया है, क्या पता?" इजबल का उत्तर सुनकर मेरा मुंह किसी महान् व्यक्ति के मरणोपरांत झुकाए गए सरकारी झंडे की तरह हो गया था। मेरे चेहरे पर आई मायूसी को भांप कर इज़बल ने आंख दबाकर कहा था, ''और बहुत से लड़के आए हुए हैं, जिसे मर्जी पकड़ ले, तुझे तो कोई इंकार नहीं करेग"
लकिन्न्न्न् किसी और लड़के में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। मैंने इकबाल की गैरहाजरी का कारण जानने के इरादे से दोबारा पूछा था कि,''तूँ तो कहती थी कि वह जरुर आएगा।"
''अरे भई, वह कहता तो था, हो सकता है उसकी सेहत ठीक न हो। वह ज्यादा बीमार होने के कारण न आया हो। तू फिक्र न कर उसकी।" कहकर इजबल चली गई थी।
मैं अपने मन में सोचने लगी कि अगर इकबाल ठीक नहीं है, उसकी हालत गंभीर है तथा वह पार्टी में आने के लायक नहीं है तो यह फिक्र नहीं करने वाली बात नहीं है, बल्कि मेरे लिए तो और भी ज्यादा फिक्र वाली बात है। मुझे कु छ भी अच्छा नहीं लगा था। दिल करता था कि उसी समय वापिस अपने घर चली जाऊं। लेकिन मज़बूरन मुझे थोड़ा समय और वहां रुकना ही पडऩा था। नहीं तो इजबल को शक हो जाता कि मैं इकबाल के लिए ही उसके घर गई थी। उसने सबको बता देना था तथा लोग हमारी बातें बनाने लग जाते । जो जंगल की आग की तरह ही थोड़े दिन में ही सारे शहर में फैल जानी थी और इस तरह हमारे परिवार को पता लग जाना था। जो बदनामी होनी थी वह तो एक तरफ, बल्कि हमारे इश्क का सारा खेल चौपट हो जाना था। मैं थोड़ी लापरवाही करके इतना बड़ा खतरा खड़ा नहीं कर सकती थी । इसलिए मैं पार्टी में न चाहते हुए भी रुक गई थी।
इकबाल के पार्टी में शामिल न होने से मुझे बहुत निराशा हुई थी। शायद इकबाल सचमुच बीमार था। बीमारी की स्थिति में वह कैसे आ सकता था? दो-तीन घंटे जितना समय मैं पार्टी में ठहरी, उतना समय मैं बुझी-बुझी सी ही रही। इकबाल के बिना पार्टी का आनंद मुझे क्या आना था?
कई लड़कों ने अपने साथ नाचने की पेशकश मुझे की थी, लेकिन मैंने किसी को हां नहीं कहा। यार होता तो उसे मनाने के लिए मीराबाई बनकर नाचती। पैरों में झांझर या घुंघरु बांधती। कंजरियों की तरह नाच-नाचकर बौरा हो जाती। सारी रात नाच-नाचकर धरती हिला देती।
कितना कु छ सोच रखा था कि इकबाल से मिलकर सभी गिले-शिकवे दूर करुं गी। सारी गलतफहमियां दूर करुंगी तथा उसके बाद आनंदमग्न होकर एक दूसरे की बाहों में बांहें डालकर 'कोर्ट-रूम' डांस करेंगे। मधुर, हल्के-फु ल्के तथा धीमी गति से बज रहे संगीत की धुन पर नाचेंगे। गतिशील पवन से लह-लहाती फसलों की तरह हमारे शरीर के ऊपरी हिस्से हिलेंगे। टाईपराईटर के की बोर्ड पर चलती किसी टाईपिस्ट की अंगुलियों की तरह हम धरती पर अपने पैरों को उठाएंगे तथा रखेंगे। कम हवा में धीरे-धीरे घूमते विंडमिल के पंखे की तरह हम अपने स्थान पर खड़े-खड़े आहिस्ता-आहिस्ता गोल-गोल दायरे में घूमते जाएंगे। शाम गहरी होती जाएगी। तब तक रोमांटिक संगीत की चाल में इस कद्र धीमापन आ जाएगा कि बड़ी आसानी से यह भी बताया जा सकेगा कि कब सैक्सोफोन बजता है, कब प्यानो, व कौन सी बांसुरी की आवाज है, तथा इस तरह क ान दूसरे साजों का अंतर करने के काबिल हो जाएंगे। एक दूसरे की आंखों के दर्पण में से अपना-अपना चेहरा खोजते हुए हमारे होंठ एक दूसरे के होठों से बेइखतयार (बेकाबू होकर) आलिंगबद्ध हो जाएंगे। संगीत की ताल से ताल मिलाकर हम चूमते जाएंगे, संगीतकार के द्वारा संगीतबद्ध किसी गीत की तरह, जिसका एक भी शब्द बेसुरा अर्थात् सुर से बाहर तथा गैरजरुरी नहीं होता। लयात्मक चमबन बहाव में बहकर हमें पता नहीं चलेगा कि कब इस दुनिया में से किसी और जहां , किसी और धरती, किसी और आकाश, किसी और पाताल, किसी और ग्रह या अंतरिक्ष में पहुंच जाएंगे ।
पर मेरे सभी अरमान इस तरह से उड़ गए थे जैसे तूफान में गरीबों की झुग्गियां उड़ जाती हैं, या पक्षियों के घौंसले तिनका-तिनका होकर बिखर जाते हैं।
इजबल के मां-बाप ने उसे पूरी आजादी दे रखी थी। उन्होंने कह दिया था कि ''बेटी, आज तेरा सोहलवां जन्म दिन है, तू जो मर्जी सिर में छेद कर।"
सचमुच इजबल के मां-बाप ने क ोई दखल नहीं दिया था। एक तरफ इन गोरे लोगों का खुला नजरिया जो बच्चों को इस तरह पार्टियां करने की छूट देता था। दूसरी ओर हमारे लागों की बंदिशें , जो अपने बच्चों को महफिलों में शामिल होने पर भी रोक लगाती हैं। बच्चों को छूट देने के विचार का यह वस्त्र अंग्रेजों के फिट व हमारे देसी लोगों के अनफिट होने के बारे में सोचकर मुझे बड़ा अजीब लगता था।
इजबल ने यारों दोस्तों के लिए शराब का दरिया बहा दिया था। पहले केक काटने तक लच्चर गाने बजते रहे थे। फिर इजबल के कमरे में लुच्ची फिल्में सारी रात चलती रहीं थीं। शराबी हुए लड़के-लड़कियां फिल्म में से देख-देख कर उसी तरह तजुर्बे करते रहे थे। मैं तो वह देखने से पहले ही भरा मेला छोड़कर आ गई थी।
पार्टी से वापसी पर किसी लड़की का पिता मुझे अपनी कार में हमारे घर के पास छोड़ गया था। मैं घर से थोड़ा पीछे उतर गई थी। घर के पास पहुंच कर, मैं पिछवाड़े जिस रास्ते से चोरी-चोरी गई थी। उसी रास्ते से, उसी तरह चादर से लटक कर वापिस अपने कमरे में आ गई थी। नीचे उतरना तो काफी आसान था, लेकिन ऊपर चढ़ते समय मैं काफी परेशान हुई थी। रगड़ लगने से मेरी कु हनियां भी छिल गईं थीं। कपड़े भी फट गए थे। बहुत सुंदर गर्म सूट था वह मेरा, जिसका सत्यानाश हो गया था। अभी पिछली ईद पर ही तो अममी ने मुझे सूट सिलवाकर दिया था। ये तो भला हो मेरे मोटे कपड़ों का जिनके कारण मुझे ज्यादा चोटे नहीं लगी थीं तथा न ही जखम हुए थे। धन्य है वे लोग जो 'रॉक-क्लाइबिंग' करते हैं, इतने ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ते हैं। मेरी तो दस बारह फु ट दीवार चढऩे पर ही बस हो गई थी। क मरे में आक र मैंने राजी खुशी वापिस आ जाने क ा शुक्र किया था। जो थोड़ी-बहुत जिस्मानी चोटें लगी थीं, उनकी ज्यादा परवाह नहीं की थी मैंने। रगडें ही तो थीं।
अगले दिन स्कूल से वापिसी पर अममी चूल्हे की तरह तपकर लाल हुई बैठी थी। मैं हैरान थी क्योंकि सुबह स्कूल जाते समय तो मैं अममी को भली चंगी छोड़कर गई थी। फिर बाद में ऐसी कौन सी सुई चुभ गई थी। कमरे में मैं व अममी अके ली थी (मेरे भाई बाहर खेल रहे थे ,अब्बा काम पर थे तथा छोटी बहन टीवी पर सी.बी.बी.सी.(चिल्डर्नस् ब्रिटिश ब्रोडकास्टिंग कॉपोरेशन) का कार्यक्रम 'ब्लू पीटर' देख रही थी। नाजीया नहा रही थी) अममी का मूड इस तरह तब हुआ करता था, जब वह अपनी फैक्टरी वालों से लड़कर आती थी। अममी की फैक्टरी वाले कभी-कभी अममी की तनखवाह में या किये काम के हिसाब-किताब में गड़बड़ कर देते थे। उनके साथ कीगई माथापच्ची के कारण चढ़ा गुस्सा अक्सर अममी हम में से किसी के साथ या अब्बा के साथ लड़कर ही उतारा करती थी। मैंने अममी को मजाक में कहा,''क्या बात आज टैमपरेचर हाई है, काम वालों से लड़ाई हो गई क्या।"
अममी मुझे सीधा ही कहने लगी,''चालाकियां मत कर, आंख जितनी तूँ है, अभी से ये करतूतें? तोड़ती हूं तेरे टांगें। मुझे सब पता लग गया है कि तुझे रात क ो क्यों जल्दी नींद आती है।"
गुस्से तो अममी पहले भी मुझे कई बार हुई थी, लेकिन उसका इतना भनायक रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था, जितना उस दिन था। मेरे रात बाहर रहने का उसको किसी तरह से पता चल चुका था। कैसे? यह मैं नहीं जानती थी। जखमी हुए शरीर की चोटें तो मैंने छिपा ली थीं। शायद मेरे धोने वाले कपड़े उठाते समय अममी ने मेरे फटे कपड़े देख लिए थे। या हो सकता है रात किसी काम से अममी ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया हो तथा तब मेरा भेद खुल गया हो। आधी रात को तहाजुद की नमाज या अंतिम पहर के फेबीआई राकु ना पढऩे के लिए मुसल्ला या तसबी लेने मेरे कमरे में अममी आ सकती थी। मैं एक पल में ही क्या-क्या अंदाजे लगा गई थी।
मैं स्तब्ध थी कि अममी को रात पता होता तो उसने रात को ही शोर मचा कर हो हल्ला करना था, या सुबह हंगामा खड़ा कर देना था तथा मुझे स्कूल जाने से रोक देना था। प्रात: कितनी देर तक मैं उसके पास बैठी नाश्ता करती रही थी। उस समय अममी चुप कैसे रह सकती थी? इससे साफ जाहिर होता है कि अममी को सुबह तक कोई जानकारी नहीं मिली थी। अगर रात को पता नहीं चल सका था, सुबह नहीं जान सकी थी तो फिर क्या दिन में उसे टीवी की खबरों से पता चल सकता था? और तो क ोई साधन नहीं था पता लगाने का या फिर किसी ने चुगली की होगी। मेरी किसी सहेली या किसी लड़के ने फोन करके मेरी अममी को बताया हो सकता है। ऐसे किसकी हिममत थी कि मेरे घर फोन करके मेरी अममी को बताता? साथ ही वहां तो सभी यही समझते थे कि मैं मां-बाप की सहमति से ही गई थी। पार्टी में घरवालों से चोरी जाने को तो सिर्फ मैं ही जानती थी।
हवाई जहाजों में 'डिवीजन लाईट डेटा रिकार्डर' तथा 'कॉकपिट वाइस रिकॉर्डर' नामक दो यंत्र लगे होते हैं। ये मशीनें धातु के एक मज़बूत बॉक्स में बंद होती है, इस कारण इन्हें 'ब्लैक बॉक्स' कहा जाता है। ये डिब्बे तापमान रोधक होते हैं तथा हजार डिग्री सैलसियस से भी ज्यादा गर्मी सहन करने की सामथ्र्य रखते हैं। पानी में कई दिन पड़े रहने पर भी खराब नहीं होते हैं। लाईट डेटा मशीन की जानकारी इक्ठ्ठी करने वाली रील छ: हज़ार फीट लंबी होती है तथा वह पच्चीस घंटों के आंकड़े अंकित करने के योग्य होती है। कॉकपिट में एप रिकार्डर (एक जानकारी की नकल करने वाली मशीन) होता है। इसमें पायलटों के बीच होने वाली बातचीत भरी जाती रहती है । जब हवाई जहाज किसी हादसे के कारण गिर जाता है तो इन डिब्बों से ही दुर्घटना के असल कारणों का पता लगाया जाता है । मैं चकित थी कि दिन में अममी को ऐसा कौन सा ब्लैक-बॉक्स मिल गया था? जिससे उसे मेरी रात की गतिविधियों की जानकारी मिल गई थी।
मैं यही सब सोच रही थी तथा अममी बार-बार मुझ से रात की गैर-हाजरी के संबंध में पूछ रही थी। अममी ने पूछे बिना पल्लू नहीं छोडऩा था। पहले तो मैंने मन में सोचा था कि झूठ बोल कर सारे आरोप का खंडन कर दूं । फिर दिमाग में आया कि लिओ-टॉल्सटॉय ने लिखा है, ''झूठ के रास्ते पर हम चाहे जितनी दूर जा चुके हों, उस से वापिस आ जाना, उस पर चलते रहने से अच्छा होता है ।"
सच के लिए हर वस्तु की बली दी जा सकती है । इसलिए मुझे अपना मुंह खोलना पड़ा था। अगर अममी गुस्से से पूछती तो शायद मैं बिल्कु ल भी नहीं बताती, लेकिन प्यार से पूछने के कारण मैंने सब कु छ सच-सच बता दिया था। मैंने पैरों में गिरकर माफी भी मांगी थी। अममी ने मुझे माफ कर दिया था तथा बाद में मैंने भी अममी से जानना चाहा था कि उन्हें मेरे बाहर जाने के बारे में कैसे जानकारी हुई थी? मेरे लगाए गए अंदाज उस समय गलत साबित हुए जब अममी ने अपने सूचना सूत्र के बारे में बताया था। अममी से सुनकर मेरा दिल करे कि पड़ोसियों के घर को आग लगा कर जला दूं, जिनकी निगोड़ी बूढ़ी ने सुबह-सुबह मुझे कमरे में आते समय चादर से झूलते हुए देख लिया था। हमारे बगीचे की दीवार छोटी है तथा पड़ोसियों की रसोई में से मेरा बैडरूम स्पष्ट दिखाई देता है। कई बार मैंने अपने कमरे में से बुढिय़ा को उनकी रसोई में चाय या कु छ बनाते देखा था। उसके मोटी-मोटे शीशे वाली ऐनकें लगी हुई थीं। उस बुढिय़ा को मैं तो अंधी समझती थी लेकिन वही जासूस शैलेखोमस बन गई थी। इन बूढ़े लोगों को भी चैन नहीं आती, सुबह-सुबह सोने के समय पता नहीं क्यों उठकर टहलते रहते हैं।
अममी ने उस दिन मुझे कहा तो कु छ नहीं था, सिर्फ मुझ से एक वायदा लिया था कि आगे से मैं उस गलती को दोहराऊंगी नहीं। मैं भी मान गई थी कि जिस बात को वे मना करेंगे मैं वह नहीं करुंगी। मैंने अममी को रोते हुए बताया था, ''मैंने इसलिए नहीं पूछा था, क्योंकि मुझे डर था कि आपने पूछने पर मना कर देना था ।"
अममी रुआब से पेश आई थी, ''तेरे दुश्मन नहीं, जो करते, तेरे भले के लिए ही करते। अब छोड़ दिया है। आगे से तेरी क ोई शिकायत नहीं आनी चाहिए।"
''ठीक है, नहीं आएगी अममी जी।"
मैं समझती थी कि मामला वहीं पर ठप्प हो गया था। अममी ने जो डांट-फटकार करनी थी, कर ली। लेकिन मुझे क्या पता था अममी की चालाकी का। उसने रात को घर आने पर अब्बा के कान भरने शुरु कर दिए थे। मैंने अपना जुर्म स्वीकार करके गलती की थी। मुझे मानना नहीं चाहिए था। साफ इंकार कर देना चाहिए था। बहुत तरीकों से अममी की आंख में धूल झोंकी जा सक ती थी। मैं बहस कर सकती थी कि उस बुढिय़ा को ठीक से दिखाई नहीं देता, वह झूठ बोलती थी या वह सठिया गई है। ये सब उसके काल्पनिक खयाल हैं, वगैरा, वगैरा।.....कई दलीलें खड़ी की जा सकती थीं। उस बूढ़ी के पास क्या सबूत था? मरे व मुकर (इन्क ार) गए का क्या एतवार है?
एक बार उस बुढिया ने डाक्टर के पास जाना था तथा उसे अंग्रेजी न आने के कारण उसने मुझसे साथ चलने को कहा था। उस दिन बरसात हो रही थी। टीवी पर आस्ट्रेलिया का धारावाहिक नाटक 'नेबर्ज' (नेबर्ज का एक अदाकार डैन पेरिस जो डरियू क्रिक का रोल करता था, मुझे बहुत सुंदर लगता था। जिस पर पूरी लट्टू हुई मैं उस धारावाहिक की एक भी कड़ी नहीं छोड़ती थी) आ रहा था तथा मैंने जाने से कोरा (साफ) जबाब दे दिया था। इस पर वह मोहतरमा काफी खीझ गई थी तथा मुझ से खुन्नस रखने लगी थी। मैं अममी को इस घटना के बारे में बताकर यकीन दिला सकती थी कि मुझसे बदला लेने के लिए उस बुढिय़ा ने झूठी बात बनाई थी। लेकिन मौके पर मेरे दिमाग ने काम ही नहीं कि या था।
काफी समय से मुझे अममी अब्बू की घुसर-मुसर सूनाई दे रही थी। अममी देर रात तक मशीन चलाने की बजाए जल्दी सोने चली गई थी। जो कि असाधारण व अनोखी बात थी। मुझे दाल में कु छ काला नजर आया था। शक की वजह से मैं उठकर अममी अब्बू के वार्तालाप को सुनने के लिए उनके क मरे के पास चली गई थी। मेरे वहां जाने से पहले जो बातें हुई थीं, उनके बारे में तो मुझे पता नहीं चला, लेकिन अब मैंने पूरे कान धर लिए थे। दरवाजा अच्छी तरह बंद होने कारण स्पष्ट तो सुनाई नहीं देता था। आधी-अधूरी बात सुनाई देती थी। फिर भी मैंने जो सुना वह मेरे लिए संकट का कारण बन गया था। मैंने उनके बैडरूम के दरवाजे से कान लगाकर सारा कु छ अपने कानों से सुना था।
''इस लड़की का चाल-चलन ठीक नहीं लगता।" अममी कह रही थी।
अब्बा चिंतित हो उठे थे,''क्यों क्या हुआ?"
''अभी तो कु छ नहीं हुआ। समझदार व्यक्ति वही है जो आंधी आने पर अंदाजा लगा ले कि अब बरसात भी आएगी तथा वह भीगने वाला सामान पहले ही संभाल ले।"
अब्बू अममी की रहस्यमयी कहानी सुनकर तैश में आ गए, ''तुम बताती क्यों नहीं? जरुर कोई बात हुई होगी।"
''नहीं आप ऐसे ही न घबराएं जो मैं आपको बता रही हूं उस से ज्यादा कु छ नहीं हुआ। अपनी पिछली रोड़ पर रहते सिंह की लड़की किसी काले के साथ भाग गई है।"
''अल्लाह,....अल्लाह।....अल्ल....अमान। क्या गुजरती होगी बेचारों पर? मौला ऐसा दिन न किसी को दिखाए। अपने किसी बच्चे ने अगर ऐसी कोई हरकत की तो मैं तो उसका गला रेत दूंगा। मुझ से नहीं बर्दाश्त होगी ऐसी ऊंची-नीची बात। डांटकर रखा कर, यह भी इज्जत लेकर अपने घर चली जाए। दूसरे बच्चे भी ब्याह दूं तथा मैं अपनी जिममेवारियों से फारिग होकर हज करने चला जाऊं। बस यही आरजू है मेरी। मैं तो कहता हूं बंद करो शाजीया का बाहर जाना।" अब्बा काफी गर्म हो गए थे।
अममी शांति की देवी आईरीन की तरह बोली थी,''नहीं खान साहब हरगिज ऐसा न करना। बराबर का बेटा-बेटी को धमका कर नहीं, पुचकारक र क ाम लेना चाहिए। पंचतंत्र में लिखा है, ''लालयेत पच बरसानी ताडय़ेत, प्राप्ते तू शोडसे बरसे पुन्न मितखदाचरेत।" अर्थात बच्चे को पांच साल तक प्यार करो, दस साल तक दंड दो, सोलह साल तक शिक्षा दिलवाओ, तथा फिर सारी उम्र मित्रता भरा व्यवहार करो। इस तरह करने पर औलाद हमेशा मां-बाप की आज्ञा का पालन करती है। पहले आप ठंडे हो जाएं। गुस्सा जुबान से पहले हमारे दिमाग पर हल्ला बोलता है तथा सीधा व्यक्ति की समझ को खत्म कर देता है। बुजुर्ग कहते हैं कि जैसी हवा चले, वैसा प्रबंध कर लिया जाए। लड़की जवान है। अगर मेरी मानो.... तो क्यों न हम इसके हाथ पीले कर दें?
''तूने तो बेगम मेरे दिल की बात कर दी। अपनी शाजीया के हमउम्र कई काबिल लड़के मेरी नजर में हैं। हैं भी सभी अपनी रिश्तेदारियों में से ही। नाजि़या के साथ ही इसका भार भी सिर से उतर जाए तो, इसकी तो कोई बराबरी ही नहीं।"
देर रात तक मेरे घरवाले विचार-विमर्श तथा सलाह-मशविरा करते रहे थे। अममी से पहले इजाजत न मांगकर मैंने अच्छा ही किया था। नहीं तो पक्का ही था कि नमाज़ बशाने गई के मेरे रोज़े गले पड़ जाने थे। संभव था कि मैं रात की इजाजत मांगने गई, दिन में बाहर निकलने पर भी पाबंदी लगवा बैठती। जो थोड़ा बहुत सामान (जनाना वस्तुएं) खरीदने के बहाने कभी कभार बाहर चली जाती थी। खासकर उस रात तो बिल्कु ल नहीं जा सकती थी। अममी के ध्यान में आ जाना था तथा उसने पूरी निगरानी रखनी थी। कोई न कोई बहाना बनाकर मेरा दरवाजा खटखटाना था। बेटी कितनी भी बड़ी बदचलन क्यों न हो, मां उसके हर तरह से पर्दे ढंककर रखती है। बुर्के की तरह छिपा लेती है।
मेरी एक सहेली की बड़ी बहन थी। उसके माता-पिता तो काम पर चले जाते थे। पीछे से वह अपने घर में ही अपने प्रेमी के साथ रंग-रलियां मनाया करती थी। एक दिन कहीं उसकी मां को छुट्टी थी, लेकिन पहले वाले काम के समय पर वह शॉपिंग करने चली गई। लड़की को इस बात का पता नहीं था। उसने समझा मां काम पर गई है। लड़की ने अपने आशिक को फोन करके बुला लिया। दोनों प्रेमी सोने वाले कमरे में पलंग पर पड़े लाड़ प्यार कर रहे थे कि ऊपर से मां आ धमकी। वे दोनों बेसुध व नंगे पड़े थे। लड़की ने नीचे बिछाई चादर ओढ़कर अपने आप को ढंक लिया तथा उसका मित्र उसी तरह लड़की की मां के सामने टांगे सिकोड़ कर खड़ा रहा। लड़की की मां ने उतारकर अपनी चुनरी दी। भई, ले इसकी धोती बांधकर अपना साजो-सामान ढंक ले। यह कितनी बड़ी बात थी, फिर भी उस लड़की की मां ने किसी के पास हवा भी नहीं निकलने दी थी। बाद में उस लड़की ने ही अपनी छोटी बहन को बताया था, जिससे मुझे पता लगा था। एक मेरी मां जिसे छोटी सी बात भी हजम नहीं हो सकी थी तथा उसने झट से अब्बा के पास जाकर शिकायत कर दी थी।
मेरा छोटा भाई सलीम एक बार किसी दुकान से चोरी करते पकड़ा गया था। नाबालिग व बेसमझ होने के कारण पुलिस ने उसे कहा तो कु छ नहीं था। लेकिन उसे छुड़ाने के लिए अममी को पुलिस स्टेशन जाना पड़ा था। अममी ने उसकी इस करतूत की तो अब्बा को भिनक भी नहीं लगने दी थी तथा मेरी छोटी सी बात (तब मुझे यह बात कोई महत्त्वपूर्ण नहीं लगी थी) का ही बतंगड़ बनाकर विस्तार से चर्चा कर दी थी। उस दिन से मेरे निकाह की तैयारियां शुरु हो गई थीं। परीक्षाओं के फौरन बाद पाकिस्तान ले जाकर मेरी मंगनी का कार्यक्रम बना दिया गया था।
उसी दिन के बाद मुझे ऐसा महसूस होता रहता था कि जैसे पाकिस्तान पहुंचते ही मेरे सामने लड़कों की लाईन खड़ी कर दी जाएगी। जैसे कोई पोशाकों की नुमाईश होती है तथा कहा जाएगा,''जो पसंद है उठाकर पहन ले।"
मैं रैडीमेड नहीं अपने नाप का बना सूट पहनना चाहती थी। ऐसा सूट जो मेरे लिए बना हो। बना-बनाया कपड़ा मेरे कभी भी फिट नहीं आता। अगर एक साईज तंग होता तो उससे अगला ज्यादा खुला निकल जाता। अब तक भी कपड़ों के स्टोरो में मुझे अपने नाप के कपड़े ढंूढने में कई-कई घंटे लग जाते हैं तथा फिर भी सही आकार का नहीं मिलता। बड़ा या छोटा लाना पड़ता है तथा उधेड़कर खुद ठीक करना पड़ता है। इकबाल ही था जिसे देखकर मुझे लगता कि उसे भगवान ने मेरी पिछले जन्म की साई (पेशगी) पर बनाया हो। इकबाल के बिना किसी और गभरु को जीवन-साथी के रूप में स्वीकार करने का खयाल भी मेरे दिल से ऐसे फिसल कर निकल जाता था जैसे ढ़ीले इलास्टिक वाला पायजामा कमर से फि सल जाता है । मेरा विचार था कि मुझे जीवन का हमसफर इकबाल से बढिय़ा और कोर्र्र्र्र्र्र्र्ई नहीं मिल सकता । यह बात मैंने बात-बात में ही सूचक-मात्र अममी को भी सुना दी थी,''मैं खुद अपनी मर्जी के लड़के का चुनाव करुंगी। मैंने नहीं अपने किसी कज़न-कु जन (ष्शह्वह्यठ्ठ) से शादी करनी।"
मेरा खयाल था कि यह सुनकर अममी कहेगी कि, ''अच्छा तेरी नज़र में कोई और लड़का है तो बता? पर नहीं, अममी तो बल्कि खफा हो गई थी।"
''क्यों कजनों को क्या कोढ़ चला है?"
मैं अममी को गर्म देखकर डर गई थी तथा दलील दी, ''डाक्टर कहते हैं कि नजदीकी रिश्तेदारियों में शादी करवाने वाले मां-बाप के ब्लड-ग्रुप मिलते-जुलते होते हैं, जिस से उनके यहां रोगी संतान पैदा होती है।"
''ठीक है, हम जैनेटिक-रिस्क नहीं लेंगे। यह जरुरी नहीं है कि खानदान में ही विवाह करवाना है। और लड़के थोड़े हैं?" अममी ने लचकदार सी बात की थी।
''अगर लड़का मुझे पसंद ही न हुआ, तो आप कैसे उसके साथ मेरी शादी कर सकते हैं?"
''तुझे पहले दिखाएंगे। तेरी बातचीत करवाएंगे। घड़े की तरह टुनकाकर वर ढंूढेंगे अपनी रानी बेटी के लिए। अगर तुझे पसंद होगा तो ही बात आगे बढ़ेगी।"
''कल्पना करो अगर मैंने आपका दिखाया लड़का नापसंद कर दिया तो?" मैं अममी को भगाना चाहती थी। ''फिर तुझे और लड़का दिखाएंगे"
''अगर वह भी मुझे न जंचा तो?"
''एक के बाद एक, जब तक मेरी लाडो हां नहीं करती। लड़कों का घाटा नहीं है। थियोरीटिकली, पूरी दुनिया में एक औरत के हिस्से औसतन पांच मर्द आते हैं। तुझे लड़का पसंद करवा कर ही दम लेंगे।
लेकिन्न्न्न् मैंने अपने दिमाग से निकालकर एक और दिव्य अस्त्र चलाया था,''लेकिन पाकिस्तान के लड़कों को अंग्रेजी नहीं आती?"
''यहां आकर दो चार साल में सीख जाएगा।"
''वहां के लड़के सुंदर नहीं होते।" मैं कोई न कोई एतराज खड़ा करके अपनी बात मनवाना चाहती थी।
''सुंदर क्यों नहीं होते? अपनी नाजीया के मंगेतर में क्या कमी है? तुमने अभी देखा ही क्या है? लड़की कान खोलकर सुनले, तेरा ब्याह वहां वतन में ही होगा। हां, जबर्दस्ती नहीं करेंगे। तेरी तसल्ली करवा कर तेरी रजामंदी से करेंगे। तँू दुनिया से अलग नहीं है। नाजीया तेरी ही बहन है। अगर उसे पाकिस्तान का लड़का पसंद आ सकता है तो तुझे क्यों नहीं?" अममी ने आखरी बात सुना दी थी।
मुझे विवाह के बंधन में बांधने का अममी का दृढ़ निश्चय देखकर मैं खामोश हो गई थी। मैं भांप गई थी कि अममी से फिजूल की बहस करने का कोई लाभ नहीं होने वाला। अममी को समझाना तो भैंस के आगे बीन बजाने के समान था। दीवारों में टक्क र मारकर अपना ही सिर फोडऩे वाली बात थी। बाबा नानक ने भी कहा है, ''जिथै बोलणि हारियै तिथै चंगी चुप" इसलिए मैंने जुबान रोक कर दिमाग चलाना शुरु कर दिया था। मैं उस शादी रुपी जाल को काटने की तरकीब सोचने लगी थी, जो मुझे फंसाने व कैद करने के लिए बुना जा रहा था। मैं शादी का जोड़ा तथा बंधनों का बुर्का इतनी जल्दी नहीं पहनना चाहती थी। मेरे होंठ भींचने के साथ ही अममी ने भी चुप्पी धारण कर ली थी। चुपचाप सामने बैठी अममी की नज़र भी मुझे तीरों की तरह चुभती महसूस हुई थी। उस नज़र की तीखी नोक की चुभन को सहन न कर सकने के कारण मैं उठ कर अपने कमरे में चली गई थी। मैं पछतावा कर रही थी, कि इजबल की पार्टी में क्यों गई। उस पार्टी में मैं तो खुशियों की तलाश में गई थी। लेकिन वहां जाने से तो मेरी जिंदगी के रंग में भंग पड़ गई थी।
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