Monday 4 May 2015

19 कांड -हमराही


खाना बनाने का सामान तो वैसे मैं स्टोरों या सुपरस्टोरों से ही लेती थी, क्योंकि वहां सारी चीजें छोटी दुकानों से सस्ती होती हैं। बड़े स्टोरों वाले हर चीज थोक के भाव पर खरीद लेते हैं, इसलिए उन्हें चीजें सस्ती मिलती हैं। छोटी दुकानों वाले थोड़ी मात्रा में खरीद करते हैं, इसलिये उन्हें चीजें महंगी मिलती हैं तथा वे मुनाफा निकालने के लिये आगे ग्राहक को भी महंगे भाव बेचते हैं। बहरहाल थोड़ी-बहुत सब्जी बगैरा या और मिर्च-मसाला मैं नजदीक से ही ले लेती थी। हमारी गली के मोड़ पर एक छोटी सी दुकान थी। उस कार्नर-शाप का मालिक अनवर भी पाकिस्तानी ही था। सूरज देवता अपोलो जैसा सुन्दर है वह। कभी-कभार सामान लेने गई मैं अनवर के साथ अपने देश का होने के कारण दो-चार मिनट दुख-सुख कर लेती थी। मेरी तरह दुखी था बेचारा। वह भी जवानी में किसी गोरी को इश्क करता था। वह धोखा दे गई थी उसे। गहने, कपड़े व धन दौलत लेकर किसी और के साथ भाग गई थी। बस दिल टूट गया था उसका, फिर उसने शादी नहीं की थी। मेरे साथ वह पूरा खुल गया था।

जब दो इन्सान एक जैसे हालात में से गुजरे हों तो उनमें अपने आप ही संबंध से बन जाते हैं। सोचने का ढंग चाहे एक न भी हो, फिर भी अपने आप ही विचार आपस में मिल जाते हैं। बातचीत करते समय पुराने जन्म  जो अभी तक हरे हैं, जब कुरेद लिये जाते तो आंखें भरकर अनवर कहता था, ''ये फिरंगी किसी के मित्र नहीं होते, बिल्कुल सांपों की तरह हैं, चाहे हाथों से दूध पिलाओ, लेकिन काटने से संकोच नहीं करते।"

''फरेब व मक्कारी तो इन अंग्रेजों के खून में ही है भैया", मैं भी उसकी हां में हां मिलाती।

अक्सर हम दोनों डिप्रैस्ड हुये एक दूसरे को हौसला दे दिया करते थे। अनवर ने तो कई बार सुझाव दिया था कि मैं उसके साथ निकाह कर लूं। इस तरह मुझे जालिम (मैक्स) से छुटकारा मिल जाता तथा अनवर का घर बस जाता। पिछली उम्र में तो साथी का साथ ही जरूरी होता है, शारीरिक भूख तो कब की मर चुकी होती है।

बात तो अनवर की ठीक थी। दो दुखी इन्सान चाहें तो इकट्ठे होकर सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं। लेकिन क्या करती? मां-बाप छोड़कर इकबाल के पीछे गई थी। इकबाल को भुलाकर मैक्स के साथ रहने लगी थी। अगर मैक्स को छोड़कर अनवर के साथ चली जाती, कल को अनवर का रवैया बदल जाता तो फिर किसके पास जाती? मैं तो फिर औरत न हुई, वीडियो फिल्मों की दुकान पर पड़ी कैसेट ही हो गई। जिसे आये दिन कोई न कोई खुशी-खुशी किराये पर अपने घर ले जाता तथा फिर फिल्म देखकर वापिस कर जाता। वह कैसेट तब तक किराये पर जाती रहती है, जब तक साफ चलती है, जैसे ही उसका प्रिंट खराब हुआ, उसे कूड़े के डिब्बे में डाल दिया जाता है।

इतना ही बहुत था कि अनवर मेरे साथ दिल की बात कर लेता तथा मैं उसके पास अपना पेट हल्का कर लेती थी। इससे ज्यादा हमारे बीच और कुछ भी सांझ नहीं थी। एक बार नहीं, अनवर ने तो कई बार मुझसे निकाह की पेशकश की थी तथा बाकी की सारी उम्र फूलों की तरह रखने का विश्वास दिलाया था। मैं जानती थी कि अनवर को मेरे शरीर से कोई सरोकार नहीं था। वह कामेच्छा के पक्ष से अतृप्त नहीं था, क्योंकि उसकी दुकान पर एक बहुत ही सुन्दर व नौजवान लड़की काम किया करती थी। वह अनवर पर या कह लो उसकी दौलत पर मरी पड़ी थी। उस लड़की ने अनवर को फंसाने के लिये अपनी हर अदा का प्रयोग किया, लेकिन अनवर ने उसे बिल्कुल मुँह नहीं लगाया था। मुझे उस लड़की ने खुद बताया था। उस लड़की के सामने मैं तो कुछ भी नहीं थी, मेरा तो सारा रूप फीका पड़ गया था, चेहरे पर झुॢरयां पड़ गई थीं। चेहरे पर पहले वाली चमक-दमक नहीं रही थी, चिन्ताओं ने जिंदगी खाक कर दी थी।

जब मैं मैक्स को गले से उतार सकती थी, मैंने तो उसे तब नहीं त्यागा था, बाद में तो छोडऩा ही क्या था? अब तो उसने मेरे रूप का रस चूस लिया था। मेरे पास तो तिनका भी नहीं बचा था। मैं दिवुश्का (नौजवान सुन्दरी) से बबुश्का (बदसूरत बूढ़ी) बनी पड़ी थी। जवानी में घर से मैक्स को धक्के मारकर घर से निकाल देती तो भले ही निकाल देती। इस समय तो यह काम करना बहुत मुश्किल था तथा वह भी उम्र के इस पड़ाव पर जाकर। साथ ही काफी समय हो गया था मैक्स के साथ रहते। अगर दो घड़ी कोई पालतू जानवर भी रख लें तो उसके साथ भी लगाव हो जाता है। मैक्स तो फिर भी इन्सान था। मैंने तो एक बार घर में कुत्ता रखा था। छ: महीने बाद वह बिमार होकर मर गया। उसके शोक में मेरे अन्दर अन्न का एक कौर भी नहीं गया था। कई दिन वैराग्य में मैं रोती रही थी। भैंस भी एक जगह चार दिन बंधी रहे तो वह भी उस जगह से प्यार करने लग जाती है। सांकल छोडऩे पर भी भागकर उसी जगह जाकर रूकती है। मैक्स के साथ तो मैं पिछले बारह साल से रह रही थी। अपने जीवन का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा गुजारा था मैंने उस आदमी के साथ। इसलिये मैक्स से नाता तोडऩा मेरे लिये काफी मुश्किल था बल्कि नामुमकिन था। हंस सूखे सरोवर छोड़कर पानी वाले सरोवर के पास चले जाते हैं, लेकिन औरत ऐसा नहीं करती। जिसके पल्लू से एक बार बंध जाये, उसके साथ उम्र गंवा देती है, जन्म-जन्मांतर तक पीछा नहीं छोड़ती।

मेरी जानकार एक लड़की थी, वह 'फूड सांपलर' की नौकरी करती थी। उसका काम सिर्फ भोजन पदार्थों को चखकर उनका स्वाद बताना ही था। सारा दिन कड़वे, फीके, स्वादहीन भोजन चखने के बाद जब वह अपने पसंदीदा तथा स्वादिष्ट खाने तक पहुंचती तो उसका पेट पूरी तरह भर चुका होता था। उसके पेट में एक चमच खाने की भी जगह नहीं होती थी। वही हाल मेरा था। योग्य मर्द की उम्मीद में मर्दों के नमूने परखती मैं थक चुकी थी। किसी और को आजमाने की ताकत नहीं रही थी मुझमें। जैसे मैकेनिक मैले-कुचैले होने के बावजूद भी ओवरआल पहने रखते हैं, उन्हें फेंक नहीं सकते, क्योंकि मैकेनिक को पता होता है कि ओवरआल नहीं पहनने पर तेल या ग्रीस से उसका शरीर या पहने हुये कपड़े गंदे हो जायेंगे। मैकेनिकों के ओवरआल की तरह ही मैं मैक्स के साथ बंधी हुई थी। उससे पीछा नहीं छुड़ा सकती थी। अगर उससे अलग हो जाती तो दूसरे बुरे तत्व मुझ पर गंदी नजर रखने लग जाते। मुझे खराब व अपवित्र करते। मर्द औरत का वस्त्र होता है जो उसे सुरक्षा प्रदान करता है।
अनवर के पास इस मामले का जिक्र शुरू होते ही मैं बोल पड़ती, ''अब तो इस पापी के बराबर ही कब्र बनेगी मेरी। जैसे इसके जूते खाते आधी से ज्यादा उम्र निकल गई, वैसे ही बाकी भी निकल जायेगी। अब तो नमाज-ए-जनाजा यही पढ़ायेगा। इतना संतोष रखा है अब तक। सारा किया कराया कुंएं में क्यों डाल दूँ? ये हरामी तो पहले ही बहाने तलाशता रहता है। ये तो सच्चा साबित हो जायेगा। कहेगा पहले चोरी से यारों के पास जाती थी, अब तो सरेआम करने लगी है। एशीयन औरतों को तो ये पहले ही गश्तीयां (वेश्याएं) कहता है। मैं क्यों अंगुली उठाने का मौका दूँ?"

अनवर कोई न कोई दलील देता, मैं उसकी एक नहीं सुनती थी। अनवर का प्रस्ताव स्वीकार करने को मेरा ही दिल नहीं मानता था। मैं ही उसे हाथ बांध आती थी, ''नहीं भैया, गोद वाले को छोड़कर मुझसे पेट वाले का पालन नहीं हो पायेगा। तुझे तो पता ही है कि अपने धर्म में खतना व एक किताब ''मकसूदुल मो मेनीन" (स्वर्ग की कुंजी) रखना फर्ज है। यह पुस्तक माताएं आम तौर पर अपनी बेटी को दहेज में देती है। नहीं तो मुसलमान मर्द सुहागरात को अपनी पत्नि ∙ो यह तोहफे के तौर पर भेंट करते हैं। 450 पन्नों की इस पवित्र किताब के पन्ना नंबर 343 से 356 तक इस्लामी औरतों के लिये 35 नसीहतें संकलित हैं। उनमें से बाहरवीं नसीहत में लिखा है कि अपने मर्द के गुनाह व कमजोरीयों को छिपाना तथा उसके सुख में सुखी व दुख में दुखी रहना। इसके अलावा 19वीं नसीहत में दर्ज है कि पति से मार खाकर भी विनम्रता धारण करे रखना तथा उसका साथ न छोडऩा।

अनवर मेरी अमी के पास यह 'मकसूदुल मो मेनीन' होती थी तथा उसने मुझे यह बचपन में ही पहाड़ों की तरह रटा दी थी। अब तुम खुद ही बताओ मैं उन शिक्षाओं को कैसे भूल सकती हूँ? चाणक्य कहते हैं, ''चंदन कटने पर अपनी सुगन्ध, हाथी बूढ़ा होने पर मिट्टी में लेटना, गन्ना मशीन में रस निकालने के बाद अपनी मिठास व खानदानी व्यक्ति दुख व सुख में भी अपने गुण नहीं छोड़ता।" 

मैं भी अब उम्र भर वफादार रहूंगी मैक्स के साथ।

अनवर सुनकर चुप कर जाता था और वह कहता भी क्या? अनोखे हमराही थे हम। चाहे मंजिल एक थी, रास्ता एक था लेकिन फिर भी हम हाथों में हाथ डालकर नहीं चल सकते थे।

मेरी हालत पिंजरे में फंसे उस चूहे जैसी थी जो रोटी खाने के लालच में आकर अपनी पूंछ कटा बैठता है तथा सिर्फ पिंजरे में दौडऩे लायक ही रह जाता है। उसके लिये छूटने का कोई भी रास्ता नहीं होता। हर तरफ 'नो वे आऊट' ही होता है। भूख से मरने पर ही उस चूहे को पिंजरे से बाहर निकालकर फेंका जाता है। मैं जानती थी एक दिन मेरा भी यह हाल होगा। चूहे के साथ तो शायद कम ही होती है। मेरी तो इससे भी बदतर, 'न जाये रफतन, न पाये मादां' वाली हालत थी। न तो निकलने के लिये कोई रास्ता था तथा न ही पैर रखने के लिये कोई जगह थी। दरअसल मैक्स के साथ रहकर मैं अपने आपको सजा दे रही थी। सुना था कि पश्चाताप करने से पाप का प्रकोप कम हो जाता है। मुझे अपने पापों का प्रायश्चित करने का यही ढंग मिला हुआ था। अपने आपको मानसिक तौर पर टार्चर करने का बोझ बन चुकी यह जिंदगी जीकर जब मैं खुद ही अपने आप पर जुल्म ढहाती थी तो उसमें से मुझे अपने पापों का प्रायश्चित करने का यही ढंग मिला हुआ था, अपने आपको मानसिक तौर पर टार्चर करने का। बोझ बन चुकी  यह जिंदगी जी कर जब मैं खुद ही अपने आप पर जुल्म ढहाती थी तो उसमें से मुझे अजीब सा सुकून हासिल होता था। पल-पल मरने जैसी इस जिन्दगी में से भी स्वाद सा आने लग गया था मुझे।

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