Monday 4 May 2015

कांड 4 -मर्ज-ए-इश्क


Cover Model: Madhuri Gautam Photography by Vicku Singh Gaurav Sharma & Rishu Kaushik Makeup by Gagz Brar


मैं हाई स्कूल के आखिरी साल में थीं उसके बाद मेरी स्कूल की पढ़ाई खत्म हो जानी थी। मेरा याल है, अक्तूबर का महीना था वह। उस साल गर्मी बहुत पड़ी थी तथा सर्दी काफी लेट थी। शनिवार व इतवार पूरा दिन-रात बारिश होती रही थी। हवा में नमी आने के कारण ठंड हो गई थी। सोमवार को स्कूल पहुंचने पर सब (छात्रों व अध्यापकों) को स्कूल की सारी सेंट्रल हीटिंग खराब होने की खबर मिली थी। गर्मीयों का पूरा सीजन मुकमल तौर से हीटर व रेडीएटर बंद रहने के कारण उनमें कोई खराबी आ गई थी, जिसकी रिपेयर पर पांच छ: घंटे लग सकते थे। सर्दी में बच्चों को स्कूल के ठंडे कमरों में बैठने को कहना उन्हें सजा देने के समान था। ऐसी स्थिति में पढ़ाई तो क्या होनी थी, उल्टा उनके बिमार होने की संभावना थी। इसको ध्यान में रखते हुऐ हमारे प्रिंसीपल ने हमें उस दिन स्कूल में छुट्टी करदी थी। वैसे भी उन दिनों में अभी कोई खास पढ़ाई नहीं होने लगी थी। क्योंकि सितंबर में ही तो नई क्लासें शुरू हुई थी। हम सभी छात्र-छात्राएं घर पर खाली बैठने की बजाए वर्दीयां बदलकर सीधे सिनेमाघर में फिल्म देखने चले गये।


वर्दी बदलने की जरूरत इसलिये पड़ी, क्योंकि वर्दी काम की सूचक होती है। जैसे फौजीयों की हरी वर्दी देखकर ही हम समझ जाते हैं कि वह फौजी है। आपको कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं पड़ती। वर्दी ही आपको ऐसी जानकारी मुहैया करवा देती है। काले कोट से वकीलों की, सफेद कपड़ों से डाक्टरों व नर्सों की, भगवां कपड़ों से साधु-संतों की तथा पुलिस की वर्दी से पुलिस की पहचान हो जाती है। इसी तरह स्कूल की पढ़ाई जरूरी है। स्कूल के समय में अगर पुलिस वाले स्कूली बच्चों को कहीं देखलें तो वे पकड़ कर उनसे सिर्फ पूछ-ताछ ही नहीं करते बल्कि अपनी कार में बैठाकर स्कूल या घर मां-बाप के पास छोड़कर आते हैं।

उससे कुछ समय पहले हमारे स्कूल का एक लड़का कई-कई दिन स्कूल में आता ही नहीं था। वह घर से स्कूल की तरफ आ जाता व पार्कों-बगैरा में बैठकर नशे-पत्ते करता रहता। छुट्टी के समय घर चला जाता। अध्यापक ने उसकी मां को चिठ्ठी-बगैरा लिखी, लेकिन मां ने भी कु छ गौर नहीं किया। अंत में स्कूल की कमेटी ने मामला आगे भेज दिया। मैजिस्ट्रेट ने उस लड़के की मां को अदालत में बुलाकर हज़ार पौंड जुर्माना किया तथा साथ ही धमकी दी कि अगर उसका बेटा अब भी स्कूल न जाने लगा तो आगे से मां को जेल जाना पड़ेगा।

इस लिए हम में से कोई भी इस तरह के पुलिस के झंझटों में नहीं पडऩा चाहता था। इसी कारण स्कूली वर्दी उतारकर सिंपल कपड़े पहनने जरुरी थे। मुझे वर्दी बदलने की जरुरत नहीं पड़ी थी क्योंकि मैं भी आम मुसलमान लड़कियों की तरह सलवार-कमीज पहनकर ही स्कूल जाती थी। हमारे स्कूल की वर्दी में सफेद ब्लाऊज तथा काली स्कर्ट थी। मेरी सफेद कमीज व काली सलवार देखने वालों को स्कूल में तो वर्दी लगती थी, तथा स्कूल से बाहर साधारण पोशाक लगती थी। सूट के ऊपर से कैजुअल सी जैकिट (जो मैंने सहेली से उधार मांगी थी) पहनने से ही मेरा काम चल गया था। साथ ही अगर मैं एक बार घर चली जाती तो मुझे सिनेमा देखने की इज़ाज़त तो बिल्कु ल ही नहीं मिलनी थी। अब्बा ने कहना था कि अगर स्कूल बंद है तो किताब उठा तथा घर बैठकर पढ़ाई कर। मैं घर जाकर फंस जाने का खतरा मोल लेने के डर से भी घर नहीं गई थी। मुझे कपड़ों ने बचा लिया था। अगर कहीं अंग्रेज लड़कियों वाली वर्दी पहनी होती तो मुझे अवश्य ही घर जाना पड़ता तथा फिर तो फिल्म देख ही नहीं सकती थी। स्कूल से निकल कर बाहर के बाहर ही मैं सहेलियों के साथ सिनेमा घर पहुंच गई थी।

बर्मिघम वाले ओडीयन सिनेमा में एक साथ ही चार-चार, पांच-पांच फिल्में प्रदर्शित होतीं थीं। इस कारण काफी भीड़ थी। हम में से ज्यादातर बच्चों को बच्चों वाली फिल्म 'स्टार वाजऱज़'  देखनी पड़ी थी। लेकिन मैं व मेरे कुछ और साथी जो देखने में बालिग लगते थे, हमने  'आईज़ वाईड शट'  की टिकटें ले ली थीं। उस समय इस विवादग्रस्त फिल्म की काफी चर्चा थी। इसके भी अनेक कारण थे। एक तो यह था कि फिल्म निर्माता क्यूबरिक की ओर से उस समय तक बनी तमाम फिल्मों के मुकाबले सबसे लंबा कामुक दृश्य रखने का दावा किया गया था, तथा दूसरा ये था कि जब फिल्म की नायिका निकोल किडमैन अपने साथी कलाकार टॉम-क्रूज़ के साथ पर्दे पर संभोग कर रही होती है तो पृष्ठभूमि में संगीत की जगह हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथ श्री भागवत गीता के श्लोक चल रहे होते हैं। हिंदु समाज ने इस पर सत एतराज किया। इस से फिल्म को मुफत में मशहूरी मिल गई। हर कोई उस ''सैक्स सीक्वैंस' को देखने के लिए फिल्म जरुर देखता। मशहूरी की तीसरी वजह यह थी कि कई लोगों का अंदाजा यह था कि फिल्म में जो सैक्स सीन हैं व महज दिखावा नहीं हैं बल्कि असली है क्योंकि टॉम-क्रूज़ व निकोल-किडमैन असली जिंदगी में भी पति-पत्नी थे। उन्हें सचमुच में आलिंगनबद्ध होने में क्या ऐतराज था। इस तरह पर्दे पर प्यार करने के तो उन्हें लाखों डालर भी मिलते थे। इस से पहले भी यह जोड़ी पर्दे पर अनेक फिल्मों में न्यूड होकर सैक्स दृश्य दे चुकी थी। ये गोरे लोग तो कोई शर्म-हया भी नहीं मानते। कहते हैं कि यह तो हमारा पेशा है। कहानी की मांग पर तथा चरित्र के साथ इंसाफ करने के लिए ऐसे दृश्य देने पड़ते हैं। भगवान ने सुंदर शरीर दिया है तो उसका प्रदर्शन करने में हर्ज ही क्या है? कपड़ों में ही हर समय हुश्न को कैद करके क्यों रखें? जब प्रैस-कॉन्फ्रैंसों में इन कलाकारों को अश्लील दृश्यों के बारे में सवाल पूछे जाते हैं तो ये लोग इसी तरह की दलीलें देते हैं। डैड-काम (Dead Calmn) फिल्म में निकोल का वह निक्क र फाड़ कर सैक्स करने वाला सनसनीखेज सीन देखकर मुझे मज़ा आया था। कैसे उस फिल्म का खलनायक एलिस बोल्डविन अपने ऊपर पड़ी निकोल के नितंबो पर से निक्क र को  एक ही झटके से खींचकर फाड़कर दूर फैंक देता है। हाय... क्या गज़ब का सीन था वह। मेरा भी  दिल करता था कि कोई मेरे साथ ऐसे ही करे।
चलो छोडो, अब हम सिनेमा के अंदर चले गए। इत्तफाक से इकबाल और उसके साथी भी मेरे साथ ही थे। रजनी मेरे पास बैठ गई तथा इकबाल उसके साथ वाली सीट पर दूसरी तरफ बैठ गया। फिल्म शुरु में तो अच्छी थी, लेकिन मध्यांतर के बाद बोरिंग व बकवास जैसी हो गई थी। मैं व रजनी पॉपकार्न (मक्के क ी भुनी खील) व आईसक्रीम लेने चली गईं थीं। ठंड में ठंडी आईसक्रीम खाने का अलग ही मजा होता है। वैसे भी जैसे कहावत है कि 'लोहे को लोहा काटता है' , उसी तरह ठंड को ठंडी चीज़ ही मारती है। चाय या कॉफी आदि किसी गर्म वस्तु का सेवन तो सर्दी बढ़ाता ही है। पॉपकार्न खरीदकर रजनी टॉयलेट चली गई तथा मैं आईसक्रीम लेकर वापिस सिनेमा हाल में आ गई। मेरी (अच्छी) किस्मत को उसी समय पर्दे पर गर्म सीन चल रहा था। हाल में घुप्प अंधेरा था। अंधेरे का फायदा उठाने के लिए मुझे एक शरारत सूझ गई। मैंने रजनी वाली सीट पर बैठकर इकबाल के गले में बांहें डाल ली। मेरा इरादा था कि जब वह मुझे रजनी समझकर मेरे साथ छेड़छाड़ करेगा तो मैं उसके पीछे पड़ जाऊंगी। (निसंदेह उस से पहले थोड़ा समय आनंद लेने की भी मेरी योजना थी) इस तरह जब रजनी आएगी तो मैं उसे इकबाल से यह कहकर लड़वा दूंगी कि इकबाल मेरे साथ उसकी गैर-मौजूदगी में छेड़-छाड़ कर रहा था। इस पर रजनी न सिर्फ इकबाल की डांट-डपट करेगी बल्कि उसके साथ रूठ भी जाएगी। फिर दो-चार दिन इकबाल को वह बुलाएगी नहीं। इकबाल तडफ़ेगा तो मैं रजनी को असलीयत बताकर उनकी सुलह करवा दूंगी। बस यही मेरी इतनी ही स्कीम थी।

लेकिन जो मैंने सोचा था, उसके विपरीत हो कु छ और ही गया। इकबाल ने बैठे-बैठे ही कु र्सी पर टेढ़ा होकर मुझे पकड़ कर अपने सीने से कसकर लगा लिया व सहजता से चूमना आरंभ कर दिया। उसके स्र्पश ने मुझ पर बंगाल के काले जादू जैसा असर कर दिया था। इस कारण इकबाल को डांटना, वर्जित करना या फटकारना तो एक तरफ रहा, बल्कि मैं भी उसे चूमने लग पड़ी थी। जिस तरह कोई कमजोर सैनिक ताकतवर योद्धा के सामने अपने हथियार फें क देता है। इसी तरह मैंने भी इकबाल के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। जैसे छोटे बच्चे के मुंह में चूंघने वाली शहद भरी निप्पल होती है, इसी तरह मेरे होंठ इकबाल के लवों में अड़े हुए थे। मैं आम की गुठली की तरह उसके होंठ चूस रही थी। कभी मेरे मुंह में आई हुई उसकी जीभ, मेरी जीभ से टकराती तथा मिठास घोलती। कभी मेरी जीभ उसके कंठ के अंदर कब्बड्डी डालने जाती। उस समय ऐसा लग रहा था जैसे हम दोनों में चुंबन प्रतियोगिता का चैपयन बनने के लिए मुकाबला चल रहा हो। काफी समय तक यही समूची प्रक्रिया का सिलसिला चलता रहा।

साथी को थूक से लथपथ कर देना ही चूमना नहीं होता। इसके लिए काफी कलाकारी व कु शलता की जरुरत पड़ती है। चूमना एक कला होती है। इसमें कोई शक नहीं था कि इकबाल इस कला में पारंगत था। इतना माहिर कि अगर उसे इस विषय पर कोई गाईड या मैनुअल लिखने के लिए कहा जाता तो किताब की बजाए वह सहज ही कोई बड़े आकार का ग्रंथ रच सक ता था। रजनी से मैंने इकबाल की चुंबन तकनीक की काफी सराहना सुनी थी। रजनी को भी इकबाल ने ही चुंबन प्रक्रिया सिखाई थी तथा उस से आगे मैंने उस से यह विधि सीखी थी।

मुंह हर जीव का दूसरा अंग होता है। मुंह के द्वारा गुप्त अंगों के प्रयोग से भी ज्यादा शरीर में उत्तेजना उत्पन्न की जा सकती है। मूलरूप में तो चुंबन होठो व जीभ का खेल ही होता है। लेेकिन इसमें थोड़ी सी दिमाग की दखलअंदाजी भी होती है। चुंबन लेते समय ज्यादा जल्दी नहीं करनी चाहिए। शुरु में अपने होंठ साथी के होंठों पर लगातार टिकाकर नहीं रखने चाहिए। उन्हें थोड़ा सा छूकर उठा लिया जाए तथा फिर से छू लिया जाए। फिर उठा लिया जाए। इस तरह लवों को लवों से बार-बार टकराते रहना चाहिए। पहले-पहले होंठों की बाहरी सतह को हल्का-हल्का चूमना शुरु करो। शुरुआत में ही पूरे के पूरे होंठों को खरबूजे के छिलकों की तरह खाना शुरु नहीं करना चाहिए। थोड़ी सी जगह से शुरु होकर धीरे-धीरे अपने चुंबन दायरे को बढ़ाना चाहिए। निचले होंठ से अपने चुंबन का आगाज करके ज्यादा नंबर बनाए जा सकते हैं। दोनों होंठों को बराबर चूमना छोड़कर साथी के ऊपर वाले होंठ को अपने दोनों होंठों में कस लो, इस तरह तुहारा निचला होंठ उसके दोनों होंठोंं के बीच कसा जाएगा। चूमते-चाटते हुए होठों से होंठ रगड़ते हुए सभी एंगल (कोण) पर जाने की कोशिश करनी चाहिए। हर दिशा से हर हिस्सा कवर करना चाहिए। चूमते समय सुविधा के लिए अपना सिर थोड़ा एक ओर झुका लेना चाहिए तथा दूसरी तरफ साथी का सिर थोड़ा सा टेढ़ा करवाकर गुणा का निशान या अंग्रेजी अक्षर एक्स जैसी शक्ल बना लेनी चाहिये। धीरे-धीरे, धीमी गति से आहिस्ता-आहिस्ता तेज,गहरे, जोरदार व शिद्धतअंगेज चुंबन की ओर बढ़कर साथी को उकसाना चाहिए। उत्तेजना के अंतिम पड़ाव में कभी अपनी जीभ उसके मुंह में डालकर तथा कभी उसकी जीभ को अपने मुंह में खींच कर चूसने से स्वाद में दुगनी-तिगनी बढ़ौतरी हो जाती है। आखरी समय में तो साथी के होंठों को ऐसे रगड़-रगड़ कर चाटना चाहिए जैसे दाल खत्म होने पर रोटी को कटोरी में रगड़ कर खाया जाता है। चुंबन कला के बारे में इस से ज्यादा मैं और क्या बताऊं। मैं तो खुद अंजान हूं। किसी दूसरे को चुंबन का तरीका सिखाने का और कोई ढंग नहीं है, सिवाए इसके कि डैमोस्ट्रेशन देने की बजाए आप उसके साथ लगकर सीखने वाले को अयास कराएं। सीखने वाले को आप खुद चूमकर ट्रेंड करो। कब, कहां तथा क्या चूमना है। कब चाटना तथा कब जीभ से काम लेना है। इसका इकबाल को तो पूरा ज्ञान था ही लेकिन मुझे भी कोई खास मुश्किल नहीं आई थी। बढिय़ा व प्रोफैशनल खिलाड़ी के साथ खेलने से आमतौर पर अनाड़ी भी अच्छा खेल जाते हैं। इसके अलावा मैं कई दिन से लगातार 'गुड सैक्स गाईड' वीडियो का चुंबन वाला भाग देखती रही थी। हर कदम में हमारी परफैक्ट व कमाल की समयबंदी थी। इकबाल की चुंबन अदायगी में ठंडी से ठंडी औरत को भी गर्म करके संभोग तक ले जाने की सामथ्र्य थी तथा मुझे कु छ पल में ही वह उस स्थान तक पहुंचा चुका था। अगर उस समय सार्वजनिक स्थान (सिनेमा) की जगह हम किसी तन्हाई वाली जगह होते तो यकीनन एक दूसरे के शरीरों की गुफाओं में गुम हो होते।

फिल्म का काम क्रीड़ा वाला सीन तो कब का खत्म हो चुका था। एकदम से मुझे रजनी का याल आ गया। वह ऊपर से आकर हमें मुंह में मुंह डाले हुए पकड़ सकती थी। रजनी ने तो आस-पास भी नहीं देखना था, मेरी वहीं पर चोटी पकड़ लेनी थी। क्योंकि वह स्वभाव से बहुत गुस्से वाली थी, एकदम लाल मिर्च। लेकिन इकबाल के सामने वह शक्क र बन जाती थी। इस लिए रगड़ी तो मैंने जाना था। राज खुलने के डर से मैं इकबाल को छोड़कर रजनी के आने से पहले-पहले मौका संभाल कर अपनी कु र्सी पर ऐसे बैठ गई जैसे कु छ हुआ ही न हो।

रजनी के आने तक मेरी कुल्फी पिघल कर टपकने लगी थी। बस उसके बाद फिल्म मैंने क्या देखनी थी। आधा पौन घंटा मेरा ध्यान उन मुहब्बत भरे खुशनुमा पलों में ही उलझा रहा। वह बार-बार मीलों लंबा चुंबन मुझे याद आता तथा बिना खाए मेरी कु ल्फी पिघल कर टपकती रही।

फिल्म खत्म होने पर जब हम बाहर निकल रहे थे तो रजनी हम से कहीं आगे निकल गई। मैं और इकबाल भीड़ में पीछे रह गए थे। उस समय तक मुझे यही भ्रम था कि इकबाल ने मुझे रजनी समझकर चूमा था। लेकिन सच्चाई कु छ और ही थी, जिसे जानकर मुझे जो झटका लगा था, उस से ज्यादा खुशी हुई थी। असलीयत उस समय सामने आई जब इकबाल ने जानकारों से आंख बचाकर मेरी गाल चुमते हुए मुझे, ''यू आर ए वैरी गुड किसर, शैजा।" (तुम बहुत बढिय़ा चुंबनकार हो) कहा तो अपनी परफार्मेन्स व कारनामे की तारीफ सुनकर मेरा शर्म से चेहरा लाल-गुलाल हो गया तथा मैं शर्माती हुई उसकी प्रशंसा करने के  लिए यू टू (तुम भी) कह कर इकबाल को कंपलीमैंटस् भी नहीं दे सकी थी। इस तरह उस पल से ही इकबाल मेरे दिल के मज़बूत किले को जीतकर अपनी मुहब्बत का झंडा गाड़ गया था। मेरे दिल की उपजाऊ जमीन में इकबाल की मुहब्बत का बीज चाहे गिर तो काफी पहले गया था। लेकिन वह उचित वातावरण व तापमान न मिलने के कारण पंगुर नहीं सका था तथा उस पल (चुंबन वाले) उस अंकु र में से पौधा निकलना आरंभ हो गया था।

रजनी को आता देखकर इकबाल मुझे 'एक्ट नॉरमल'  कहकर मुझ से दूर हो गया। इस से ज्यादा उसे कुछ कहने की जरुरत भी नहीं थी। मैं खुद समझदार थी तथा यह जानती थी कि अब आगे क्या करना है। ऊपर से चाहें मैंने कु छ भी नजर नहीं आने दिया था, लेकिन अंदर से तो मैं शर्म से पानी में पड़े बतासे की तरह घुलती जा रही थी कि मैं इकबाल के साथ नज़र मिलाने की हिमत भी नहीं कर सकी थी। तब तक रजनी भी हमारे साथ आ गई थी। हम दोनों रजनी की मौजूदगी में साधारण से बातें करके  सब कु छ आमरूप में होने का नाटक करने लग पड़े थे ताकि रजनी को कोई शकन हो। सिनेमा से घर पहुंचने तक मैं इतनी ज्यादा मदहोश हो गई थी, जितना कोई सुबह से शाम तक पब में बैठा शराब पी रहा होता है। ऐसे लग रहा था कि जैसे मेरे पंख लग गए हों तथा मैं आकाश में उड़ान भर रही थी। एकदम यह सारी दुनियां नई-नई व रंगीन लगने लगी थी। खुद अपने अस्तित्व से भी मैं अनजान हो गई थी। शीशे में देखने पर मुझे अपना चेहरा ही अजनबी लगता था। उस दिन खाना-पीना तो क्या था। मुझे तो अपना कोई होश-हवास ही नहीं रहा था। बार-बार वही भ्रम पैदा हो रहा था यानी कि मेरे मनचले होठों को आकर दुबारा फिर इकबाल के होंठ छू रहें हों। इस काल्पनिक याल के आने से मेरे सिर्फ लवों पर ही नहीं, बल्कि सारे शरीर में थरथराहट सी पैदा हो जाती थी। बिल्कु ल वही कंपकंपी जो मैं सिनेमा हाल की कु र्सी पर बैठने पर महसूस हुई थी। मेरे कांपते कुं वारे होठों से रगड़ खाते इकबाल के होठों को याद करके वही 'माईंड-ब्लोईंग' एहसास दुबारा-दुबारा बार-बार होता रहा था। सारी रात अजीब से नशे के सरुर में आई मैं जाग कर सपने देखती रही थी। किसी से सुना था कि जब तक किसी लड़की को मर्दाना स्पर्श न मिले वह औरत नहीं बन सकती। चाहे मुझे मर्द की मुकमल प्राप्ति अभी नहीं हुई थी। लेकिन फिर भी उस रात पहली बार मैंने अपने आपको बालिका से स्त्री बनने का अनुभव किया था। पता नहीं वह रात ही छोटी थी या मुझे ही कोई गलतफहमी थी। बस ऐसे चुटकी मारते ही बीत गई थी।

सुबह होने पर मैंने शरीर में कु छ अकडऩ सी महसूस की। थोड़ा-थोड़ा बुखार सा तो रात का ही लग रहा था। लेकिन मुहब्बत की गर्माहट में मैंने बुखार को कु छ नहीं समझा था। मेरे अंदर बैड से खड़ा होने की भी हिमत नहीं थी। सारा शरीर टूटा सा पड़ा था। शायद नींद न आने या थकावट का नतीजा था या गर्म-सर्द हो गई होगी। स्कूल जाने के  लिए जब तक मैं तैयार हो जाया करती थी, जब उस समय तक मैं नीचे उतर कर नहीं आई तो अमी मुझे आवाज देने के लिए ऊपर मेरे कमरे में आ गई। मुझे जगाते हुए अमी का अचानक मेरे जिस्म को हाथ लग गया। सारा शरीर मेरा तंदूर की तरह तप रहा था। रंग भी बदल कर हल्दी जैसा पीला हो गया था। अमी ने थर्मामीटर लगाकर चैक किया तो मुझे एक सौ पांच डिग्री बुखार चढ़ा हुआ था। एक सेहतमंद मनुष्य के शरीर का तापमान 98.4 फार्नहाईट होता है। हमारे शरीर में हर समय रसायनिक क्रिया होती रहती है, जिस से ताप ऊर्जा पैदा होती है। हमारा दिमाग तथा चमड़ी उस ताप ऊर्जा को वश में रखने का काम करते हैं। शरीर में किटाणु हमला कर दें तो जिस्म के सैलों में पाइरोजन नामक तत्त्व पैदा हो जाता है। इस कारण तापमान काबू में नहीं रहता तथा बढऩे लगता था। तापमान बढऩे को बुखार कहा जाता है। बुखार चढ़ा देखकर अमी ने मुझे स्कूल जाने से रोक दिया। आम बच्चों की तरह चाहे मैं पहले भी स्कू ल से कभी नहीं भागी थी, लकिन उस दिन तो स्कूल मुझे ज्यादा ही खींच रहा था। मैं बार-बार स्कूल जाने की जिद्द कर रही थी। अमी व अब्बू की डांट के आगे मेरी एक भी नहीं चली। मैंने बहुत कहा कि मैं ठीक हूं। मुझे कु छ नहीं हुआ मुझे स्कूल जाने दो। लेकिन उन्होंने मेरी एक बात नहीं सुनी। गुस्से में चादर से मुंह-सिर छिपाकर मैं सारा दिन पड़ी रही। मेरी तिमारदारी करने के लिए अमी भी काम पर नहीं गई थी तथा घर पर रहकर ही कपड़े सिलती रही थी। कई बार अमी मुझे खाने-पीने के लिए  पूछने को आई। गुस्से में मैंने कु छ नहीं खाया-पीया। जहां तक कि दवाई भी नहीं ली थी। अमी ने समझा कि शायद बुखार से मेरी भूख मर गई है। पूरा दिन मैंने अन्न-जल को सूंघकर भी नहीं देखा, खाना तो दूर की बात रही। शाम को मज़बूरीवश मुझे दवाई खानी पड़ी, क्योंकि दवाई लाकर अमी मेरे सिरहाने मेरा सिर दबाने बैठ गई थी। फंसी हुई को मुझे अमी के  सामने कड़वी-कड़वी गोलियां खानी पड़ी थीं जो कि आकार में भी पौंड के सिक्केजितनी बड़ी थीं। दूसरे दिन बुखार घटने की बजाए बढ़ गया था। पिछले दिन में जो दवाई मैंने ली थी, उसका भी कोई असर हुआ नहीं लगता था। अब्बा डॉक्टर से ज्यादा असरदार व बढिय़ा और दवाई लेकर आए। तब तक मैं जान गई थी कि तंदरुस्त रहने के लिए मुझे दवाई खाना आवश्यक था। मैं डॉक्टर क ी बताई मात्रा से दवाई की दोगुनी  खुराक लेने लगी ताकि मैं जल्दी से जल्दी ठीक हो सकूं। दूसरे दिन की सुबह तक बुखार वैसे ही खड़ा रहा था। ऐसे ही तीसरे, चौथे, पांचवें..... तथा कई दिन तक बुखार नहीं उतरा। मैं जल्दी तंदरुस्त होना चाहती थी, लेकिन मेरा बुखार दिन-ब-दिन बिगड़ता चला गया। डॉक्टर प्रिस्क्रिशन स्लिप (दवाई वाली पर्ची) पर अंग्रेजी अक्षर आर के पैर में एक्स लिखकर देता, जिसका कि अर्थ होता है कि मैं अरदास करता हूं तथा शुभकामना देता हूं कि आप इस दवाई (जो मैंने लिखी है) का सेवन करके जल्दी ठीक हो जाओ।
           
अब्बा ने  किसी हकीम से भी पुडिय़ों में कोई दवाई लाकर दी थी। अमी ने कु रान की आयतें पढ़-पढ़ कर फूंका भी था। इंडिया के किसी पंडित से मंत्रों वाला मेरे बाजू पर बांधने के लिए ताबीज भी लाया गया था तथा पाकिस्तान से आए किसी फकीर से आब-ए-जम जम (रुहानी जल) भी मंगवाकर मुझे पिलाया गया था। लेकिन ये सभी तदबीरें फिजूल गई थीं। कोई भी चीज़ मेरा बुखार नहीं उतार सकी थी। चिकि त्सा के देवता 'एसकऊलैपिस'  का पूरा जोर लगा हुआ था तथा स्वास्थ्य की देवी 'हाइजीया'  किसी भी ढंग से मुझ पर मेहरबान नहीं हो रही थी। जैसे वह शेयर है कि ''मर्ज-ए-इश्क पर रहमत खुदा की, मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।"  

बस बिल्कु ल वैसी ही बात हुई थी मेरे साथ भी जितना ईलाज करते उतना ही रोग बढ़ता गया। दो-तीन सप्ताह मुझे बीमारी में लेटे हुए बीत चुके थे। मां-बाप ने मुझ पर शर्त लगा रखी थी कि जब तक मैं पूरी तरह ठीक न हो जाऊं, तब तक आराम करने के लिए घर ही रहूं। मैं बिल्कु ल भी दरवाजे से बाहर नहीं जा सकती थी। न ही इज़ाज़त थी तथा न ही ताकत । बुखार ने सारा वजूद ही तोड़कर रख दिया था। बीमारी ने सारी ताकत ही खत्म कर दी थी।
            
दूसरे तीसरे दिन के बाद डॉक्टर मुझे देखने घर आता था। मेरी सहेलियां भी मेरा पता लेने आया करती थीं। उन्हीं से पता चला था कि इकबाल उनसे मेरी तबीयत के बारे में पूछा करता था, क्योंकि वह खुद तो हमारे घर नहीं आ सकता था तथा न ही फोन कर सकता था। एक सहेली के हाथ इकबाल ने मुझे जल्दी तंदरुस्त होने तथा शुभ इच्छाओं का 'गैट् वैल् सून' वाला निहायत ही खूबसूरत कार्ड भेजा था। मैंने भी सहेलियों के  द्वारा उसे शुक्रिया कहा था। धन्यवाद के दो शब्द 'थैंक यू'  के बिना मैंने जानबूझ कर और कुछ नहीं लिखा था। मुझे डर था कि मेरी सहेलियां मेरी चिठ्ठी कहीं रास्ते में खोल कर पढ़ न लें। कुछ समय के लिए इकबाल से अपने संबंधों को मैं गुप्त ही रखना चाहती थी। कम से कम उस समय तक जब तक हमारी मुहब्बत की गाड़ी पटरी पर नहीं चढ़ जाती।
             
इकबाल के कार्ड को मैं हर समय अपने सिरहाने के नीचे रखती तथा रात को अपनी छाती से लगाकर सोती। दिन में कई बार उसे चूमती तथा कल्पना करती जैसे मैं कागज के टुकड़े को नहीं बल्कि इकबाल को चूम रही हूं। जैसी कहावत है कि, ''खाली दिमाग शैतान का घर" 

मैं भी दिन रात खाली पड़ी इकबाल के बारे में सोचती रहती तथा खुद ही अपने अंगों पर हाथ फिरा कर अपने आपको उत्तेजित करती रहती। ऐसा करने का मेरा मकसद तो अपने जिस्म की भूख बढऩे से रोकना था। लेकिन इससे मेरी वासना और भी बढ़ जाती थी। उस समय मेरी इच्छा यही होती कि मैं बैड पर अकेली ही न लेटी होऊं बल्कि इकबाल भी मेरे साथ लेटा हो। वह भी सारी-सारी रात मेरे साथ जागता रहे तथा मेरे शरीर के साथ खेले। मेरे वजूद का वस्त्र धारण करे। मेरी कच्ची, कोरी, कंचन व कुं वारी काया का भोग करे व आनंदित हो।
                   मेरे दिल में पैदा हुआ इकबाल के प्यार का पौधा फैलता हुआ पेड़ बनता जा रहा था। उसने बहुत सी शखाएं व पत्ते नि र बड़े पेड़ का  रुप व कार धारण र लिया था। उस पौधे को बढ़र पेड़ बनने में मेरी शारीरि  जरुरतों ने सहाय  होर खाद का काम किया था।
                जंगली जानवरों के  बारे में मैंने ए डाक्यूूमैंटरी फि ल्म देखी थी। जंगल में घूमती शेरनी के अंदर जब का की भूख जागती है तो वह शेर को आगे जार लेटने लगती है। पैरों के नाखूनों से मिट्टी उखाड़ र धूल उड़ाती है। अपनी ओर से वह शेर को कारीड़ा का निमंत्रण दे रही होती है। इतना रने पर भी अगर शेर उसका निमंत्रण स्वीकार नहीं रता तो वह दहाडऩे लगती है तथा शेर से लड़ाई पर उतर आती है। ई बार तो वह शेर को अपने पंजो के नाखूनों व दांतों से जमी तक कर देती है। काम जब दिमाग को चढ़ जाता है तो जानवरों से भी संभाले नहीं संभलता। मेरी हालत भी बिल्कुल उस कामु शेरनी जैसी हुई पड़ी थी। मैं भी उसी तरह बैड पर पड़ी करवटें बदला करती थी। मेरा दिल करता था कि मैं मुक्के मार-मार कर दिवारें तोड़ दूं। अपने कपड़े फाड़ दूँ। मेरे अंदर सिर्फ एक ही इच्छा थी, भोगने व भोगे जाने की।
                      
सारी दुनिया मानती है कि काम एक सुप्रीम पावर है। इसके वेग के आगे कोई नहीं ठहर सकता। इंसान अंधा होकर रह जाता है। रिश्ते-नाते कु छ भी नजऱ नहीं आते। ऋगवेद के दसवें मंडल में यम व यमी की कथा आती है। यमी अपने सगे भाई को समुद्र के किनारे अपने साथ सैक्स करने के लिए उकसाती है। ययाती ऋषि अपनी पुत्री की सेज का आनंद लेता है। लूना अपने सौतले पुत्र पूरन पर मोहित होकर उसे निमंत्रण देती है। जब जवान पूरन चगुंल में नहीं फंसता तो इल्जाम लगा कर लूना अपने बूढ़े पति सलवान से पूरन को टुकड़े-टुकड़े करवाकर उसे कुं ए में फैं कवा देती है। गुरु पत्नियों व पुत्रियों के साथ आश्रम में ऋषि रास-लीला खेलते रहे थे। विश्वामित्र अपनी तपस्या भंग करवाकर मेनका के साथ काम-क्रीड़ा में मस्त हो गया था। पुराने शास्त्र व ग्रंथ भरे पड़े हैं ऐसी उदाहरणों से। इन सब कहानियों को मैं मनोरंजन के लिए बनाई गई काल्पनिक कथाओं से ज्यादा कोई मान्यता नहीं देती थी। लेकिन जैसे कहते हैं, ''जिस तन लागे, सो तन जाने, कोई न जाने पीर पराई।" 

इसलिए जब इन्हीं हालात में से मैं खुद गुज़री तो जाकर मैं शारीरिक भूख की अहमियत, वासना के महत्त्व तथा काम की शक्ति को अच्छी तरह समझ सकी थी।
                 कई बार तो डैस्प्रेट् (उजना) हुई मैं यहां तक भी सोचने लगती कि मेरे परिवार के सभी सदस्य मर जाएं व मैं अकेली रह जाऊं ताकि बिना किसी रोक-टोक व डर के मैं जब मन करे तभी इकबाल को बुलाकर अपने जिस्म की भूख शांत कर लिया करुं।
                 
इन दिनों में चाहे इकबाल मेरी आंखों के सामने नहीं होता था। फिर भी मैं उसके प्यार में ऐसे जकड़ी जा रही थी, जैसे लपेटे हुए बिस्तर में सिरहाना जकड़ा होता है। उस समय मेरी एक ही तमन्ना थी कि मेरा इकबाल मेरे सामने हो। शरीर की बीमारी की मुझे ज्यादा चिंता नहीं थी। मन का रोग यानि कि मर्ज-ए-इश्क गंभीर रूप धारण करता जा रहा था। मैंने दवा के साथ-साथ दुआ पर भी जोर दे रखा था, ताकि मेरा बीमारी से पीछा जल्दी छूट जाए तथा मैं इकबाल के साथ इश्क की पंतग चढ़ा सकूं। जो आकाश में ऊंची, बहुत ऊंची उड़े तथा उसे फिर कभी भी नीचे न उतारुं।......सौ गज रस्सा व सिरे पर गांठ। बस मेरे ठीक होने पर ही सारी बात खड़ी थी।

                           

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