Monday 4 May 2015

कांड 7 -बग़ावत

Model: Madhuri Gautam Photography: Vicku Singh Gaurav Sharma & Rishu Kaushik Makeup: Gagz Brar
                    
मेरी बहन नाजीया मुझ से पूरे दो साल बड़ी थी। हाई स्कूल से निकलने के बाद उसे आगे पढऩे नहीं लगााया गया था। ज्यादातर ऐशीयन लोग ऐसे ही करते हैं, विशेष करके हमारा मुस्लिम समाज। लड़की को स्कू ल भी सिर्फ मजबूरीवश ही भेजते हैं, क्योंकि इस देश के कानून के अनुसार सोलह साल तक स्कूल जाना जरुरी है।
                 
मेरे रुढ़ीवादी मां-बाप के जंग लगे दिमाग में यह बात बैठी हुई थी कि पढ़ लिखकर लड़कियों के दिमाग खराब हो जाते हैं। उनकी तबीयत बागी किस्म की हो जाती है। सोच में विद्रोह आ जाता है। वह बाहर लड़कों से दोस्ती कर लेती हैं। इश्क लड़ा लेती हैं। अपनी मर्जी से दूसरे धर्मों व नस्लों के व्यक्तियों से पहली बात तो शादी करवा लेती हैं, नहीं तो कम-से-कम शरीरिक संबंध तो जरुर ही कायम कर लेती है।
    
मेरे मां-बाप हरगिज नहीं चाहते थे और आजाद याल तथा आवारा लड़कियों की तरह हम सभी बहनों में से किसी एक पर भी पश्चिमी सयता का प्रभाव पड़े। ऐशीयन लोगों में पश्चिमीकरण के पैदा हो रहे रुझान से मेरे अब्बा खासतौर से फिक्रमंद थे। इसीलिए हमें आधुनिक अंग्रेज लोगों वाली पोशाकें भी नहीं पहनने दी जाती थीं। पहले-पहल मैंने विरोध किया था कि मैं भी माडर्न कपड़े पहनूंगी अग्रेजों जैसे। मेरे अब्बा ने मुझे चिल्लाकर डांटा था,''नहीं तुझे यही (सलवार-सूट) कपड़े पहनने होंगे। अपना पहरावा यही है। गोरियों की भी कोई पोशाकें हैं, सारा शरीर तो उनमें से दिखाई देता रहता है।"
              
''इन देसी कपड़ों में क्या खाक सुंदर लगूंगी? इससे तो मुझपर सारंगी पर लपेटे कपड़े की तरह गिलाफ ही चढ़ा दो। छुपा दो मुझे पूरी तरह दुनिया से। किसी भी अंग को हवा न लग जाए।"
              
''सुंदरता जिस्म के प्रदर्शन में नहीं बल्कि उसे ढंक कर रखने में होती है।" अमी गुस्से से चिल्लाई थी।

            
''लेकिन मुझे इंगलिश कपड़े अच्छे लगते हैं। अब कौनसा हम इनके गुलाम हैं, जो रोष प्रदर्शन करने के लिए अंग्रेजी कपड़े जलाकर महात्मा गांधी की तरह चरखे पर सूत कात कर खद्दर पहनें।"
              
मी नाक मुंह चढ़ाती हुई मुझ से कहने लगी, ''इन फिरंगियों के भी कोई वस्त्र हैं? औरतें व मर्द दोनों ही पैंट पहने फिरते हैं। कोई अंतर नहीं कपड़ों में। कई बार तो देखने वाले को भुलेखा ही लग जाता है। हंू….।"
            
''हूं....की इसमें क्या बात है? ये तो इनका प्लस पुआइंट है। औरत-मर्द का एकसा पहरावा तो यह साबित करता है कि ये लोग औरतों को मर्द के बराबर का दर्जा देते हैं। कोई भेदभाव नहीं करते। हमारे लोगों ने ही औरतों व पुरु षों के पहरावे में अंतर रखा हुआ है। ''हूं जैसे चोरों व सिपाहीयों के कपड़े में अन्तर होता है इसलिए डा. कि रन बेदी क हती है कि उसने क भी साड़ी नहीं पहनी सदैव मर्दाना कपड़े पहने हैं। साड़ी से उसके अंदर हीन भावना व दबे रहने की फितरत पैदा हो जाती है। मर्दाना कपड़े पहनकर वह बहादुर, दिलेर तथा मर्दों जैसी औरत बनी महसूस करती है।"

मुझे पूरी उमीद थी कि अमी मेरा इतना लंबा-चौड़ा भाषण सुनकर बर्फ बन जाएगी। लेकिन अमी ने तो मुझे वह बात कह मारी थी, जिसकी मैंने उमीद भी नहीं की थी।
           
''ऐसे तो अपने मर्द भी सलवार पहनते हैं तथा औरतें चद्दर बांध लेती हैं। वस्त्र बदलने से आदमी का व्यक्तित्व नहीं बदल जाता। पुराने समय में राजे-महाराजे प्रजा का हाल जानने के लिए रात को भिखारियों वाले कपड़े पहनकर आपने राज्य का भ्रमण किया करते थे। इससे वह भिखारी बने महसूस नहीं करते थे।"
                
मैं बच्ची होने के  कारण मजबूर हो गई थी। वैसे भी बाकी सभी पाकिस्तानी लड़कियां भी सदैव सलवार-कमीज या लंहगे आदि पूर्वी वस्त्रों में नज़र आती थीं। वैसे इसमें शक नहीं था कि  सूट वास्तव में ही मेरे पहना हुआ बहुत जंचता था। फिर बाद में कपड़ों के बारे में मेरा नजरीया काफी बदल गया था।
              
एक बार शनिवार का दिन था। हमारे पड़ोसी भट्ट साहिब की लड़की शगुता तथा साथ के  मुहल्ले में रहते मिर्जाजी की पोती ताहिरा हमारे घर आ गईं। वे बर्मिंघम की सैंट्रल लाईब्रेरी को जा रही थी। मुझे भी खास किताबों की जरुरत थी। वह किताबें मुझे अपनी स्थानीय लाईब्रेरी में से नहीं मिली थीं। मुझे पूरी उमीद थी कि सैंट्रल लाईब्रेरी में से जरुर मिल जाएंगी, क्योंकि वह बहुत बड़ी पांच मंजिलों की रैफरैंस लाईब्रेरी थी तथा वहां हजारों किताबें जमा थी। दुनिया की जो मर्जी मशहूर किताब मांगो, वे आपको ढूंढ कर पकड़ा देते थे।
                
मैंने शगुता को कहा कि मैं भी तुहारे साथ चलती हूं। मेरे साधारण सा सफेद रंग का सिल्की सलवार कमीज पहना हुआ था। मैं उसी तरह उनके साथ जाने लगी तो ताहिरा जिसने जीन्स व कोटी पहनी हुई थी, मुझे कहने लगी,  ''कपड़े तो पहन ले।"
           
''पहन तो रखे हैं, तुझे मैं क्या नंगी दिखाई दे रही हूं?  मोटा दिमाग।" मैंने ताहिरा  पर  हाथ मारा था।
            
ताहिरा ने होंठ काटते हुए कहा था, ''नहीं, हम लोग  लाईब्रेरी चलें हैं। आगे वाला कपड़े देखता है।"
         
''क्यों मुझे इन कपड़ों में देखकर लाईब्रेरी वाले अंदर जाने से रोक देंगे? ये तो सुना था भई कि कई क्लबों तथा होटलों वाले कोट पैंट तथा टाई न लगी होने पर व्यक्ति को अंदर दाखिल होने से रोक देते हैं। लाईब्रेरी में भी क्या कोई ऐसा कानून होता है?"
          
''नहीं यार, तू नहीं समझती क्यों नहीं। हम लोग लाईब्रेरी जाने के बहाने से तो वहां जा ही रहीं हैं, थोड़ी बहुत वहां टाऊन में हवाखोरी भी करेंगे।" शगुता ने मुझे इशारे से कोई भेद समझाना चाहा था।
         
''अच्छा, तो ये कपड़े मेरे पास आने वाली हवा को रोक लेंगे?"
           
ताहिरा खीझ गई थी ''न....हीं.....मेरा.....मतलब।"
           
मैंने ताहिरा की बात बीच में दबोच ली थी। ''मैं अच्छी तरह समझती हूं तुहारा मतलब। मुझे समझाने की कोई जरुरत नहीं। तुम मुझे अंग्रेजी पहरावा पहनने को कह रही हो। वैसे वस्त्र न तो मेरे पास हैं तथा न ही मैं पहनूंगी। अब तुम मेरे सारे मतलब समझ लो। मैं इन कपड़ों में ही जाऊंगी। क्या हुआ है मेरे कपड़ों को?"

ताहिरा ने टॉन्च में कहा था,''इस सूट सलवार से तो कोई और फैंसी ड्रैस ही पहन ले।"
           
मैं भी उसी के तरह का मुंह बनाकर बोली थी,  ''फैंसी डडैस पहन ले। हूं...फैंसी ड्रैस तो मैंने उस समय भी नहीं पहनी थी, जब स्कूल वालों ने चैरिटी (मदद) के लिए धन इक्ठ्ठा करने के लिए फैंसी ड्रैस के मुकाबले करवाए थे तथा हम सबको कहा गया था कि सब लोग कोई न कोई अनोखी या विचित्र सी पोशाक पहनकर स्कूल आना है। कोई ऐसा पहरावा जो अजीब होने के कारण सबका ध्यान खीचें। जिसके वस्त्र सबसे ज्यादा ध्यान अकर्षित करेंगे उसे इनाम दिया जाएगा। जो फैंसी ड्रैस नहीं पहनकर आएगा, उसे जुर्माना देना पड़ेगा। मैंने जुर्माना तो भर दिया था, लेकिन फैंसी-ड्रैस नहीं पहनी थी। अब तो पहननी ही क्या है?"
                 
''छोड़ यार, इसके साथ माथा खपाई का कोई फायदा नहीं। हमारी ओर से बुर्का पहनकर जाए।" शगुता ने ताहिरा को हाथ मारा था।
                  
मैं विद्वानों की तरह बोली थी, ''मैं तुहें एक किस्सा सुनाती हूं। एक बार बादशाह बहादुर शाह जफर ने कु छ लोगों को अपने अमीरखाने में आने का बुलावा दिया। उस महफिल में बादशाह ने अपने अमीर दोस्तों के मनोरंजन के लिए एक मुशायरे का आयोजन किया। इस में उसने अपने चहेते शायर मिजऱ्ा ग़ालिब को बुलाया था। गालिब जब तय समय पर राजमहल पहुंचा तो पहरेदार ने सस्ते तथा सादे लिबास को देखकर दरवाजे पर ही रोक लिया। गालिब ने पहरेदार को बताया कि वह बादशाह का दोस्त है तथा उसे खाने पर बुलाया है। लेकिन पहरेदार ने उसके फटे पुराने कपड़े देखकर यकीन न किया। पहरेदार ने सोचा कि बादशाह का दोस्त हो तथा कपड़े भिखारियों जैसे पहने? ऐसा हो ही नहीं सकता। गालिब ने काफी मिन्नत-मसाजत की तथा जिद्द वगैरा भी की तो पहरेदार ने कहा कि पहले ढंग के कपड़े पहनकर आओ। फिर तुझे महल के अंदर जाने दूंगा। तुझे इन वस्त्रों में राजमहल आते हुए शर्म नहीं आती?"
                
गालिब ने पहरेदार को बताया कि वह गरीब है तथा ज्यादा बढिय़ा कपड़े पहनने की उसकी हैसीयत नहीं है। पहरेदार ने उसकी एक न सुनी। गालिब मायूस होकर वापिस आ गया। उसने अंदर ही अंदर इस घटना का बुरा भी मनाया। फिर घर आकर उसके दिमाग में आया कि उसे बादशाह के निमंत्रण पर हर हाल में जाना चाहिए, नहीं तो बादशाह नाराज़ हो जाएगा। समस्या उदा व कीमती वस्त्रों की थी। गालिब गरीब था और उसने उधार मांग कर बढिय़ा कपड़े पहने तथा वापिस राजमहल चला गया। इस बार पहरेदार ने उसके सुंदर कपड़े पहने देखे तथा बिना रोके अंदर जाने दिया। अंदर जाकर गालिब ने बड़ा तमाशा किया। वह खाने वाली वस्तुएं उठाकर अपने कपड़ों पर रगडऩे लग पड़ा और साथ ही कहने लगा, ''कुत्र्ते खा भोजन...., ले पगड़ीए जी भरकर खा।
                    
गालिब की यह हरकत देखकर सब हैरान हुए। बादशाह ने गालिब से उसके इस पागलपन का कारण पूछा तथा क हा तो कि मैंने तुझे खाने पर बुलाकर तुहारी इज्जत अफजाई की है तथा तू मेरी बेइज्जती करवाने पर लगा हुआ है।
                   
गालिब ने कहा कि जब आपके बुलावे पर गालिब आया था तो  उसे बाहर ही वापिस भेज दिया गया। अब तो महज कपड़े ही आए हैं। इसलिए कपड़ों को खिला रहा हूं। बादशाह सारा मामला जानकर शर्मिंदा हुआ तथा उसने पहरेदारों को डांटकर कहा कि आगे से आदमी देखा जाए न कि उसके कपड़े। तुम मुझे कह रही हो। शगुता तुम तो पंजाबी सूट पहन कर ही चली हो?
                  
''मंै क्या  पहनकर चली हूं, यह तो तूँ टाऊन पहुंच कर ही देखना।"  शगुता व ताहिरा एक दूसरे  की  तरफ  देखकर ठहाका मारकर हंसी थी।  मुझे उस समय  उनके इस  तरह हंसने का भाव नहीं आया था।
                     
मैं कुर्सी से दुपट्टा उठाकर उनके साथ चल पड़ी थी। शगुता तथा ताहिरा के साथ होने से अब्बू ने मुझे जाने दे दिया था। हम डबल-डैकर बस की ऊपर वाली छत की सबसे पिछली सीट पर बैठीं थीं। बस जब सिटी सैंटर के पास आई थी तो शगुता ने धीरे से बैठे-बैठे ही सलवार व कमीज उतार दिए थे। नीचे वह घर से ही खुले गले वाली तंग सी चोली तथा 'थाई-हाई' यानि घुटनों से ऊंची स्कर्ट पहनकर आई थी। शगुता के वह लिबास पहना देखकर मैं दंग रह गई थी। 

''यह क्या?" मैंने शगुता क ो प्रश्न किया था।
                
''वही जो तूँ देख रही है।"
                
''अगर यही कपड़े पहनने थे तो घर से पहन कर आती।" मैं शगुता व ताहिरा की ऐसी चालाकियों से अनजान थी।
                
''घर वाले पहनने देते हैं? घर पर तो हर समय सूट पहनना पड़ता है। घरवालों से चोरी बामुश्किल चाव पूरा हो पाता है सैक्सी कपड़े पहनने का" शगुता ने होंठ सिकोड़ कर कहा था।
              
''लेकिन यह कपड़े पहनने की क्या जरुरत थी?"
               
शगुता मंद-मंद मुस्कराई थी,''दो महीने हो गए, मेरा अपने दोस्त से याराना टूटे हुए, आज मैं बिल्कु ल नहीं रुकुं गी। पांच-सात नए लड़के पटाकर ही रहूंगी। आज तो मैं सारे आवारा लड़कों को अपने पीछे लगा लूंगी।"
  
''देखना भई पट-पटाकर गमलों में लगा देना, कहीं बेचारे खड़े-खड़े सूख ही न जाएं।" मैंने मज़ाक किया था।
          
''अरे, सूख जाएं मेरी बला से, यहां तो दो महीने मैं सूखी पड़ी हूं।" शगुता ने चोली के ऊपर वाले दो तीन बटन जानबूझकर खोल दिए थे ताकि उसकी छातियों का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा नंगा होकर लड़कों को दिखाई दे सके।
           
''तुझे शर्म नहीं आती ऐसे कपड़े पहनते हुए?"
           
''शाजीया, शर्म मुझे इन विलायती कपडों को पहनने में नहीं  आती, बल्कि यह देसी कपड़े पहनने में आती है। हमारे जाहिल व उज्जड मां-बाप अभी भी विक्टोरीयन समय में ही रह रहे हैं।" सलवार कमीज को बैग में डालते समय शगुता बड़बड़ाई थी।
             
इस तरह हंसी-ठिठोली करती हुईं हम बस से उतरकर लाइ्रब्रेरी की ओर चल पड़ी थी। शगुता शिकार की देवी 'डायआना' बनकर शिकार खेलने के लिए टाऊन में ही रह गई थी। उसने कह दिया कि दो-अढ़ाई घंटे तक वह हमें लाईब्रेरी में आकर मिल लेगी। लाईब्रेरी पहुंच कर ताहिरा भी मुझ से अपना पल्लू छुड़ा गई थी। उसने भी अपने किसी दोस्त लड़के को समय दे रखा था। वह उस लड़के के साथ चली गई थी। मैं अपनी किताबें निकलवाकर उनमें से जरुरी साम्रगी उतारने लग गई थी, क्योंकि वहां से किताबें निकलाकर बाहर नहीं ले जाईं जा सकती थीं। सिर्फ वहां बैठकर पढ़ी जा सकती थीं या फिर फोटो कापी ही की जा सकती थीं। फोटो-स्टेट की मशीन वहां पर जगह-जगह लगी हुई थीं। ताहिरा को मैंने लाईब्रेरी आने के पहले पांच-दस मिनट में ही अपने दोस्त का चुबन लेते देखा था। उसके बाद ताहिरा कौन से समुद्र में उतरकर गुम हो गई थी? मुझे इसका  कु छ भी पता नहीं चला था। मैं अकेली बैठी लाईब्रेरी में पढ़ती रही थी।
               
जब तक शगुता मेरे पास आई मैं अपना काम खत्म कर चुकी थी। उसे अपनी मुहिम में कामयाबी नहीं मिली थी। अगर ऐसा होता तो वह भी कहीं आस-पास चली गई होती। हम दोनों सहेलियां वहां से चल पड़ी थीं। बहुत समय हो गया था घर से आए हुए। हम लाईब्रेरी से निकल कर न्यू स्ट्रीट की तरफ जा रहीं थीं, जहां से हमने अपने घर जाने वाली बस पकडऩी थी। रास्ते में कबरलैंड स्कवायर के पास एक गोरा हमें ऐसे घूर रहा था, जैसे बिल्ली दूध के कटोरे की ओर चुपके से देख रही होती है। शगुता ने मुझे बताया था, ''अरी वह गोरा हम पर लाईन मार रहा है।"
             
''मुझ पर, या तुझ पर।" मैं भी मज़ाक के मूड़ में थी।
             
''तुझ पर ही मारता होगा, हमें कर्मजलों को कौन पूछता है? तोते तो शिखर वाले फल को ही काटते हैं। अगर कोई कच्चे न तोड़े तो नीचे वाले फल तो अपने आप ही पक कर गिर जाते हैं।"
                        
वह अंग्रेज हमारी ओर काट खाने वाली नजरों से देख रहा था। मैंने शगुता की बाजू पकड़कर कहा था, ''आजा उधर से चलते हैं?"

''कोई बात नहीं, हम कौनसा उससे डरते हैं, कुछ लेकर थोड़ा खाया है उससे दूर से क्यों जायें, उसके सामने से जायेंगे, वह मुँह में तो नहीं डाल जायेगा।" 

शगुता मुझे जानबूझकर उस अंग्रेज की ओर लेकर चल पड़ी थी। शगुता ने अपना पेट अंदर को खींचकर छाती फुलाकर बाहर को निकाल ली थी। नौजवान लड़कों को देखकर वह अक्सर ही ऐसे किया करती थी। ज्यों ही  हम उस अंग्रेज के पास से गुजरने लगे तो उसने अपना शिनाखती कार्ड दिखाते हुए मुझे बुला लिया, ''मेरा नाम राबर्ट है तथा मैं माडलिंग एजेंसी से हूँ।"

''तो फिर मैं क्या करूं?" लापरवाही से उसकी बात सुनते हुये मैं रूकने की बजाए चलती गई थी, मेरी सरसरी सी नजर उसके कार्ड पर भी पड़ गई थी। जिस कंपनी का उसने कार्ड दिखाया था वह इंगलैंड की सबसे बड़ी तथा प्रसिद्ध कंपनी थी, इतनी बड़ी कंपनी के प्रतिनिधि को देखकर शगुता के तो होश ही उड़ गये, ''हां जी मुझे बताओ क्या बात है? माडलिंग करवानी है तो मैं आपके साथ कांटरेक्ट साइन करने को तैयार हूँ।"

शगुता ने राबर्ट को एक जगह खड़ी होकर घूमकर पहले तो सारी दिशाओं से अपने शरीर के दर्शन करवाये थे तथा फिर थोड़ी सी दूर पांच-दस कदम 'कैट वाक' चलकर दिखाते हुये पूछा था, ''क्या खयाल है, राबर्ट साहिब?"

''नहीं, तुझमें वह बात नहीं, जो उस लड़की में है" राबर्ट की आंख मुझपर थी। मैं तो यही समझती थी कि शगुता मेरे साथ ही चली आ रही है, लेकिन जब मैंने पीछे मुड़कर देखा था तो वह राबर्ट के पास खड़ी थी, मैं चलकर उनसे काफी आगे निकल आई थी।

''आती है कि नहीं?" मैंने शगुता को डांट पिलाई थी।

वह अफसोस से मुँह लटकाये मेरी ओर दौड़ आई थी। उसके साथ ही राबर्ट भी भागकर फिर मेरे पास आया था, ''तुम बहुत खूबसूरत हो।"

''मुझे पता है" मैं उसी तरह चलती गई थी। वह हमारे साथ रहने के लिये जल्दी-जल्दी चलने लगा।

''एक मिनट रूककर मेरी बात तो सुनो।" राबर्ट ने विनम्रता से निवेदन किया था। मैं रूक गई तो वह बोला था, ''आपका चेहरा बहुत सुंदर है, बिल्कुल मूर्ति की तरह, फोटोजेनिक, ए परफैक्ट फोटोग्राफिक फेस।"

''तथा बॉडी कौनसा बुरी है? है न पूरी बम-शैल?" शगुता ने राबर्ट को टोकते हुये मुझे सिर से पैरों तक देखा था।

''नहीं, नहीं, मेरा मतलब ये तो सिर से पैरों तक हसीन है, अजंता-एलोरा की गुफाओं में बनी मूर्तियों की तरह कुदरत की कारीगरी का शाहकार तथा बेहतरीन नमूना, कंपलीट मास्टर पीस" राबर्ट की नजरें मेरे शरीर का एक्सरे कर रही थीं।

''देखो मिस्टर राबर्ट या राकेट जो भी आपका नाम है, कान खोलकर सुन लो? मेरे पास ऐसी बेहूदा बकवास के लिये समय नहीं है तथा न ही मैं लंडर (आवारा) लड़की हूँ। मुझे बशो, मैंने जाना है, नहीं तो मेरी बस निकल जायेगी।" मैं वहां से फिर चल पड़ी थी। राबर्ट ने फिर मेरा रास्ता रोक लिया था।

''यही तो मैं तुहें समझाने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं तुझे बसों से निकाल कर तुहारे कदम हवाई जहाजों में रखवाना चाहता हूँ। ज्यादा इधर-उधर की बात न करके मैं आपको बताना चाहता हूँ कि हमें हमेशा खूबसूरत चेहरों की तलाश रहती है। आप अंधेरे में गुम हैं, मैं चाहता हूँ कि तुहें स्पॉट लाईट में लाया जाये। आप शो-बिज में आ जायें। तुहें हम रातों-रात स्टार बना देंगे। मुझे विश्वास है कि आप नाओमी कैंपबैल, कैरमन डियोज तथा पामेला एंडरसन जैसी सुपर मॉडलों की छुट्टी कर देंगी। फिर तुम इन मामूली कपड़ों की जगह महंगी-महंगी हीरे मोती जड़ी पोशाकें पहनना।" राबर्ट ने मुझे सपने दिखाते हुये अपना दिल मेरे आगे खोल दिया था।

मैं उससे पीछा छुड़ाना चाहती थी, ''माफ करना मैं इसी लिबास में खुश तथा संतुष्ट हूँ।"

''सोच ले, लड़की, जितना धन तूने सारी उम्र नौकरीयां करके कमाना है, उतना एक रात में तू खर्च किया करेगी और करना भी कुछ नहीं। नये-नये कपड़े पहनकर कैमरे के आगे ही होना है। यहीं पर ही बस नहीं, हम तुझे मिस वल्र्ड प्रतियोगिता में भी हिस्सा दिलवा देंगे। मॉडलिंग करने से फिल्मी दुनियां के दरवाजे भी तेरे लिये खुल जायेंगे। हॉलीवुड से आफर आया करेंगी तुझे, वैलिस अकट्रेस कैथरीन जीटा जोन्स को देखे ले, स्वानसीया में धक्के खाती थी तथा अब कहां पहुंच गई है।"

''हां अपने पिता की उम्र के एक्टर माइकिल डगलस का बिना विवाह करवाये बच्चा पैदा करने अस्पताल पहुँच गई है।" मेरा उत्तर सुनकर शगुता की हंसी निकल गई थी।
                  
राबर्ट ने मुझे सब्जबाग दिखाने चाहे थे, ''मेरा कहने का भाव है कि आज तुहारी मामूली सी औकात है। हमारे साथ हाथ मिलाले, हम तुझे शैरन सटोन की तरह दुनियां की सबसे महंगी औरत बना देेंगे, जो स्क्रीन (पर्दे) पर कपड़े उतारने के सैकिंडों के हिसाब से पैसे लेती है, लाखों डॉलर कमाती है, तेरे पास इतनी दौलत होगी कि आग लगाने से भी खत्म नहीं होगी।"

''लेकिन शैरन सटोन तो अपने आप को दुनियां की सबसे घटिया व सस्ती औरत समझती है। रात मैंने उसकी इंटरव्यू देखी थी। इंटरव्यू लेने वाले ने सवाल पूछा था, "तुहारी गिनती दुनियां की महंगी औरतों में होती है, कैसा महसूस करती हो? इसके जबाव में शैरन ने पता है क्या कहा?"

''क्या?" साफ जाहिर था कि राबर्ट ने वह इंटरव्यू नहीं देखी थी।

'शैरन सटोन कह रही थी, "मैं दुनियां की महंगी औरत कैसे हो गई? हर वह श स जिसकी जेब में पांच डालर हों वही मेरी फिल्म 'बेसिक इंनसइंक्ट' लगाकर मुझे जब चाहे बिल्कुल नग्न देख सकता है। मुझसे तो घरेलू व आम औरतें कई गुणा अमीर हैं, जो करोड़ों डालरों के बदले में भी अपने शरीर को हर ऐरे-गैरे को तो क्या, वे किसी रईस को भी नहीं दिखातीं? अब बोलो जनाब, ''क्या मैं आपको इन कपड़ों में खूबसूरत नहीं लगती ?" मेरा अभिमान बोला था।

''खूबसूरत क्यों नहीं लगते ? तुम तो पूरा चौहदवीं का चांद हो।"  राबर्ट नजरों से मेरे जिस्म का नाप तोल कर रहा था।

''मैं इन साधारण कपड़ों के कारण ही दिलकश लगती हूँ। महंगे लिबास मेरी सुंदरता को बढ़ायेंगे नहीं बल्कि घटायेंगे, क्योंकि देखने वाला फिर सिर्फ मेरे कपड़ों को ही देखेगा, मुझे नहीं । इसलिये मुझे कीमती वस्त्र पहनने का कोई लालच या शौक नहीं।"

''फिर भी मेरा कार्ड रखलो, हो सकता है, कभी काम आ जाये।" उसने जब्रदस्ती अपना कार्ड मेरे हाथ में थमा दिया था।

''कभी जरूरत नहीं पड़ेगी मिस्टर राबर्ट" मैंने राबर्ट से पकड़कर उसका कार्ड उसके सामने ही फाड़कर फेंक दिया था तथा हम वहां से जल्दी-जल्दी चल पड़ी थी।

थोड़ा आगे जाकर पीछे राबर्ट की ओर देखती शगुता मेरे कान में फुसफुसाई थी, ''अरी बेवकूफ, तूने तो बेचारे का दिल ही तोड़ दिया। देख पीछे मुड़कर, उसका चेहरा उतरा पड़ा है? कार्ड रख लेती, तुझे फाडऩे की क्या जरूरत थी? हो सकता है मेरे काम आ जाता। अरे---- कमाल है, हम ऐसे कपड़े पहनकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते घूम रहे हैं, लेकिन कोई मुँह नहीं लगाता, तूं साधारण से कपड़ों में भी आगे वालों को अपनी तरफ खींच लेती है।"

''देख ले फिर? कपड़े वही कुछ दिखाते हैं जो आप हैं, तुहारी शसीयत का प्रतिबिंब होते हैं कपड़े। तुहारी समझ व इखलाक के प्रतीक होते हैं आपके कपड़े। इंसान रफतार, गुफतार व दस्तार से पहचाना जाता है।" इतनी देर में हम बस स्टैंड पर पहुँच गई थी तथा ताहिरा भी वहीं हमसे आ मिली थी। बस तैयार खड़ी थी। हम फटाफट चढ़ गये थे। बस चलते ही शगुता ने बैग में से निकालकर उतारा हुआ सलवार-कमीज फिर से पहन लिया था। उस दिन मुझे अपने सलवार-कमीज पहनने पर फख्र महसूस हुआ था।

हम सबको अब्बा की ओर से घर में आपसी बातचीत के दौरान अंग्रेजी बोलने की सत मनाही थी, हमें टी.वी. पर आने वाले ज्यादातर इंगलिश कार्यक्रम भी नहीं देखने दिये जाते थे। इंगलिश कार्यक्रमों को अब्बा अश्लील मानते थे। ज्यादातर हमारे घर डिश पर आते पाकिस्तानी नाटक या वीडियो दुकान से किराये पर लाई गई भारतीय फिल्में ही चलती रहती थीं। यह बात अलग है कि उन पाकिस्तानी नाटकों की शदावली निहायत ही लचर तथा द्वीअर्थी हुआ करती थी। भारतीय फिल्में भी कामुक व नग्न दृष्यों से भरपूर हुआ करती थीं। लेकिन अपनी ओर से मेरे मां-बाप हमारे चरित्र निर्माण में सदाचार भरने का हर संभव यत्न कर रहे थे।

अब्बा खुद भी सच्चे-किरदार के मालिक थे। उनके खिलाफ कोई अंगुली भी नहीं उठा सकता था। वरना टैक्सीयों वाले ड्राइवरों का महकमा तो बहुत बदनाम है। सबसे लुच्ची जमात माने जाते हैं ड्राइवर। रोजाना खबरें पढ़ते हैं, टैक्सी ड्राइवरों पर बलात्कार पर चलते केसों की, दरअसल यह काम ही ऐसा है, हर समय सड़कें नापते रहने तथा भांति-भांति के व्यक्तियों से पाला पड़ता रहता है। सवारियां लाते-ले जाते समय लड़कीयों-औरतों से भी पाला पड़ता है। खासकर रात को जब क्लबों से शराबी होकर निकली गोरीयां या कालीयां घर जाने के लिये टैक्सीयां मंगवाती हैं तो वासना के भूखे ड्राइवर उनके नशे में होने का फायदा उठाकर उन्हें किसी सुनसान जगह पर ले जाते हैं। वहां एकांत में मौका देखकर कार में ही जनाना सवारी से अपनी आदत पूरी कर लेते हैं। वैसे शराब पीकर आधी रात को टैक्सीयों में घर जाने वाली ऐसी औरतें खराब ही होती हैं। ज्यादातर तो खुद ही ड्राइवरों की बात मान जाती हैं, चाहे वे आत्मिक वासना पूरी करने के लिये राजी हुई हों या फिर टैक्सी का किराया बचाने के लिये। इस तरह कारण चाहे जो भी हो, ड्राइवर अपना उल्लू सीधा कर ही लेते हैं।

लेकिन मेरे अब्बा ऐसी एयाश किस्म के बिल्कुल नहीं थे। जब इंगलैंड में आये थे तो वह उस समय भर जवान थे, अगर वे चाहते तो एक मेम को छोड़ते तथा दूसरी को पकड़ते। अब्बा सुन्दर भी बहुत थे, जवानी में उन्हें कसरत का काफी शौक था। बॉडी बिल्डर व एक्टर जैन-वैन-डैम जैसा तगड़ा तथा तंदरूस्त शरीर होता था अब्बा का। उनकी पुरानी तस्वीरें देखने पर पता चलता था कि अब्बा कितने सुंदर व जवान मर्द होते थे। बिल्कुल एक्टरों की तरह होते थे। उनकी आंखें भी काली नहीं बल्कि मेरी तरह भूरी ही थीं। नाक-नक्श भी मेरा सारा अब्बा पर ही गया था। जवानी में उन पर बिला शक लड़कीयां मरती होंगी। उस उम्र में मन का डोलना कोई बड़ी बात नहीं होती लेकिन अब्बू ऐसे वैसे नहीं थे। पूरे शरीफ व पक्के नमाजी थे। पांचों समय बिना रूकावट नमाज अदा किया करते थे। चाहे बरसात आये या आंधी। बारह महीने, तीस दिन अब्बा सुबह-सुबह जल्दी उठ जाया करते थे। सबसे पहले अपना जिस्म व वस्त्र पवित्र करते तथा सलातुल फजर यानि सुबह की नमाज अदा करते । इसके बाद टैक्सी लेकर काम पर चले जाते। एक फालतू जोड़ा मुस्ॅसले तथा टोपी का हर समय उनकी गाड़ी में होता था। इबादत के समय का एक लहा भी छूटने नहीं देते थे। तीसरे पहर खुद ही ढंग की जगह देखकर दीगर की नमाज जिसे हम सलातुलअसर कहते हैं, वह पढ़ लेते तथा इसी तरह शाम होने से पहले नमाज-ए-पेशीन जो सलातुलजुहर के नाम से जानी जाती है भी मुकमल करते। उधर सूरज छिप रहा होता तथा इधर अब्बा शाम की नमाज सलातुलमगरिब निपटा रहे होते। फिर नमाज-ए-खुफतन के समय तो अब्बा घर पर ही होते तथा मेरी आंखों के सामने सलातुलइशा का पठन करते। इसके अलावा सलातुलइशरक (नमाजे इशराफ), सलातुलजुहा (नमाजे-चाशत), सलातुल तहजुद (नमाजे-तहजुद) आदि जो और नमाजों की एक सच्चे मुसलमान को हिदायत है, वे सब तो पढऩी ही थी। उनके बिना ईद-उल-फितर तथा ईद-उल-अजहा की नमाजें पढऩे में भी कभी कोई ढील नहीं करते थे। अब्बा पूरे हठी, जपी व तपी थे। पाक तथा नेक होने के कारण सब उनकी इज्जत तथा तारीफ किया करते थे। इसी कारण अमी के बिछुडऩे के बाद भी अब्बा ने अपना संयम कायम रखा था। अमी से निकाह होने के चंद रोज बाद ही अब्बा इंगलैंड आ गये थे। उनके पीछे अमी भी कई साल अकेली रही थी। अमी भी मेरी बिल्कुल देवी थी देवी। लोग अमी के सब्र, संतोख व पाकीजगी की मिसालें दिया करते थे।

सब बच्चों को भी हमारे मां-बाप अपने पद्-चिन्हों पर चलते हुये देखना चाहते थे। मुझे तथा नाजीया को हमारी सहेलीयोंं की तरह बिना मतलब इधर-उधर घूमने की तो बिल्कुल भी इजाजत नहीं थी। किसी बात या काम से भी बहुत कम बाहर निकलने दिया जाता था। अगर अमी की तबीयत ठीक न होती, उसे कोई काम होता या किसी और कारण से अगर वह न जा सकती तो छोटे भाईयों में से किसी एक को हमारे साथ भेजा जाता था। कभी भी मुझे या नाजीया को अकेले नहीं जाने दिया जाता था। हमारे घर से लगभग सौ गज दूर चिप्स शॉप थी, वहां जाने के लिये भी हमें अपने साथ कोई न कोई 'अंग रक्षक' ले जाना पड़ता था।

हमें लड़कीयां होने के गुनाह की यह सजा दी जा रही थी। हमारा लड़कीयां होना जैसे हमारी ही गलती या हमारा ही दोष था। तंग आकर कई बार तो मेरा दिल करता था कि मैं 'सैक्स चेंज' आप्रेशन करवाकर लड़की से लड़का बन जाऊं। बहुत लोग इस विधि से अपना लिंग बदलवा रहे थे। लड़की होने के कारण नाजीया को ज्यादा पढ़ाया-लिखाया नहीं गया था। सिर्फ उतनी ही शिक्षा दिलाई गई थी,  जितनी के बिना काम नहीं चल सकता था। नाजीया सोलह साल की ही अमी के साथ कपड़े सीने की फैक्टरी में काम पर लगी थी।

जिस समय नाजीया को अठाहरवां साल लगा था। उससे चार महीने पहले हम सब लोग पाकिस्तान गये थे। उस समय वहां मेरी बुआ के लड़के असलम के साथ नाजीया की सगाई कर दी गई थी। सगाई के बाद हम लोग इंगलैंड आ गये थे। लेकिन अमी व नाजीया वहां रह गई थी। सबका वहां ठहरकर काम नहीं चल सकता था। खासकर अब्बा का। यहां के खर्चों का दारोमदार उनकी कमाई पर टिका हुआ था तथा हमारी पढ़ाई का नुकसान भी हो रहा था।

पाकिस्तान में अमी व नाजीया को असलम ही हर जगह अपनी कार में घुमाता रहा था। इस तरह नाजीया को अपने होने वाले पति को जानने समझने का मौका मिल गया था। तीन चार दिन में ही वह अपनी ससुराल वाले परिवार से घुलमिल गई थी। लाहौर के माडल टाऊन की जिस पॉश कोलोनी में हमारा बंगला था, उसके पास ही गुलमर्ग के इलाके में असलम के परिवार की करोड़ रूपये लागत वाली आलीशान कोठी थी। इस कारण असलम के घर नाजीया का आना-जाना आम ही लगा रहता था। नाजीया बताया करती थी कि अमी की इजाजत से असलम उसे कई बार थियेटर, शालीमार बाग या कोई और आशिकाना स्थान दिखाने ले जाया करता था। बहुत कुछ है लाहौर में देखने वाला। एक कहावत है, ''जिसने लाहौर नहीं देखा, वह पैदा ही नहीं हुआ" 

अर्थात उसने कुछ भी काबिल-ए-दिदार स्थान नहीं देखा। मुझे सुनकर हैरानी हुई थी कि पाकिस्तान के लोग भी इतने आधुनिक हो गये हैं? जो लड़का-लड़की को शादी से पहले ही सैर-ओ-तफरी के लिये अकेले जाने की इजाजत दे देते हैं।
असलम के परिवार ने तो नाजीया को एक-आध रात के लिये अपने घर रखने की इजाजत भी मांगी थी, लेकिन अमी ने नाजीया के रात उनके यहां रहने से कोरा जबाव दे दिया था, ''कुंवारे रिश्ते, न भाई, सारा दिन तो नाजीया तुहारे घर ही रहती है। रात को नहीं मैं लड़की को छोड़ सकती। लोग क्या कहेंगे?" 

नाजीया के ससुराल वाले चुप चाप अमी के कहे लग गये थे।

असलम ने जब नाजीया को अपने घर में रखने के बारे में सोचा होगा तो हो सकता है असलम का ये दो चार रातें नाजीया को अपने साथ सुलाने का इरादा हो? अगर उसका इरादा न भी होता तो नाजीया ने रात को उठकर खुद ही उसके साथ सो जाना था। असलम तो सुना था बहुत ही शर्माता था। नाजीया चुस्त थी। नाजीया बताती थी एक बार वह दोनों इकट्ठे बिलालगंज रोड पर पैराडाईस स्टूडीयो में फोटो खिंचवाने चले गये थे। फोटोग्राफर ने आगे स्टूडीयो में भेजकर कहा, ''आप मेकअप रूम में जाकर अपने बाल बगैरा ठीक करके तैयार हो जाओ मैं आता हूँ।"

तैयार उन्होंने क्या होना था? तैयार होकर तो वे घर से ही गये थे। उन लोगों को इससे बढिय़ा व तन्हाई भरा माहौल सारे पाकिस्तान में और कहां नसीब होना था? असलम तो शर्माता दूर ही खड़ा रहा था। नाजीया खुद ही जाकर उसके साथ सटकर बैठ गई थी, फिर कहीं जाकर उसका हौंसला खुला था तथा असलम ने चुंबन लेने के लिये जप्फी डाली थी। उस समय के हालात को नाजीया ने अपने शब्दों में इस तरह ब्यान किया था, ''हाय शाजीया, मेरा दिल करे असलम मुझे जोर से अपनी बाहों में खींच ले। इतनी जोर से, इतनी शिद्दत के साथ कि मेरे बदन पर निशान पड़ जायें, जिस तरह जोर से बांधे नाड़े के निशान कमर पर पड़ जाते हैं।"

नाजीया व असलम प्यार करने में मशगूल थे कि ऊपर से फोटोग्राफर आ धमका। असलम को नाजीया के होठों, गालों व गर्दन से शबाब चूसते हुये देखकर वह शर्मिंदा सा होकर उल्टे पैर 'सॉरी' कहकर वापिस चला गया।

बहरहाल उस स्टूडियो में नाजीया व असलम ने स्टारडस्ट, सिने ब्लिटज तथा मूवी जैसे गलौसी फिल्मी मैगजीनों के पन्नों पर छपने वाली उत्तेजक तस्वीरों जैसे पोज बनाकर तस्वीरें खिंचवाई थीं।

नाजीया और भी बहुत कुछ बताती थी जिससे नाजीया की ससुराल वालों के आजाद‐यालात होने का संकेत मिलता था। वैल एजूकेटेड, परिवार के हर सदस्य ने कम से कम ग्रैजुएशन तो कर ही रखी थी तथा लाहौर जैसे महानगर में रहते थे। किसी पिछड़े हुये गांव या कस्बे में नहीं।

वैसे भी पाकिस्तान अब वह पाकिस्तान नहीं रह गया था। बहुत तरक्की करली थी। वहां के लोगों ने संकीर्ण विचारों का त्याग कर दिया था। पाकिस्तान की लड़कीयां इंगलैंड की लड़कीयों से ज्यादा फैशन करने लगी थीं। बाल कटवाने, भवें संवारना, ब्यूटी पार्लरों में जाना, पश्चिमी लिबास पहनने लगी थी। पाकिस्तान के शहरों की सड़कों पर जवान व अकेली लड़कीयां मर्सडीज कारें घूमाती आम ही देखने को मिल जाती थीं। होटलों में लड़कों के साथ उनका इश्क लड़ाना गुप्त नहीं रह सकता था। पाकिस्तान के बाकी शहरों में भी लंदन, पेरिस तथा न्यूयार्क की तरह जगह-जगह क्लब खुल गये थे। जहां नौजवान लड़के-लड़कीयां इकट्ठे होकर नाचते, हल्ला-गुल्ला करते। वहां की औरतें भी गोरी मेमों की तरह शराब व सिगरेट पीने लगी थी तथा उनमें भी बुआएफ्रेंड रखने का रिवाज जोर-शोर से प्रचलित हो गया था। वहां के लोग अपने कुंवारे बेटी-बेटों को प्रेम करने तथा यारी लगाने की छूट देने लगे थे। अन्तरजातीय विवाह वहां पर आम बात बनकर रह गई थी। एक तो वे पाकिस्तान में बसने वाले लोग थे, जो इतने आधुनिक हो गये थे। दूसरी तरफ मेरे मां-बाप जैसे लोग भी थे, जो इंगलैंड में रहते हुये भी पुराने घिसे-पिटे विचारों से छुटकारा पाने की बजाए, उनके साथ चिपके हुये थे। पाकिस्तान के निवासीयों को देखकर मुझे तो ऐसे लगता था जैसे वे इंगलैंड में रह रहे हों तथा हम यहां इंगलैंड में बैठे भी पाकिस्तान में।

मुझे ऐसे लगता था जैसे मेरे मां-बाप इक्कीसवीं सदी में नहीं बल्कि 'पत्थर युग या 'पहीया युग में जी रहे हों। अमी की सोच में तो अभी फिर भी कुछ नयापन था लेकिन अब्बा तो बहुत तंग दिमाग के मालिक थे।

असलम से अलग होकर जब नाजीया यहां आई थी तो कई दिन उसका यहां दिल नहीं लगा था। उसे पाकिस्तान की यादें परेशान करती रही थी। असलम की जुदाई ने उसका बुरा हाल कर दिया था। लाहौर रहते समय वह हर रोज एक दूसरे को मिला करते थे। एक दूसरे का मुँह देखे बिना वह रोटी नहीं खाते थे। नाजीया ने असलम को फोन करने की इजाजत मांगी थी तो उसे इंकार कर दिया गया था। हालांकि उसकी असलम से मंगनी हो चुकी थी। पिछड़े विचारों के होने के कारण अब्बा लड़कीयों को ज्यादा आजादी देने के हक में नहीं थे। लेकिन जमाने के रोकने पर दिवाने कब रूकते हैं? अब्बा से चोरी नाजीया अपने मंगेतर को अक्सर फोन कर लिया करती थी। बाद में अमी ने उसे अपनी सहमति दे दी थी। कभी-कभी उधर से भी फोन आ जाया करता था। घंटा-घंटा, दो-दो घंटे, पता नहीं नाजीया व असलम क्या-क्या बातें करते रहते थे? अगर लाईनों में कोई खराबी आ जाती तो वे एक दूसरे को ई-मेल कर देते थे।

विवाह से पहले ही नाजीया को अपने होने वाले पति से प्यार हो गया था। नाजीया तो असलम की फोटो को छोड़ती ही नहीं थी। उसने अपने लॉकेट में डलवाकर असलम की तस्वीर अपनी छाती पर सजाई हुई थी। जैसे किसी फौजी को लड़ाई में दिखाई बहादुरी पर मिले तमगे को सजाया होता है। असलम की मुहब्बत पर शैदाई हुई नाजीया के पागलपन पर मुझे भी हंसी आती थी। हालांकि मेरी झल्लाहट के आगे उसकी दिवानगी कुछ भी नहीं थी। नाजीया से ज्यादा तो मैं इकबाल के प्यार में पागल थी।

''जीजा जी को यहां आने पर तो लगता है तूं उन्हें निगल ही जायेगी।" एक दिन (माफ करना, असल में तो रात थी उस समय) नाजीया को असलम की फोटो को ताबड़-तोड़ चूमते देखकर मैंने छेडख़ानी की थी।

''हाये अल्ला, तूने मुझे देख लिया है?" नाजीया ने शर्म से अपना मुँह चुन्नी में छुपा लिया था। उसे मेरी मौजूदगी का एहसास मेरे बोलने पर ही हुआ था। असलम के यालों में डूबी हुई को उसे कोई सुध-बुध ही नहीं रही थी। इश्क का जादू है ही ऐसा, जिसे हो जाये उसके सिर चढ़कर बोलता है।

विवाह, पति, घर, बच्चे, बस, इससे ज्यादा नाजीया ने अपनी जिंदगी में क्या देखना था? नाजीया का सपना भी  यही सब चीजें थीं। इसी लिये वह संतुष्ट व खुश थी। लेकिन मेरे सपने इतने छोटे नहीं थे। जैसे वह कहावत है न कि नो नॉलेज विदाऊट कालेज। मैं भी नॉलेज हासिल करना चाहती थी। इसलिये मैं स्कूल के बाद कालेज तथा फिर यूनीवर्सिटी पढऩा चाहती थी। उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहती थी। कोई डिग्री प्राप्त करना चाहती थी तथा फिर कोई बढिय़ा सी नौकरी करके खुद अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी। मैं अथाह नाम कमाना चाहती थी। बेशुमार दौलत कमाना चाहती थी। दुनिया को कुछ बनकर दिखाना चाहती थी। पाउडर, लिपस्टिक, अंडर गारमैंटस जैसी मामूली सी चीजों को खरीदने के खर्च के लिये आदमीयों के आगे देसी औरतों की तरह मैं हाथ फैलाने के हक में नहीं थी और नहीं तो कम से कम मैं कोई व्यापार शुरू करके एक सफल 'बिजनेस वूमैन' के तौर पर अपनी पहचान बनाना चाहती थी। इधर नाजीया जैसी जिंदगी ही मेरे ऊपर थोपने का मन्सूबा बनाया जा रहा था। मैं हर समय बर्तन साफ करने तथा बच्चों के नेपकीन बदलने वाली घरेलू औरत बनकर अपना जीवन बरबाद नहीं करना चाहती थी। धर्म का फैलाव करने के जुनून में हर साल बच्चे-पर-बच्चा पैदा करके मैं अपने जिस्म को खोखला तथा बिमारीयों का गुलाम नहीं बनाना चाहती थी। कई बड़ी-बड़ी योजनाएं बना रखी थी मैंने अपने भविष्य के लिये। आसमान की बुलन्दीयों को छूना चाहती थी मैं। मेरे निशाने बहुत ऊंचे तथा दूर के थे।

अरेंज मैरिज? तथा वह भी पाकिस्तान में? न बाबा न। ऐसी किस्म का किसी के द्वारा तय किया गया विवाह करवाने के बारे में सुनकर विवाह करवाने को मेरी आत्मा बिल्कुल तैयार नहीं थी। लेकिन अफसोस कि मेरे विवाह की तैयारीयां आरंभ हो चुकी थीं। मैं यह भी जानती थी कि मैं इस मामले में कुछ नहीं कर सकती थी। ज्यादा से ज्यादा इस मामले को एक डेढ साल के लिये टाल सकती थी, इससे ज्यादा नहीं। अगर अब कुछ देर के लिये टाल-मटोल करके सुख का सांस लेती भी तो साल-छमाही में फिर से तलवार मेरे सिर पर आ लटकनी थी। बकरे की मां कब तक खैर मना सकती है? एक न एक दिन तो बकरा झटका ही दिया जाता है। मुझे कुर्बानी का बकरा बनने से बचने का कोई रास्ता नजर नहीं आता था। मैं बहुत उदास रहने लगी थी।

इंसान जब अपनी समस्याएं खुद हल न कर सके तो वह दूसरों से मदद की उमीद करता है। औरत अपनी मुश्किलें दूसरी औरत से ही साझा करने को पहल देती है। इस समस्या में अमी मेरे खिलाफ थी। नाजीया से मेरे विचार न मिलते होने के कारण मैं उसके साथ कोई बात नहीं कर सकती थी। उसने तो यही कहना था, ''जैसे मां-बाप कहते हैं, उसी तरह करले, वही ठीक है। अमी ने तुझे नौ महीने पेट में रखा है। जन्म दिया है तुझे। इतना भी हक नहीं है उनका तुझ पर?"

मैं ऐसी बकवास पहले पचास बार सुन चुकी थी। राजीया वैसे ही बहुत छोटी थी, तथा उसके यह मामला समझ में भी नहीं आना था। उसने कहना था, ''मैं अपनी गुड़ीया का हर रोज विवाह करती हुं, तूं भी करवा ले" उसे मैं समझा भी नहीं सकती थी विवाह-शादी कोई गुड्डे-गुड्डी का खेल नहीं होता। यह शादी तो उम्र-भर का जुआ होती है। शादी शब्द फारसी के लज शाद से बना है। शाद का अर्थ होता है खुशी व बहार। इसलिये शादी का भावार्थ है प्रसन्नता वाली क्रिया। ऐसी कार्रवाई जो जीवन में खुशी, उल्लास, आनंद, स्वाद, मिठास तथा प्यार का रस घोल दे तथा जिंदगी को आनंद से जीने व भोगने लायक बनाए। जिस शादी के करने से जिंदगी दोजख (नर्क) तथा दुखों-तकलीफों में घिर जाये, क्या ऐसी क्रिया को भी शादी कहा जा सकता है? नि:संदेह इसका उत्तर नहीं है। फिर मैं ऐसी शादी के चक्कर में पडऩे के लिये रजामंद होती भी क्यों? सिर्फ और सिर्फ इकबाल से हुये मेरे मिलन को शादी कहा जा सकता था। इसलिये मैं इकबाल को याद करके कहती थी, हमां यारां दोजख, हमां यारां बहिशत (स्वर्ग) अगर मेरे मां-बाप इकबाल से मेरा विवाह करने को तैयार होते तो मैंने भी मान जाना था। लेकिन किसी और के बारे में तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी। मैं चाहती थी कि कोई मुझे इस सबसे बचने का रास्ता ढूंढ कर दे। घरवालों व रिश्तेदारों में से तो किसी ने मुझे न तो समझना था तथा न ही सही सलाह देनी थी। बल्कि मेरी बात सुनकर ऐसे ही फालतू का बखेड़ा खड़ा कर देना था।

बाहर भी और कोई मेरी नजर में ऐसा नहीं था। जिससे मैं सलाह कर सकती, सिवाए अपनी स्कूल की सहेलीयों के। जैसे रेन कोट आदमी को भीगने नहीं देता। बरसात से बचाकर रखता है। उसी तरह दोस्त-सहेलीयां भी रेन कोट की तरह होते हैं। मुझे आशा थी कि मेरी सहेलीयां मुझे इस समस्या की बारिश में भीगने से बचा लेंगी। मेरी सहेलीयां भी लगभग सारी की सारी अंग्रेज थीं। अमी तो मुझे अंग्रेज लड़कीयों से दोस्ती रखने से बहुत रोकती थी। हुआ ये था कि एक दिन कपड़ों की दुकान वाली शब्बो बुढ़ीया ने मेरी सहेली टरेसा को किसी आदमी से सिगरेट लेकर पीते देख लिया था। टरेसा का घर मेरे स्कूल के रास्ते में होने के कारण मैं रोजाना टरेसा के साथ स्कूल जाती थी। शब्बो ने मुझे कई बार टरेसा के साथ घूमते देखा था। शब्बो ने अमी के कान भर दिये थे, ''बहन, फल अपनी रंगत से तथा मनुष्य अपनी संगत से पहचाना जाता है। तुहारी लड़की की गलत सी किस्म की अंग्रेज लड़कीयों से ऊठक-बैठक है। रोको भई, खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। कल को कोई ऊंच-नीच हो गई तो ''ऊपर नीचे देखोगे।"

''अच्छा, ले बहन मैं अब समझ गयी। तुझे इससे ज्यादा कुछ और कहने की जरूरत नहीं है। तुहारा बहुत-बहुत शुक्रिया। अब मैं खुद ही कर लूंगी जो करना है।" शब्बो की चुगली से ताव में आई अमी ने घर आकर मेरी तो शामत ही ला दी थी, ''लड़की, तूं अंग्रेज लड़कीयों के साथ मत घूमा फिरा कर।

''तो क्या मैं अकेली रहा करूँ?"

''हां, बुरी संगत से तो आदमी अकेला ही अच्छा है, तथा मेरा मतलब यह नहीं था। तुम अपनी मुस्लिम नहीं तो भारतीय लड़कीयों के साथ मेल-जोल रखा करो।" अमी ने मुझे समझाया थ्रा।

''आप तो कल को कहेंगे कि सांस भी न लें? मैं नहीं। मेरी मर्जी है, मैं जिसके साथ मर्जी दोस्ती रखूं। हम गोरों के देश में क्या करने आये हैं, अगर गोरे-गोरीयां अच्छे नहीं लगते तो?" मैं अमी के सामने सीना तानकर खड़ी हो गई थी।

मी ने मेरे साथ नरम लहजा अपनाते हुये कहा था, ''अच्छा बाबा चाहे मेमों के साथ ही रह, लेकिन उनमें से शरीफ लड़कीयों से दोस्ती रख। इससे तेरा ही भला है। देख शाजीया पुत्र मैं एक मिसाल देती हूँ। जिस तरह संदूकों में पड़े कपड़ों को फिनाइल की गोलीयां टिड्डीयों के काटने से बचाती हैं, उसी तरह मां-बाप की शिक्षा तथा निगरानी बच्चे की जिंदगी को खराब होने तथा उसे बुरी संगत से बचाती है।"

मी के लाख समझाने पर भी उस समय मैंने अमी की बात नहीं मानी थी तथा अपनी मर्जी चलाई थी। बचपन की सहेलीयों का साथ मैं कैसे छोड़ सकती थी? एक तजुर्बेकार डाक्टर के पास मरीज की हर एक मर्ज का इलाज तथा गहरे मित्र के पास अपने दोस्त की हर मुश्किल का हल होता है तथा साथ ही अंग्रेजी में कहते हैं, ''ए प्राब्लम शेयरड इज ए प्राब्लम साल्वड" अर्थात किसी को समस्या बताने पर उसका हल निकल आता है। इसलिये मैं अपनी नजदीकी दो-चार सहेलीयों को अपनी गुत्थी सुलझाने का मौका देने के बारे में सोचकर उन्हें अपनी सारी व्यथा सुनाते हुये बताया था कि मेरी बहन का पाकिस्तान में रिश्ता तय हो चुका है तथा मेरे मां-बाप मेरा भी उसके साथ ही विवाह कर देना चाहते हैं।

''उसी लड़के के साथ ही?" सिंडी ने चौंककर मुझे पूछा था।

मैंने खीझकर उससे कहा था, ''नहीं, पागल, और लड़के के साथ।"

''अच्छा, मैंने तो सोचा था कि कहीं दोनों बहनों का एक के साथ ही विवाह कर रहे हैं। टू फॉर दा प्राइस ऑफ वन। तुहारे मुसलमान तो दो-दो, तीन-तीन बीबीयां रख सकते हैं।"

''अरे? सच में होता है ऐसे?" आइरीन को हैरानी हुई थी।

''और क्या नहीं।" मेरी जगह इजबल ने ही उत्तर दिया था।

टरेसा ने उत्सुक होकर पूछा था, ''औरतें भी दो तीन मर्द रख सकती होंगी?"

''नहीं, औरतों को इतनी छूट नहीं है। वे तो नमाज पढऩे मस्जिद में भी नहीं जा सकती...…।" इजबल भी बातचीत में पीछे नहीं रहना चाहती थी।

जब मैंने देखा कि मेरी अंग्रेज सहेलीयां तो बात को किसी और तरफ ले जा रही हैं तो मैंने उन्हें टोककर कहा, ''ये बातें छोड़ो, मेरी मुश्किल के बारे में कुछ सोचो?"

''सोचना क्या है? तूं जबाव दे देना कि मैंने इस तरह विवाह नहीं करवाना है।"

काफी देर से चुप बैठी ऐेंजला बोली थी।

मैंने आंखें भरकर अपनी विवशता प्रकट की थी, ''मेरे घर वाले बहुत सत हैं। वे मेरे ऊपर दबाव डाल रहे हैं।"

''अरे क्या कहा? तेरे मां-बाप तेरा जब्रदस्ती विवाह करना चाहते हैं? इस तरह करने का उन्हें कोई हक नहीं है। तुम भी हियूमिन बीइंग हो, तुहारे भी अरमान हैं। तेरे भी सपने हैं। मेरा कहा मान और घर छोड़कर हमारे पास आ जा। हम भी सोलह साल की होकर घर से निकल जायेंगी। मनमर्जी करना, कोई रोकने वाला नहीं होगा। चाहे पांच कर, चाहे पचास। मस्ती के लिये तेरे पास सारा जहां होगा। आधी-आधी रात तक क्लबों में रहना। यही जवानी के चार दिन खेलने-कूदने व ऐश करने के होते हैं। ''गोरा रंग टिब्बेयां दा रेता, नी हवा आई उड़ जाऊगा।" 
"बिल्लो रानी, अगर मेरा कहा मानेगी तो भर-भर कर मुठ्ठीयां बांट दे, गोरा रंग सदैव नहीं रहेगा। जिस ओर मर्जी करे जाना-आना। पक्षी आजाद आकाश में उडऩे के लिये होते हैं। पिंजरों में कैद होने के लिये नहीं। यू आर ए बिॅग गर्ल नाओ, घर से भागना ही एक रास्ता है। फोर्सड मैरिज से बचने का।" इजबल ने मेरे पास होकर बताया था।

फोर्सड मैरिज......जब्री निकाह...... धक्के से शादी...... सहेलीयों के द्वारा बातचीत में उभारा गया फोर्सड मैरिज का नुक्ता मेरे दिमाग में अटक कर रह गया था। यह फैसला तो मैं काफी समय पहले कर चुकी थी कि चाहे कुछ भी हो मैं इकबाल को ही अपना जीवनसाथी बनाऊंगी, धर्म हमारे संबंधों में रूकावट नहीं बनेगा। चाहे इसके लिये मुझे दुनियां से ही क्यों न टकराना पड़े। मैं टकराऊंगी, मामूली सी सोच विचार के बाद ही मैंने मानसिक तौर से अपने-आप को सहेलीयों की सलाह मानने के लिये तैयार कर लिया था। मनु स्मिृती में दर्ज है कि, ''जो कन्या अपने पिता के द्वारा लायक व मनपसंद वर की तलाश न करने पर अपने आप ही किसी योग्य वर से अपना विवाह करवा लेती है। वह कन्या व उसका पति किसी प्रकार के दोष के भागीदार नहीं होते।" 

मेरे इकबाल के साथ शादी करने का फैसला लेने में ये पंक्तियां बहुत सहायक रही हो थीं।

मैं कई दिन अपनी सहेलीयों से किये गये विचार-विमर्श पर विचार करती रही थी। मैं सोचती थी कि कितनी ऐश करती हैं ये अंग्रेज औरतें। हमारी औरतें तो बच्चे पालते, घरों के काम-धंधे करती ही मर जाती हैं। मर्द बाहर आये दिन नई औरतों के साथ सोते हैं। औरत देवता समझकर पूजती रहती है। सबसे बड़ी बात अंग्रेज लोगों को तो अपना जीवनसाथी खुद चुनने का हक है। मां-बाप बच्चों पर अपनी पसंद नहीं लादते। आम तौर पर तो जब बच्चा सोलह साल का होता है तो अंग्रेज मां-बाप कह देते हैं कि, ''जा अपना कमा व खा।"

अंग्रेज लड़के व लड़की में कोई फर्क नहीं करते। हमारे लोग जवान हो चुकी या हो रही लड़कीयों पर घर से बाहर जाने पर पाबंदी लगाकर रखते हैं तथा लड़के जहां मर्जी धक्के खाते फिरें, उन्हें बिल्कुल नहीं रोका जाता। लेकिन जब लड़की जवान हो जाये तो उसे फटाफट घर से निकालने पर विचार शुरू कर देते हैं। कहते हैं कि वह कौनसा समय हो जब लड़की को ब्याह कर उसके ससुराल भेज दें तथा लड़के को शादी करके घर पर ही रखते हैं। लड़की का ब्याह होते ही उसके लिये मायके घर के दरवाजे बंद हो जाते हैं। वह घर यहां पर उसका पालन-पोषण हुआ होता है, यहां खेल कर उसने बचपन बिताया होता है। वह जवान हुई होती है, वही घर उसके लिये पराया हो जाता है। शादी के बाद अगर कहीं वह अपने पति से गुस्से-नाराज होकर भी आ जाये तो उसे अपने मायके घर नहीं रहने दिया जाता। इसी लिये बहुत सी औरतें अपने पतियों से जूते खाकर भी उनके साथ ही रहने को मजबूर होती हैं। और वे जायें भी कहां? मायके के तो उनके लिये दरवाजे बंद होते हैं। जन्म से लेकर मौत तक औरतों के साथ हमारे समाज में भेदभाव-ही-भेदभाव किये जाते हैं। पराया धन कहकर उन्हें अपमानित किया जाता है। मायके में उसे मनमर्जी से जीने नहीं दिया जाता तथा ससुराल में सुख की सांस नहीं लेने दी जाती।

नाजीया की एक सहेली होती थी, तलविंदर, उसने अपने मां-बाप से बाल कटवाने की इजाजत मांगी थी। उसके मां-बाप ने यह कहकर मना कर दिया था, ''जब तेरी शादी हो गई, अपने पति के घर जाकर जो मर्जी कर लेना। यहां नहीं कटवा सकती। सिखों की लड़कीयां बाल नहीं कटवाया करतीं।"

फिर उस लड़की की शादी हो गई थी। उसने अपनी ससुराल में बाल कटवाने की इच्छा जाहिर की तो आगे से जबाव मिला, ''अपने मायके में जो मर्जी करती रही हो, हमारे घर में तेरी मर्जी नहीं चल सकती। हमारे कहे अनुसार ही चलना पड़ेगा। हमारे खानदान की बहू-बेटीयां चोटी नहीं कटवाती।"

अब बताओ अभागी औरत क्या करे?.....हमारे मजहब में जब बच्चा पैदा होता है तो उसके नाम से उसके जन्म से सात दिन बाद जानवर जिबहा किया जाता है। इस रस्म को ''अकीका" कहते हैं। उसके बाद सिर के बाल उतार कर उसके बराबर वजन के सोने या चांदी की खैरात गरीबों में बांटी जाती है। सब धार्मिक रस्में पूरी करने के बाद अकीके का गोश्त यारों-दोस्तों तथा सगे संबंधियों में बांटा जाता है। हमारे भाईचारे में जब किसी के लड़का पैदा होता है तो दो बकरीयों या भेड़ों की कुर्बानी दी जाती है। अगर लड़की हो तो एक जानवर मारा जाता है। इस भेदभाक की भी मुझे समझ नहीं आती कि लड़की के लिये कम खुशी क्यों? लड़कों तथा लड़कियों के लिये हमारे समाज में दोगली नीति है। हमारे घर का माहौल भी इसी किस्म का था। मेरी अमी मेरे भाईयों को चमच भर-भरकर देसी घी दाल में डालकर खिलाती थी। लड़कों की खुराक का खास याल रखा जाता था। हमसे चोरी वे अमी के पास रसोई में घुसकर ही खोये की पिन्नीयां खा जाते तथा अमी की चुनरी से मुँह पोंछकर बाहर आ जाते। सलीम जब ऊंट की तरह जुगाली करते हुये निवाले से भरा मुँह लेकर बाहर आता तो हम सभी बहनों को इस बात का पता लग जाता कि वह रसोई में कुछ खाकर आया है। इस मामले में नाजीया तो अमी को सामने ही कह देती थी, ''अमी हम नहीं खायेंगी, आप इन्हें हमारे सामने ही भरपेट खिला दिया करो।"

मक्खन की पूरी टिक्की परांठे पर रखकर खा जाता था गफूर। पाकिस्तान से आई देसी शक्कर में चूरी कूटकर देती थी हमारी अमी उसे खाने के लिये। मुझसे तीन साल छोटा था फिर भी मुझसे तगड़ा व जवान लगता था। कभी खेल-खेल में कुश्ती करने लग जाते तो वह हम तीनों बहनों को चित्त कर देता था। उससे छोटा सलीम भी फटने पर आया हुआ था। उसके थुलथुल शरीर पर तो बैल्ट ही नहीं लगती थी। आये दिन उसके कपड़े तंग हो जाते थे तथा हम तीनों बहनें सूखी तीली जैसी थी। हमारी खुराक की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था।

जब हम छोटे होते थे तो गली-मुहल्ले के बच्चों के साथ मिलकर हम बारिश में खेलने लग जाते थे। बरसात के पानी में खूब नहाना। ऐसा करते समय अंग्रेजों के बच्चों की तरह मेरे भाई ने भी अपने सारे कपड़े उतारकर नंग-धड़ंग होकर सड़कों पर दौड़ लगाते घूमना। अपनी उम्र के लड़के-लड़कीयों को कपड़े उतारे देखकर मेरा दिल करता कि मैं भी अपने वस्त्र उतारकर अपने बगीचे में बारिश में नाचूं ताकि अपने नग्न शरीर पर बंदूक की गोलीयों की तरह आ-आकर लगने वाली बरसात की बूंदों का मजा ले सकूं। लेकिन मेरे मां-बाप मेरी इस आरजू को पूरा नहीं करने देते थे। मेरा भाई तो लड़का होने के कारण अपनी कमीज उतार सकता था लेकिन मैं लड़की होने के कारण अपना जंपर नहीं उतार सकती थी। अमी डांटकर कहती, ''नहीं, लड़कीयां कपड़े नहीं उतारा करतीं।"
  
मुझे अपने मां-बाप की ओर से किया जाता यह लिंग-भेदभाव बहुत बुरा लगता था।

दिल में इस किस्म के विचार तथा हीन-भावना उपजने से मेरे अंदर बदलाव आना लाजिमी था। एकाएक मुझे देसी सयाचार में कमीयां ही कमीयां नजर आने लगीं। मुझे पश्चिमी के मुकाबले पूर्वी सयता बौनी-बौनी लग रही थी। दोहरे मापदंड वाले हमारे देसी मुयाशरे तथा हमारे रीति-रिवाजों से मुझे बहुत घृणा होने लगी थी।

बाकी मुझे हर समय सहेलीयों के द्वारा लगाई जा रही अंगुलीयों का भी तो असर होना ही था। पानी की बूंद लगातार गिरती रहे तो पत्थर पर भी निशान पडऩे लगता है। उसके ऊपर उतनी जगह पर गॅढढा पड़ जाता है। जब मेरी सहेलीयों के पास खाली समय होता तो मेरे दुखों की दास्तान छेड़कर बैठ जाती तथा मुझे अपनी अच्छी सलाहें देती रहतीं। मुझे अंगुलीयां लगातार उत्तेजित करती रहतीं।

मानव शरीर की रचना करते समय ही प्रमात्मा ने इसमें बागी तत्व भर दिये थे। हमें सैक्स ऐजुकेशन में पढ़ाया गया था कि हर नर व मादा के अन्दर बनने वाला द्रव्य जो संभोग से खारिज होता है। उसका बहना लाजमी होता है। उसे रोककर नहीं रखना चाहिये। प्रत्येक लड़का या लड़की अगर सैक्स नहीं करते तो उन्हें सप्ताह में कम-से-कम एक बार हाथरसी तो जरूर करनी चाहिये। अगर ऐसा न किया जाये तो शरीर में बनने वाला द्रव्य पदार्थ स्वप्न दोष के माध्यम से बगावत करके बाहर निकल जायेगा। इसी तरह हमारे शरीर के बाकी हिस्से भी काम करते हैं। जब हमें कोई काम करने से रोका जाये तो हम उसे अवश्य ही करते हैं। एक बार विद्वान सिगमंड फ्रायड अपनी पत्नि व बच्चे के साथ किसी बाग में घूम रहे थे। घूमते हुये कहीं उनका बच्चा उनसे बिछुड़ गया। जब फ्रायड व उसकी पत्नि को बच्चे के बिछुडऩे का पता चला तो वे दोनों उसे ढूंढने लगे। उन्होंने बच्चे को सभी जगह देखा तथा ढूंढ-ढूंढकर पागल हो गये। बच्चा कहीं से भी नहीं मिला। आखिर में फ्रायड ने अपनी पत्नि से पूछा कि क्या कोई ऐसी जगह है, जहां जाने से उसने बच्चे को रोका हो?

इसके जबाव में फ्रायड की पत्नि ने कहा कि बच्चा बाग में लगे फव्वारे के पानी से खेलना चाहता था तथा उसने बच्चे को कपड़े गीले होने के डर से फव्वारे के पास जाने से रोका था।

यह सुनकर फ्रायड कहने लगे, ''चलो फिर वह उस फव्वारे के पास ही होगा।" 

जब उन्होंने जाकर देखा तो बच्चा सचमुच ही फव्वारे के पानी से खेल रहा था। फ्रायड ने इस घटना को लेकर इन्सानों की मानसिकता का विश्लेषण करते हुये बताया था कि इन्सान का दिमाग सीधा कम तथा उल्टा ज्यादा चलता है। इसे जिस काम से रोका जाये, ये वही करता है। बिल्कुल फ्रायड के बच्चे वाला ही मेरा हाल था।

मुझे घर के माहौल में भी घुटन ही घुटन महसूस होती थी। जानवरों से भी बदत्तर जीवन है देसी औरतों का। मेरा याल था कि यही हाल नाजीया का भी होगा। सबसे यही होता है, ''मैं अपने साथ हरगिज नहीं होने दूंगी।" मेरे अन्दर की जागृत औरत बोली थी।

विनोवा भावे का कहना है, ''तुहारी किस्मत तुहारे साथ है, जो शक्ति तथा सहायता आपको चाहिये, वह सारी शक्ति आपके अन्दर है, इसलिये अपनी किस्मत खुद बनाऊं।" 

इन अनमोल वचनों ने मेरी हौसला अफजाई की थी। मुझे उत्तेजित कर दिया था। मैं मन ही मन मां-बाप से बगावत करने का इरादा ही नहीं बल्कि दृढ़ निश्चय कर चुकी थी। एक तरह से मैं दिल से तो बागी हो ही चुकी थी। बस इसका एलान करना तथा इसे सर अंजाम देना बाकी था।

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