Monday 4 May 2015

17 कांड- सिविल वार/गृह-युद्ध


मैंने स्कॉटलैंड आकर जी-जान लगाकर पूरी मेहनत से काम लिया था, पहले तो फैक्टरीयों, दुकानों में जो काम धन्धा मिलता, कर लेती थी, फिर लगभग एक साल बाद मुझे एक अस्पताल में जमादारी की पक्की नौकरी मिल गई थी, मैं साल-दर-साल काम किये जा रही थी तथा पौंड कमा रही थी, मैं कंजूस भी बहुत थी, इसी कंजूसी से मैंने काफी सारा धन अपनी तनखवाह में से इकट्ठा कर लिया था, क्या पता होता है कि भविष्य में दौलत की कब जरूरत पड़ जो? इसी तरह से अपनी मेहनत की कमाई से मैंने लगभग सात सालों में अपना घर भी खरीद लिया था, वैसे तो वीविया के घर में भी हमें कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन फिर भी अपना घर आखिर अपना ही होता है।


आर्थिक पक्ष से मैंने अपने पैर मजबूत कर लिये थे, इस तरफ से मुझे कोई फिक्र नहीं था, लेकिन फिर भी मुझे तसल्ली व चैन नहीं था, क्योंकि धन ही तो सब कुछ नहीं होता न? और बहुत कुछ जो मेरे हाथ से छिन गया था, अब मुझे दुबारा हासिल नहीं हो सकता था। बिछुड़े हुये माँ-बाप, बहन, भाई तथा महबूब मुझे अब नहीं मिल सकते थे। अपनी जिंदगी के सबसे कीमती साल मैंने गंवा लिये थे। सयाने लोगों ने सच ही कहा है, ''हुस्न, जवानी, मापे (माँ-बाप), तिन रंग नहींओं लभने", सिर्फ आर्थिक हालत ठीक होने से ही तो इन्सान का जीवन खुशहाल नहीं बनता। पारिवारिक जिंदगी के बगीचे में भी तो बहार आना जरूरी है, हमारा घर मकान कम व जंगी अखाड़ा ज्यादा था। हर समय औरत-मर्द के दरमियान सिविल वार अर्थात गृह युद्ध चलता रहता था, मैक्स के साथ मेरे संबंध दिन-ब-दिन बिगड़ते जा रहे थे।

इसका कारण दरअसल यह था कि काफी समय से बिस्तर में मैक्स की कारगुजारी कुछ खास नहीं थी, मैदान में उतरते ही वह ढेर हो जाता था, मेरे अनुसार तो यह उन चरस, अफीम, गांजा, हिरोइन, कोकीन, ब्राऊन शूगर, एक्टसी आदि नशों का परिणाम था जिनका मैक्स लंबे समय से सेवन कर रहा था। कुछ नहीं बचा था उसके अंदर खोखला हो चुका था वह बिल्कुल भी जान नहीं रही थी उसमें, उसके जैसे मर्द तो औरत की जान निकालकर रख देते हैं, तथा वे साहब बहादुर तो मुझे हाथ बाद में लगाते थे तथा हांफने पहले लग जाते थे, मैं किसी न किसी बहाने से उसे यह सब सुना भी देती थी कि तेरा क्या हाल हो चुका है? इस तरह एक बार मैक्स तो मेरे साथ खींचतान करके ठंडा होकर सो गया, लेकिन मेरा उस छोटी सी सैक्स रेस से कुछ नहीं हो पाया था, मैं चारपाई पर पड़ी तडफ़ रही थी, मैंने उसे अरबी भाषा में कह दिया, ''शुमा बाहिर-एे-मुंजमिद, मन बहिर-एे-उकियानूस", मैक्स कहने लगा कि इसका क्या मतलब है? मैंने कहा कि इसका मतलब है, ''तूं बर्फ का जमा हुआ समन्दर है तथा मैं खौलती हुई नहीं हूँ", सुनकर वह दूसरी ओर मुँह करके सो गया, मैंने ही उसे झिंझोड़कर बुला लिया, ''बोल, अब बोलता क्यों नहीं है तूं?"

''बोलूं क्या खाक? इसमें मेरा क्या कसूर है? तेरी ही (योनि) खुली हो गई है, मुझे अब वह पहले वाला आनंद नहीं आता।"

''खुली भी तो तूने ही की है", मैंने फट से उसे जबाव दिया था, ''अगर ज्यादा खोखली है तो खतना करवा लेती हूँ, हमारी आम मुस्लिम औरतों का होता है, ज्यादातर की तो यौवन में प्रवेश करते ही यह रस्म कर दी जाती है, मर्दाना लिंग के समानार्थक स्त्री के बाहरी जनन-अंग क्लइटोरिस, उसके साथ वाले कोमल अंग लैबीया मीनोरा, योनि की सुरक्षा करने वाले मांस के बाहरी व अन्दरूनी हिस्सों को काटकर डाक्टर अंगुली घुसने जितनी जगह (पेशाब व माहवारी के लिये) छोड़कर बाकी की सारी योनि टांके लगाकर सिल देते हैं, यह इसलिये किया जाता है कि औरत के अन्दर से लिंग की भूख को खत्म किया जा सके तथा मर्द को संपूर्ण संभोग स्वाद दिया जा सके, क्योंकि हमारी मुस्लिम औरतें बच्चे बहुत पैदा करती हैं, जिससे उनका काम-अंग चौड़ा हो जाता है, इस छोटे से आप्रेशन से वे फिर से आनन्दमयी सैक्स करने लायक हो जाती हैं, मेरी यह बात सुनकर मैक्स झट से बोला, ''फिर तो जल्दी से टांके लगवाने की कर।"

मैंने तभी उसे उत्तर देकर कहा, ''ठीक है, लेकिन मेरी एक शर्त है, अगर मैं खतना करवा लूं तो तुझे भी सुन्नत करवानी पड़ेगी, हमारे मर्द भी अपने लिंग से वस्त्र उतरवाते हैं, लिंग के किनारे पर टोपी अर्थात सुपारा को ढंकने वाले मांस गुल्फा को कटवा देने की रस्म को सुन्नत कहते हैं, पुराने समय में मर्दों से अपने गुप्त अंग की सफाई बगैरा में आलस करने के कारण कई प्रकार की बिमारियां व इन्फेकशन बगैरा हो जाती थी, वह मांस काटने के कारण गन्दगी बगैरा जमां नहीं हो पाती, इसलिये मुस्लमान को सुन्नत करवाने का फर्ज निभाने की सखत हिदायत की गई थी, वैज्ञानिक भी इस सुन्नत को हाइजैनिक मानते हैं, क्योंकि लिंग के सुपारा के पीछे गुल्फे के नीचे एक मैल रूपी पदार्थ समैगमा इकट्ठा हो जाता है, जिसमें खारिश, सोजिश तथा अन्य कई प्रकार की बिमारियां लग जाती हैं, सुन्नत करवाने से लिंग साफ रहता है तथा सैक्स के मजे में असीम बढ़ोत्तरी होती है।

इस रस्म का दूसरा अहम कार्य व मकसद काम की इच्छा उत्पन्न करने में बढ़ोत्तरी करना होता है। उस मांस का वस्त्र लिंग को सुस्त सा बनाए रखता है, इसलिये उसके उतरने पर लिंग आम तौर पर सत रहता है। हमेशा 'रैडी फॉर एक्शन' की मुद्रा में। इस तरह मनुष्य की कामुक भावनाएं जगाने के पीछे हमारे पैगंबरों का मकसद एक तो यही था कि इस्लामी लोग ज्यादा से ज्यादा काम क्रीड़ा करें तथा ज्यादा बच्चे पैदा हों, ताकि मुस्लमानों की संया बढ़ जाये तथा इस दुनियां में इस्लाम ज्यादा से ज्यादा फैले। क्योंकि ''ला इलाहा, इॅल अल्लाह", अर्थात दुनिया में अल्लाह के बिना और कोई भगवान नहीं है तथा सबको उसकी उपासना करनी चाहिये। दूसरा मकसद यह था कि लोग पहले भरपूर सैक्स करें तथा जल्दी से जल्दी इस व्यसन से ऊपर उठ जायें।

सुन्नत करने के बाद व्यक्ति की कमर के नीचे वाले हिस्से पर लाल-सुर्ख कपड़ा डाल दिया जाता है तथा आराम करने के लिये कहा जाता है, कुछ दिन में जम भर जाता है।

जब मैंने मैक्स को सुन्नत करने के बारे में जानकारी दी तो उसने साफ मना कर दिया, ''नहीं भई, मुझसे नहीं होगा यह काम।"

मैक्स की सैक्स में कमजोरी का सबसे ज्यादा प्रभाव हमारे आपसी संबंधों पर पड़ा था। संभोग विवाहित जीवन की रीड़ की हड्डी होता है। जब यह महत्वपूर्ण हड्डी टूट जाये तो बाकी का गृहस्थी रूपी शरीर भी बेकार हो जाता है तथा मौत का इन्तजार करने लगता है। हर दिन हम एक दूसरे से दूर होते जा रहे थे। जैसे टेकऑफ कर चुका जहाज एेअरपोर्ट से दूर होता जाता है। इस बात से भी कोई इन्कार नहीं किया जा सकता कि जब मर्द की शारीरिक तंदुरूस्ती जब कायम न रहे या उसमें कोई कमी (खासकर जब यह कमी संभोग से संबंधित हो) आ जाये तो वह हमेशा औरत के चरित्र पर शक करने लग जाता है। जिस व्यक्ति के हम हर समय साथ रहते हैं, उसमें आने वाले मामूली से मामूली बदलाव को हम फौरन पकड़ लेते हैं। दिन-व-दिन मैक्स का मेरे साथ व्यवहार बदलता जा रहा था। विक्टर हिओंगो ने एक जगह लिखा है, ''मर्दों के पास दृष्टि होती है, लेकिन औरतों के पास अन्तर-दृष्टि, एक छठी ज्ञान इन्द्री होती है।" 

शायद इसी गुण के कारण मैं भी मैक्स के अन्दर की बातों को जान लिया करती थी। अहसास तो मुझे पहले भी कई बार हुआ था कि मैक्स मुझ पर शक करता था, लेकिन मैंने इसे गंभीरता से न लेते हुये ज्यादा ध्यान नहीं दिया था।
एक दिन तो हद ही हो गई जब मैं खरीददारी करके बाजार से थक हार कर घर आई तो जनाब मैक्स साहब मेज पर टांगें पसारकर बैठे टेलीवीजन देख रहे थे। मुझे देखते ही मुंह फाड़कर कहने लगा, ''कुड़ती च  वल पै गया, केहड़े यार दी बुक्कल चों आई?"

मैंने इसे मजाक ही समझा, ''एक हो तो बताऊं, इतने यार हैं कि किसका नाम लूँ व किसका छोड़ूं? आज तो सभी को खुश करके आई हूँ।"

अपनी जगह से उठकर मैक्स मेरे पास आया तथा मेरे मूँह पर जोरदार चांटा जड़ दिया, ''जा, उन्हीं माँ के खसमों के पास ही रह जाकर,.....मेरे घर क्या करने आई है? चल दफा हो जा?"

मेरे बालों को अपने हाथों में लेकर खींचते हुये मैक्स ने मुझे बाहर धकेल दिया। एेसे ही एक बार पहले भी हुआ था। आधी रात का समय था। मैं तथा मैक्स प्यार करते-करते बहस करने लगे। मैक्स मुझे जो बेढ़ंगा काम जिस ढंग से करने को कह रहा था, उसे करने को मैं हरगिज तैयार नहीं थी। मैं क्या? कोई भी औरत उस तरह से न करे। काम तृप्ति के और बहुत साधन हैं। संभोग के सौ से ज्यादा आसन हैं। मैं उसे कहती रही कि आओ आदमियों की तरह करते हैं, मैं तेरी सारी कमी पूरी कर दूंगी, पूरी तरह खुश कर दूंगी, लेकिन.... यह बेढ़ंगा मुझ से नहीं होगा, इस तरह तो जानवर भी नहीं करते, मैंने मरना है क्या?"

मैक्स अपनी जिद्द छोडऩे को तैयार ही नहीं था। मैंने तंग आकर कह दिया, ''अच्छा, अगर नहीं तो नहीं ही सही।"

इस बात से गुस्से में आकर मैक्स ने मुझे गर्दन से पकड़कर खींच लिया था। मैंने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया तथा जमीन पर गिर गई। वह मुझे घसीटता हुआ बाहर तक ले गया। मुझे बाहर निकालकर दरवाजा बंद कर लिया। मैंने बहुत घंटीयां बजाई तथा दरवाजा खटखटाया व कहा, ''अगर अन्दर न आने देना चाहते तो कम से कम मेरे कपड़े तो दे दो। मैंने कुछ भी नहीं पहना है, कोई देखगा तो क्या कहेगा? मुझ पर कुछ तो तरस खाओ।"

''जब मेरा कहा मान जाओगी, मैं कपड़े भी दे दूंगा तथा अन्दर भी आने दूंगा।" मैक्स की यही जिद्द थी।

सारी रात मैंने बिल्कुल नग्न अवस्था में बाहर पोर्च में रहकर ही ठंड से ठिठुरते हुये ही काटी। इतना शुक्र है कि मैक्स ने मुझे पोर्च से बाहर नहीं निकाला था हमारी पोर्च के शीशे अपारदर्शी हैं, बाहर से कुछ दिखाई नहीं देता। अगर पोर्च से भी बाहर होती तो सारी दुनिया मुझे देखती। अंत में मैंने सुबह के समय मैक्स की शर्त मान ली तथा कहा, ''आज कर देती हूँ, आगे से मत कहना तथा न ही मैंने ऐसा करना है।"

दांतों में जीभ लेकर दुख झेलते हुये मैंने जैसे मैक्स ने कहा वैसे ही करके उससे पीछा छुड़ाया था। पता नहीं मुझे यह सब करते हुये देखकर उसे क्या मजा आया था। दिवानगी भरी उस हरकत से मेरा तो बुरा हाल हो गया था। बाजू जितनी बड़ी वह रबड़ की टयूब थी जिसका इसने मुझसे प्रयोग करवाया था।

उस दिन पहली बार मैंने ठंडे दिमाग से सोचा था कि घर मेरा है तथा मालिक ये बना बैठा है, क्यों? तथा फिर इस क्यों के उत्तर की तलाश करने के बाद मैं मैक्स को बहाने से कानून-केन्द्र ले गई थी। उन्होंने इसके कान खोल दिये थे। उन्होंने इसे बताया कि घर की मालिक ये है तुम नहीं। तुझे जब चाहे घर से बाहर निकाल सकती है। ये काम नहीं चल सकता कि चूहा बिल बनाता रहे तथा सांप उसमें मजे से रहता रहे। इससे मैक्स का दिमाग कुछ ठीक हो गया था, नहीं तो उसने तो हद ही कर रखी थी।

लगता था मैक्स फिर भूल गया था कि घर मेरा था, उसका नहीं। जो मुझे फिर से घर से निकालने की हिम्मत कर रहा था। मैक्स मुझे खींचकर दरवाजे तक ले गया था। मैंने नाखुन चुभाकर उससे अपने बाल छुड़वाये थे। ''घर तेरे बाप का नहीं, मेरा भी आधा हिस्सा है मौरगेज (कर्जे) में डीड के कागजों में मेरा नाम भी बोलता है। तेरा अकेले का ही नहीं बोलता। बता अगर आज तक एक भी किश्त तूने दी है तो....? अगर पुलिस के पास जाकर रिपोर्ट लिखवा दूं कि तुम मुझसे मार पीट करते हो तो तुझे घर से निकालकर सारे घर की आसानी से मालिक बन सकती हूं, सोच लो? कानून मेरे साथ है, आदमी बनकर रहना है या निकाल दूं बाहर?"

मेरी बात सुनकर मैक्स ढीला पड़ गया। मेरे बाल छोड़कर चुपचाप अन्दर आकर बैठ गया। मैंने कोट की जेब से रसीदें निकालकर उसके मुँह पर फेंकते हुये बताया कि, ''रोज करी-चपाती मांगते हो, शॉपिंग करती, मरती, तेरी जान को रोती आई हूँ। तू सूअर की तरह खाकर बर्तन लुढका देता है। निखट्टू काम का न काज का, दुश्मन अनाज का। राशन-पानी कभी लेकर आये हो?"
''मुझे कौनसा कोई कमाई है? मैं खर्च कहां से करूं?"

''तो क्या मेरा छापा खाना लगा है नोट छापने के लिये?"

मैक्स तैश में आकर बोला था, ''तूं तो काम करती है।"

''तुम भी करो फिर? कमाओ, तेरे क्या हाथ टूटे हुये हैं? सारे अंग-पैर सही सलामत हैं। सारा दिन पड़ा चारपाई ही तोड़ता है तूं। टी.वी. देखते समय बीयर पीता रहता है तूं, कॉच पटैटो़़़़! बाइबिल के नये टैस्टामैंट पढ़कर देख, उनमें साफ लिखा है, ''जो व्यक्ति काम नहीं करता, उसे खाना भी नहीं चाहिये, कुछ उसका ही असर कर।"

''खाने को क्या माल-पूये पकाती हो तुम? कार्न फलैक्स, चावल, रोटी या डबल रोटी ही खाता हूँ।"

मैं गुस्से में आ गई थी, ''जो पैस्ट्री, पीजा, चाऊ मीआऊं, पूरीयां, भटुरे खिलाती हूँ, वह भूल गया तूं? शर्म कर, मैंने तुझे सारी उम्र खिलाया है, तेरे जैसे  निकम्मा मे की पत्नि बने रहने से तो मैं किसी अच्छे व्यक्ति की रखैल बन जाती तो अच्छा रहता। सारी उम्र तूने अब तक मेरे सिर पर एेश की है। मैं औरत होकर नौकरी करती हूँ, तुम नहीं कमा सकते?"

''तुम औरत होने के कारण ही कमा लेती हो, मेरी तरह मर्द होती तो तुझे भी कोई फूटी कौड़ी नहीं देता।"

''क्या मतलब है तुम्हारा?"

''वही जो तुम समझ रही हो।"

''एेसे काम करती तो अब तक तुम्हारे साथ ही नहीं लटकी रहती, अब तक पचासों व्यक्ति बदल लेती। अस्पताल में मरीजों की उल्टीयों-टट्टीयों से गंदे कपड़े न साफ करती। फर्शों पर पौंछे मारती हूँ, सुबह से शाम तक शरीर तोड़कर दोनों हाथों से मेहनत करती हूँ। जिस्म तो मैंने तब भी नहीं बेचा था, जब इसकी मुँह मांगी कीमत मिलती थी। अब तो वह पहले वाली बात ही नहीं रही.... मेरी तो शक्ल ही बदल गई है…." मेरा मन भर गया तथा मैं कुछ और बोल नहीं सकी थी। रोती हुई बाथरूम में चली गई तथा वाश बेसिन पर खड़ी होकर सीसे में अपने आपको देख-देखकर रोती रही। मैक्स मेरे रोती के हिचकोले सुनता रहा था। उसने न तो मुझे रोने से रोका, न ही चुप करवाया तथा न ही मेरे पास आया। बस उस दिन से इस सनकी व्यक्ति की झिझक उठ गई थी। पहले वह मुझ पर अन्दरखाते शक करता था, फिर खुलकर सरेआम करने लग गया था। मैक्स ने चौबीस घंटे मेरे ऊपर अपनी निगरानी की तोप तान रखी थी। घर होती तो नाक में दम करके रखता, बाहर जाती तो चोरी-छिपे मेरा पीछा करता, कहां गई थी? कहां से आई हो? पुलिस वालों की तरह पूछ-पड़ताल करता, मिनट-मिनट का हिसाब मुझसे मांगता, अगर जरा भी बाहर जाने पर देर हो जाती तो मुझे खाने को दौड़ता, कभी-कभी तो गुस्से में आकर चमड़े की बैल्ट से पीटने लग जाता, पीट-पीट कर मेरे हाड तोड़ देता।

मेरे साथ काम करने वालों से ततीश करता रहता, मैं किस-किस के साथ काम के समय बातचीत करती हूँ? किसके साथ मेरा मेल-जोल था? किसी के साथ फंसी तो नहीं हुई? जब मैं घर पर होती तो बाहर से आते ही घर की तलाशी लेनी शुरू कर देता, कभी दरवाजे के पीछे देखता, कभी स्टोर में देखता, कभी अल्मारियां खोलकर देखता, सारे कमरों में तांक-झांक करता, कई दिन इस तरह से करता रहा। मुझे कुछ भी पता नहीं था कि वह एेसा व्यवहार क्यों करता था। एक दिन मुझसे रहा नहीं गया तथा मैंने पूछ ही लिया, ''क्या गुम हो गया है? बताओ मैं कुछ मदद कर दूं?"

मेरी ओर कड़वी आँख से देखकर वह बोला था, ''आदमी ढूंढता हूँ, मुझे पता है, मेरे पीछे तुम्हारे पास आदमी आते हैं, बता कहां छिपाती है अपने आशिकों को?"

''ढूंढ लो, जब मिल जाये मुझे भी मिलवा देना ताकि तुझ से तो पीछा छूटे, यमदूत से", मैंने भी गुस्से में उसे सौ की एक सुना दी थी। मैंने उसकी कोई परवाह नहीं की थी, चाहे घुटने में लगी या टखने में, उसकी मूर्खता पर मुझे हंसी भी आई थी। मुझे मजाक उड़ाते देखकर मैक्स को और कोई बात नहीं आई तो जहरीले सांप की तरह फर्राटे मारने लगा, ''कान खोलकर सुन ले, अगर तेरे साथ कोई मुसला (मुस्लमान) रंग-रलीयां मनाता पकड़ लिया तो दोनों को जिंदा धरती में गाड़ दूंगा।"

मैं कुछ नहीं बोली थी। मैं समझ गई थी कि उसे मानसिक रोग ने जकड़ लिया था। शक के अधरंग ने उसके दिमाग में थोड़ी खराबी पैदा नहीं की थी, बल्कि सारे का सारा दिमाग  मुक़म्मिल तौर से नकारा, बिल्कुल पैरालाइज्ड करके रख दिया था। मैं यह तर्क भी जानती थी कि सारे मानसिक रोग पेचीदा होते हैं तथा छोटे-से-छोटे रोग को भी दूर होने में सालों-साल लग जाते हैं। पांच- छ: साल तक दवाईयां खानी पड़ती हैं। पागलपन के दौरे पडऩे लग जायें तो बिजली के झटके भी देने पड़ सकते हैं। हिप्नोसिस (दवाईयों से), साइकोथैरेपी तथा और बढ़ा कुछ करना पड़ता है, रोगी को तंदुरूस्त करने के लिये। इसलिये मैक्स के साथ बहस तथा तकरार के समय मैं अपनी सूझबूझ से चुप करके अपना पीछा छुड़ा लेती थी। मैक्स बाहर से आता, तलाशी लेता तथा जब कुछ नहीं मिलता तो मुँह लटकाकर बैठ जाता। मुझे खीझ तो बहुत आती लेकिन मैं गुस्से को अन्दर ही पी जाती। मैं सच्ची-सुच्ची व नेक इरादे वाली थी। मेरे पास कौन सा कोई आता था, या मेरे किसी और मर्द से संबंध थे, जो मैं डरती या हंगामा खड़ा करती। मैं इस तरह मैक्स की छोटी मोटी गुस्ताखीयां उसे माफ कर देती थी। कुछ महीने आराम से व्यतीत हो गये थे। हमने अपने बीच धक्के से अमन-चैन कायम कर रखा था।

एक दिन मैक्स बाहर से आया तथा तलाशी लेना भूल गया। आते ही रसोई में गया तथा बर्तनों में से कप उठाकर ध्यान से देखने लगा, मैंने मजाक में उसे छेड़ दिया, ''क्या अब मैं अपने यारों को चाय वाले कप में छिपाने लगी हूँ?"

मेरी बात का जबाव तो क्या देना था? वह तो मुझे मुक्कों से मारने लगा, कहने लगा, ''बर्तन अच्छी तरह से साफ करके नहीं रखती हो, उनमें फेयरी (बर्तन साफ करने वाली दवा) लगी होती है।"

मैंने अपनी सफाई में कहा, ''अपने मन से तो मैं अच्छी तरह धोती हूँ, अन्जाने में थोड़ी-बहुत लगी रह गई होगी।"

''रह नहीं गई होगी, एेसा कहो कि जान-बूझकर छोड़ी है? मुझे मारना चाहती हो, यारों से मिलने का रास्ता साफ करना चाहती हो।"

ला-हौल-बिला-कुव्वत। मैक्स ने वह गन्दगी भरी बातें कहीं जो मैं ब्यान नहीं कर सकती। वह सब सुनने से पहले मेरे कान क्यों नहीं फट गये? या मैं मर क्यों नहीं गई? पति की लंबी उम्र की दुआएं मांगने वाली औरत भी क्या कभी विधवा होना चाहती है?

और तो और, रात को सपने में भी मैक्स मेरे सिर से अपनी शक की तलवार नहीं उठाता था। सोते से उठकर एक रात में कई-कई बार चारपाई के नीचे देखना मैक्स की आदत बन गई थी। जब मैं तांक-झांक का कारण पूछती तो वह बहाना बनाता, ''जूते ढूंढ रहा हूँ, बाथरूम जाना है।"

एक रात सोते हुये मैंने उसके सारे जूते चारपाई के पास टिकाकर रख दिये ताकि अगर वह रात को उठकर खड़ा हो तो जो मर्जी जूती पहन ले। आधी रात को मेरी आंख खुली तो मैंने देखा कि मैक्स गर्दन नीची करके चारपाई ∙े नीचे कुछ ढूंढ रहा है। मैंने उसे सुनाकर कहा, ''जूते तो तुम्हारे बाहर पड़े हैं,... निकाल ले खींचकर मेरे यार को जो नीचे छिपा है?"

भागने को रास्ता नहीं मिला था उसे। आएं-बाएं सा कर रहा था। मैं भी सीधी हो गई थी, ''बिना मतलब के साथी पर शक करने को डाक्टर रोग मानते हैं, मुझे लगता है तुझे भी हिस्टीरीया हो गया है, किसी साईकैटरिक को दिखा लें।"

मैक्स में तिनका भी नहीं रहा था, पानी-पानी हो गया था, चारपाई पर लेटता हुआ वह बोला, ''तुम तो हर समय लड़ाई ढूंढती रहती हो, मैं तो पानी पीने लगा था।"

मैंने सोचा ऊंठ पहाड़ के नीचे आया हुआ है। छलांग लगाकर उसकी पीठ पर सवार होने का सही मौका है। नहीं तो ऊंचे ऊंट पर फिर नहीं चढ़ा जा सकेगा। ''चारपाई के नीचे कौनसा नल लगा है या फिर नहर चलती है? पानी पीना है तो रसोई में से पी। ज्यादा तेज मत बन, मैं सब जानती हूँ, तेरी नस-नस से वाकिफ हूँ मैं, कानों से मैल निकालकर सुनले, अगर मैं दिन-दिहाड़े मां-बाप के घर से भागकर आ सकती हूँ तो तेरे घर से भी भरी दोपहर डंके की चोट पर जा सकती हूँ। इसके साथ ही और सुनले अगर मैंने किसी के साथ भागना ही है तो तुम तो क्या तुम्हातुरे फरिश्ते भी मुझे रोक नहीं सकते। पठान तेरे जैसे बौने नहीं होते, जो छोटे से घर में छिपाने से छिप जायेंगे। उन खंभे जैसों को तो छिपाने के लिये मिलेनियम डैम भी छोटा पड़ जाये।" मैं आधा-पौना घंटा मन आया बोलती रही थी, मेरे सामने मैक्स की आवाज तक नहीं निकली थी, जैसे मुँह में जुबान तक ही न हो।

ढीली टूंटी में से गिरती पानी की बूंदों की तरह मेरी उम्र के साल भी मेरी जिंदगी में से कम होते जा रहे थे। मैं मैक्स की ज्यादतियां झेलकर भी खुशी-खुशी अपना जीवन व्यतीत कर रही थी।

एक बार हमारे घर की बिजली खराब हो गई। कोई भी लाईट काम नहीं कर रही थी। लगाते ही नये बल्ब का पटाखा बोल जाता, मेन फियूज उड़ जाता, इस समस्या का कारण बाद में बिजली मैकेनिक से पता चला कि सप्लाई वाली कोई तार टूटकर विरोधी नंगी तार पर जा गिरी थी। बिजली की धातु वाली तारों पर रबड़ चढ़ी होती है। जैसे हमारे कपड़े होते हैं, ऐसे ही यह रबड़ तारों का वस्त्र होती है। हमारे घर दिवार में बिजली की सप्लाई वाली तारों के पास ही पानी वाली पाइपें भी दबाई हुई थीं। गर्म पानी की पाईप के सेंक से बिजली की तारों की रबड़ पिघल गई तथा नंगी तारें आपस में जुड़ गई थी। एक तार अपनी उस विरोधी तार से जा मिली थी, जिससे उसे दूर रहना चाहिये था। स्विच दबाते ही जब करंट का संचार उन तारों में होता था तो 'शार्ट-सर्किट' होने के कारण फियूज उड़ जाता था। तारों को मैकेनिक के द्वारा जैसे जोड़ा गया हो, अगर वे वैसे ही कार्य करें तो बिजली उपकरण तसल्ली बश काम करते हैं, अगर तारें बिजली मैकेनिक की योजना को नजर अंदाज करती हैं तो सिर्फ फियूज ही नहीं उड़ता बल्कि कई बार तो तारों व स्विच सहित सारी की सारी बिजली फिटिंग ही जल जाती है, घर में पूरी तरह से अन्धेरा छा जाता है, कई मामलों में तो यह भी देखने को मिलता है कि बिजली की तारों में से निकली चिंगारी से आग जोर पकड़ गई तथा कुछ ही मिनटों में पूरे का पूरा घर ही जलकर राख हो गया।

जब एक सही व एक गलत किस्म के आदमी व औरत आपस में जुड़ जायें तो उनका मिलाप ज्यादा देर तक नहीं चलता, उनकी जिंदगी में भी शार्ट-सर्किट होकर रूकावट आ ही जाती है।

आज के दौर में तथा खास कर इस देश का रहन-सहन ही इस तरह का बन गया है कि मिनट-मिनट पर बिजली की जरूरत पड़ती है। मेरे काम वाली सुपरवाइजरस का आदेश है कि साफ-सुथरे व प्रैस किये कपड़े पहन कर आओ। मैले-कुचैले कपड़े पहने हों तो डाक्टर गुस्से होकर कहते हैं, ''मरीजों के पास बिमार बनकर आ गए हो, वे ठीक क्या खाक होंगे? सुन्दर व साफ कपड़े पहनकर चुस्त बनकर आया करो।"

मेरी कपड़े धोने व प्रैस करने वाली दोनों मशीनें बिजली से चलती हैं। पिछले दो दिन से मैं मैले व सिलवटों वाले कपड़े पहनकर डियूटी पर जाती रही थी। मेरे कपड़े देखकर एक नर्स ने मुझे मजाक भी किया था, ''शैज, ये कपड़े तो घड़े में से निकालकर पहने हुये लगते हैं?"

मैं नर्स को क्या बताती कि हमारी बिजली खराब है? मैंने हंस कर बात आई-गई करदी थी। उस दिन घर आते ही पहले तो मैंने काम वाले कपड़े धुले। यह धोने-धुलाने का काम तो व्यक्ति वाशिंग मशीन के बिना भी चला सकता है। हाथों से कपड़े धुल सकते हैं, लेकिन प्रैस कैसे होगी? फिर इसका भी मैंने हल खोजा ।  पहले-पहल शौकीन लोग गर्म समतल वस्तु से ही कपड़ों की सिलवटें निकाला करते थे। शायद इसी से कपड़े प्रैस करने वाली इस्त्री की खोज हुई होगी। इसी तरह बर्तन में गर्म कोयले डालकर उससे कपड़ों के सिलवट निकाले जाते थे। यह सब करते समय मुझे जो तकलीफ हुई उसे तो पूछो ही मत। सेंक लगने से मेरी अंगुलीयां झुलस गई थीं। मैंने तो सोचा भई आदमी 'करपल फ्री' कपड़े ही ले ले। यह हर बार धोने के बाद प्रैस करने के झंझट से तो छुटकारा मिले। उन दिनों में यह कपड़े अभी नये ही चलन में आये थे। इन कपड़ों में खास किस्म के धागे से बुनाई की जाती थी तथा इनकी खासियत यह होती थी कि कपड़े को जितना भी मर्जी गुच्छम-गुच्छा कर लो, कपड़े में एक भी सिलवट नहीं पड़ती थी। चाहे सारी रात तकिये के नीचे रखने के बाद सुबह निकालकर पहन लो, प्रैस करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। इस किस्म के कपड़े महंगे थे, नहीं तो मैंने खरीदने में बिल्कुल समय नहीं लगाना था। इस तरह हमारे घर के और भी बहुत से काम बिजली के बिना रूक गये थे।

दो तीन दिन बीत गये थे, हमारी बिजली खराब हुये। मैक्स को तो कोई चिंता नहीं थी। मैक्स ने बिजली ठीक करवाने के लिये कोई यत्न नहीं किया था। लेकिन मुझे चिंता थी कि कितने दिन अन्धेरा ढोते रहेंगे हम लोग? अगर मैक्स खुद कुछ नहीं करता तो मैं ही कुछ कहूं उसे, ''बिजली ठीक नहीं करवानी क्या?" 

कोई मैकेनिक जानकार है तो बुलाकर ठीक करवा लो?

कोई उपाय तो क्या करना था बल्कि मैक्स मुझसे उखड़कर बोला, ''मुझे नहीं जानता कोई, मैं किसे बुलाऊं? मेरे साले लगते हैं?"

''मेरी ससुराल वाले हैं जो मैं बुला लूंगी? 'यैलो पेजेज' में से देखकर फोन करदे किसी को? सैंकड़ों मैकेनिकों के इश्तेहार होते हैं उसमें।"

''तेरे हाथों में कोई मेहंदी लगी है? तू कर ले? आधे की मालकिन हो, मेरा क्या है फकीरों का, जब चाहे तूं मुझे घर से निकाल सकती हो?"

''मैं समझ गई थी कि मैक्स कहां से बोल रहा है। मैंने लड़ाई बढ़ाना ठीक नहीं समझा तथा चुप-चाप स्थानीय स्कॉटिश बिजली बोर्ड को फोन करके मैकेनिक से अपाइंटमेंट फिक्स करदी थी। मैंने तो उस समय काम पर होना था। इसलिये मैंने मैक्स को मैकेनिक के घर पर आने के समय पर वहां रहने की ताडऩा की थी।

मैकेनिक कहीं ट्रैफिक में फंस जाने के कारण तय समय से लेट हो गया था। मैक्स साहब ने दस बीस मिनट इन्तजार किया होगा तथा जब वह नहीं आया तो जुआ खेलने चले गये। मैक्स घर से निकला ही होगा तथा उसी समय मैकेनिक पहुँच गया था। इत्तफाक से बिमार होने के कारण काम से छुट्टी लेकर मैं घर आ गई थी तो मैकेनिक दरवाजा खटखटा रहा था। कोई अन्दर होता तो दरवाजा खोलता। कई दिन से अच्छी तरह से न सोने के कारण मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा था। मैं अंदर जाकर मैकेनिक को स्विच बोर्ड दिखाकर वहां पास ही चॅद्दर लेकर सोफे पर लेट गई थी। मुझे डर था कि मैकेनिक हमारे घर से कुछ उठाकर अपने बैग में ही न डाल ले। सुनने में आता था कि मैकेनिक मुरमत करने के बहाने आकर चोरी करके चले जाते थे।

लेटने पर मेरी आंख लग गई थी। घोड़ों की रेस में सारी नकदी हारकर मैक्स भी बैटिंग शॉप से जल्दी घर आ गया था। मैक्स दरवाजे पर खड़ा धीरे-धीरे चाबी ढूंढ रहा था। मैकेनिक ने सोचा कोई हमारे घर आया है। उसने मुझे जगाने के लिये अपना हाथ आगे बढ़ाया ही था, तब तक मैक्स चाबी से दरवाजा खोलकर अन्दर आ गया था। मुझे दरवाजे की खटखटाहट सुनकर जाग आ गई थी तथा मैं उठकर बैठ गई थी। मैकेनिक ने रास्ते से ही अपना हाथ पीछे खींच लिया था, उसकी तो अंगुली भी मुझे छू नहीं पाई थी। मैक्स ने मैकेनिक की मेरे शरीर की ओर उठी हुई अंगुली देख ली थी। बस फिर क्या था। उसने तो चढ़ाई कर दी थी। उसने न कुछ पूछा न बताया, बस कपड़ों से बाहर हो गया। वहम का कोई इलाज थोड़ा है? बिजली वाला बेचारा अपना काम करने लग गया था तथा मैक्स आते ही उससे गुत्थम गुॅत्था हो गया था। मुझ पर हाथ जो खुला हुआ था। ये उसके मुक्के मारने लगा तथा वह इसके। बॉक्सिंग वालों की तरह दोनों लड़ रहे थे, गुत्थमगुॅथा हो गये थे दोनों, मैक्स इतना मूर्ख निकला कि उसकी तो सुने ही नहीं, बस अपने ही घोड़े दौड़ाये जा रहा था। मैकेनिक ने अपना शिनाती कार्ड भी दिखाया। इस बिगड़ैल सांढ को कहां सुॅध-बुॅध थी। मैं पास जाकर छुड़ाने लगी तो उस भाई का प्लायर उठाकर मेरे मुँह पर मार दिया। मेरे होंठ से खून निकलने लगा तथा मैं उनके बीच से हट गई थी। इतना शुक्र कि मेरे दांत नहीं टूटे थे।

पुराने समय में तलवारों-भलों की लड़ाईयां हुआ करती थीं। लोग युद्ध में लोहे के वस्त्र पहनकर जाया करते थे। उन्हें दुश्मन के वार से रक्षा करने वाला कवच कहा जाता था। कवच को पहनने वाले के शरीर में हथियार चुभ नहीं सकते थे। आजकल उसकी जगह बुलेट-प्रूफ जैकटों ने ले ली है। जिन्हें नेता लोग पहनते हैं, गोली से बचने के लिये। अपने होंठों पर जम करवाकर मैं सोच रही थी कि मैं आदमियों की लड़ाई के बीच आई ही क्यों? अगर आना ही था तो कवच पहनकर आती ताकि बचाव तो हो जाता। जब काफी समय तक मैक्स ने लडऩा बंद नहीं किया तो मैंने कहा, ''उतार लो अपने मन की इच्छा, खुद मरो या सामने वाले को मार दो, स्यापा खत्म ∙ रो।"

काफी समय तक झगड़ा होने के बाद धक्का-मुक्की करके मैक्स ने उस मैकेनिक को बाहर निकालकर दरवाजा अन्दर से बंद कर लिया तथा मुझ पर टूट पड़ा। ठोकरें मार-मारकर मेरा बुरा हाल कर दिया था, ''देखा? पकड़ लिया न आज? शरीफ बनती थी? रूक जा, बनाता हूँ तुम्हारी भुर्जी…।"

मुझे कुटापा चढ़ाने के लिये मैक्स किसी हथियार को ढूंढ ही रहा था कि पुलिस ने आकर दरवाजा खटखटा दिया। मैक्स को तो भई हाथों-पैरों की पड़ गई थी। उसने सोचा था कि पड़ोसीयों ने शोर सुनकर सिपाही बुलाये होंगे, लेकिन वास्तव में बिजली वाले ने अपना मेहनताना वसूलने के लिये पुलिस को बुलाया था। सिपाहीयों से असलियत जानकर मैक्स के तो होश ही उड़ गये थे। वह उस भाई के पैरों में पड़ गया और लगा माफी मांगने। वह कह रहा था कि उस पर कोई कानूनी कार्रवाई न की जाये। खुशकिस्मती से उस मैकेनिक के कोई चोट नहीं आई थी। पिटाई तो उसकी बहुत हुई थी, लेकिन उसने कौन सा चूड़ीयां पहन रखी थीं। कसर तो उसने भी नहीं छोड़ी थी। मैक्स की हड्डीयों-पसलयों को मैं बाद में कई दिन सेंक दे देकर मल्हम लगाती रही थी। ये महीना भर दर्द की गोलीयां खाता रहा था। जैसे तैसे उस दिन मैक्स का मैकेनिक के साथ राजीनामा हो गया था। मैकेनिक तथा पुलिस के जाने पर अन्दर आकर मैक्स मुझ पर रूआब झाडऩे लग पड़ा था, ''तूने बताया नहीं भई वह इलेक्ट्रीशियन था?"

''मैं क्या बताती? तूं तो ऐशीयनों के साथ बात-चीत करते देखकर ही मुझे बदचलन कहता रहता था। वह मैकेनिक तो अंग्रेज था?"

''अंग्रेजों को कौनसा तूं जबाव देती है? बेल व औरत तो जो भी पास हो उसी से लिपट जाती है।"

देख लो, यह इज्जत है उसकी नजरों में मेरी। मैं जानती थी मुझमें मैक्स की बराबरी करने की  हिम्मत नहीं थी। बह रहे खून को रोकने की कोशिश में फटे हुये होंठ को गीले रूमाल से दबा रखा था मैंने, लेकिन खून था कि तले में सुराख वाले घड़े में से निकल रहे पानी की तरह बाहर आ रहा था। सेलर में से फस्र्ट एड बॉक्स निकालकर मैं मल्हम-पट्टी करने के लिये गुसलखाने में चली गई थी।

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