Monday 4 May 2015

13 कांड इब्तदा (शुरूआत)


फ्रांस को अलविदा कहकर हम फैरी में सवार होकर वापिसी के रास्ते पर आ गये। छुट्टियों का यह एक सप्ताह कब व कैसे बीत गया था? इस गुजरते समय का बिल्कुल ही पता नहीं चला था। मुहब्बत व काम में धंसकर पिछले दिनों में जितना मैं खुश रही थी, अब उतना ही दुखी व उदास होने लगी थी। मेरा फ्रांस से आने को बिल्कुल दिल नहीं करता था, लेकिन क्या करती? वहां से आना तो पडऩा ही था।


फैरी आकर इंगलैंड के समुद्री तट पर लगी तो आगे से हमारी कोच नहीं आई थी, किसी कारण लेट हो गई थी, इन्तजार में सब इधर-उधर टहलने लगे थे। दुबारा इंगलैंड की धरती पर पैर रखते ही शेरों जैसे फिक्र मेरी खरगोश जैसी जिंदगी पर टूट पड़े थे। मुझे आगे बढऩे के लिये कोई मंजिल नजर नहीं आ रही थी। घर से निकलते समय मैं अपने पीछे के सारे रास्ते बंद करती गई थी। फिर अब उसी घर में किस रास्ते वापिस जाती? कोई रास्ता बचा ही नहीं था। वैसे भी घर वापिस जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। फिर से अपने परिवार में वापिस जाना तो मौत को दावत देने के समान था तथा न ही अब मुझे वहां स्वीकार किया जाना था। बरमिंघम वापिस जाने से भी मेरा दिल अब बहुत डरता था। उस इलाके में मैं अब कहीं और भी नहीं रह सकती थी। मेरे अब्बा का तो काम ही हर रोज सड़कों पर रहना था। मेरे मन में डर था कि वे मुझे कभी न कभी जरूर चलते-फिरते देख लेंगे। उन्होंने तो मुझे देखते ही उसी जगह मेरा गला दबाकर मारने में समय नहीं लगाना था। इस कारण मैं अपने शहर बरमिंघम में वापिस नहीं जाना चाहती थी।

मैक्स बरसात की बौछार की तरह मेरी जिंदगी में आ गिरा था। जैसे बारिश की बूंदें तपती धरती पर गिरती है तो रेत के शुष्क कण उन्हें अपने अंदर सोख लेते हैं। इसी तरह मैंने भी मैक्स को अपनी जिंदगी में समा लिया था।
सोच-विचार तथा इजबल की सलाह से मैंने तथा मैक्स ने इकट्ठे रहने का इरादा कर लिया था। मैंने मैक्स को सुझाव दिया था कि कुछ देर के लिये बरमिंघम की बजाए हम किसी और शहर में जा कर रहें। मैक्स फौरन मान गया था। बरमिंघम में उसकी कौन सी जागीरें या हवेलियां थीं, जिन्हें छोडऩे का उसे दुख होता। काऊंसिल से मिले लैट में वह रहता था जो दुबारा किसी भी और शहर में लिया जा सकता था।

वहां डोबर से ही किसी तरफ खिसकने की जुगाड़ लड़ाकर मैक्स खाने-पीने के लिये कुछ लाने कैफे पर चला गया तथा मैं पाखाने की ओर यह देखने चली गई कि मेरे वे वस्त्र जो मैं जाते समय फेंक कर गई थी, वे अब भी कूड़ेदान में पड़े हैं या नहीं?

कूड़ेदान पूरा कचरे से भरा पड़ा था, मैं उसे टटोलने लगी, उसमें पड़ी सारी गंदगी मैंने अपने हाथों से बाहर निकालकर फेंक दी। पीरीयडस आने पर निक्करों में लगाये जाने वाले पैंटी पैडस खून से सने हुये उसमें पड़े थे। काम में लिये मर्दाना व जनाना निरोध, नापीयां आदि और बहुत कुछ था। मैंने सारा कूड़ा उल्टा करके खाली कर दिया था, लेकिन मुझे अपने कपड़े नहीं मिले थे। अपनी मूर्खता पर मैं खुद ही हंसी थी, ''तेरी क्या सलाह है, सप्ताह से तेरे वस्त्र यहीं पड़े रहने थे?ÓÓ मेरे अंदर से ही कोई आवाज आई थी, ''हो सकता है कोई जरूरतमंद उठाकर ले गया हो या जमादार कचरे के साथ ले गये होंगे?ÓÓ

फर्श पर उसी तरह कूड़ा-कर्कट बिखरा छोड़कर मैं हाथ धोकर बाहर आ गई थी। मुझे बहुत पछतावा हो रहा था, वे देसी कपड़े मुझे फेंकने नहीं चाहिये थे। इकट्ठे करके साथ ही रख लेने चाहिये थे, कभी जरूरत पडऩे पर काम आ जाते।
मेरे वापिस आने पर सारी लड़कियां मजे से कंटौकी फ्राई चिकन वालों से लाई हुई मुर्गे की टांगें चबा रही थी। उन्होंने मेरा हिस्सा मेरे हवाले कर दिया तथा मैंने उसी तरह वापिस कर दिया था।

''ये तो हलाल मीट चाहती होगी,ÓÓ उनमें से एक ने मजाक किया था।
''नहीं यह बात नहीं है, मुझे तो भूख ही नहीं है,ÓÓ मैंने अपनी सफाई पेश की। मेरा कुछ भी खाने को दिल नहीं करता था, सिर दर्द कर रहा था। मैंने अपनी अध्यापिका से पैरासीटामोल की दो गालियां लीं तथा कॉफी के कप के साथ निगल लीं। बातचीत के दौरान ही ऊपर से मैक्स भी आ गया था। वह बहुत खुश लग रहा था, ''बन गई बातÓÓ

''कौन सी बात, मैंने उत्सुकता से पूछा था।ÓÓ

''कैफे में मुझे एक ट्रक ड्राइवर मिला है, वह स्कॉटलैंड जा रहा है, अगर तेरा इरादा है तो हम लोग उधर निकल जाते हैं, कुछ दिन वहां रहेंगे तथा फिर जब मामला ठंडा पड़ जायेगा तो हम मिडलैंड के नजदीक कहीं आ जायेंगे।ÓÓ

मैक्स का सुझाव बुरा नहीं था, इंगलैंड के बाहर स्कॉटलैंड हमारे लिये और भी ज्यादा सुरक्षित जगह थी। बचपन में मेरा बहुत दिल किया करता था, स्कॉटलैंड देखने को। लेकिन कभी ये नहीं सोचा था कि इस तरह घर से भागकर जाऊंगी। मुझे स्कॉटलैंड देखने का बड़ा चाव था। मैंने फौरन मैक्स को अपनी सहमति दे दी थी। उस ड्राईवर का ट्रक तैयार खड़ा था। हमने ड्राइवर से हाथ जोड़कर लिट मांगी थी। थोड़े से इन्कार के बाद वह मान गया था। ''ठीक है, आओ चढ़ जाओ।ÓÓ

हमारे पास कोई विशेष सामान नहीं था, थोड़े से कपड़े मैंने एंजला व इजबल से मांग लिये थे, जाते समय एक दो गहरी सहेलियों से मैंने गले लगकर मिलाप किया था, मेरी आंखें भर आई थी। अध्यापकों व बाकी सारे छात्र-छात्राओं से छिपकर पहले मैं जाकर ट्रक में बैठ गर्ई थी तथा फिर मेरे पीछे ही मैक्स आ गया था। तभी ड्राइवर आ गया तथा उसने स्टार्ट करते ही ट्रक मोटर वे की स्लिप रोड की ओर सीधा कर दिया था, और किसी को भी हमारे रफू-चक्कर हो जाने की जानकारी नहीं थी। मोटर वे की पहली कतार में प्रवेश करने के बाद ड्राइवर ने स्पीड बढ़ा ली थी, उसके बाद हमने पीछे मुड़कर कहां देखना था?

ड्राइवर हमारे साथ बातें करने लग गया था। उसने बताया था कि उसका अपना ट्रक खराब हो गया था तथा वह दो तीन दिन से वहां फंसा हुआ था। अब नया ट्रक मंगवाकर वह ट्रेलर वापिस लेकर जा रहा था। मुझे यह देखकर हैरानी हुई थी कि छोटा सा ट्रक का मूंह ही कितना बड़ा ट्रेलर खींचकर ले जा रहा है। मुझे अपने ही यालों में घूम रही को औरत ट्रेलर व मर्द ट्रक लगा था। मर्द को जन्म देने वाली औरत चाहे सदैव ही मर्द से महान होती है, लेकिन इस ट्रेलर की तरह औरत चाहे कितनी भी बड़ी व वजनदार क्यों न हो, वह अकेली अपने आप कुछ नहीं कर सकती। उसे चलने के लिये मर्द नामक ट्रक चाहिये। एेसी सोच में उलझी हुई मैं खामोशी के आलम में थी। मैक्स ड्राइवर के साथ बातें कर रहा था। फिर अचानक मैक्स का ध्यान मेरी ओर गया, उस समय मैं ट्रक की खिड़की से बाहर टिकटिकी बांधकर देख रही थी।

''बोर तो नहीं हो रही हो?ÓÓ

''एें हैं.... क्या?..... नहीं, नहीं,ÓÓ मैक्स के प्रश्न से मेरा ध्यान उखड़ गया था, मुझे ठंड से कंपकंपी आ गई थी।

''ठंड लगती है तो भई खिड़की बंद कर लो, मैं इधर से हीट लगा देता हूंÓÓ ड्राइवर कंपकंपाती आवाज में बोला था।

मैंने खिड़की का सीसा ऊपर चढ़ा दिया था। ड्राइवर ने एअरफैन का बटन गर्म निशान पर करके हीटर चालू कर दिया था तथा मुझे तसल्ली देते हुये कहा था, ''लो अभी दो मिनट में ही गर्माहट हो जायेगी।ÓÓ

''एेसे इसका कुछ नहीं बनेगा, इसे तो मैं गर्म करता हूं,ÓÓ मैक्स मेरे पास घुसडऩे के अंदाज में नजदीक आ गया था तथा मेरे ब्लाऊज के कॉलरों को पकड़कर मुझे चूमने लगा था।.... ट्रक मील पत्थरों को पीछे छोड़ता जा रहा था।.... काफी देर तक हम एक दूसरे को चूमते रहे थे, मेरी पीठ से होते हुये मैक्स के हाथ मेरी छातीयों पर आ पहुंचे थे। मैं उत्तेजित होती जा रही थी, उसके होंठ मेरी गर्दन को एेसे चूम रहे थे, जैसे बच्चे कुल्फी चूसते हैं, ब्लाऊज के बाहर से पकड़कर मेरी छातीयों को भींचते हुये मैक्स ने मेरा एक बटन खोल लिया तथा अन्दर हाथ डालकर मेरा एक स्तन पकड़कर बाहर निकाल लिया था। (उस दिन मैंने ब्रा नहीं पहनी थी) मैंने ब्लाऊज को खींचकर पहले तो अपनी छाती को ढंका था तथा फिर मैक्स का हाथ रोक लिया था, ''क्या कर रहे हो? वह ड्राइवर देख रहा है।ÓÓ चाहे मैं काफी धीमी आवाज में मैक्स के कानों में फुंसफुसाई थी, लेकिन फिर भी ड्राइवर को मेरी कही बात सुन गई थी।
ड्राइवर ने मुझे छेड़ा था, ''मेरी चिंता मत करो, मैं कुछ भी नहीं देख रहा, कहो तो आंखें बंद कर लेता हूं?"

''न बाबा न, आंखं मत बंद करना, अपने ट्रक का एेक्सीडेंट तो करवाओगे ही, हमारा भी सत्यानाश करोगे।" मैक्स उसे मजाकिया जबाव देने के बाद फिर से मेरे साथ जब्रदस्ती करने लगा था। ड्राइवर सड़क की ओर कम हमारी ओर ज्यादा देख रहा था।

''क्या कर रहे हो, हटो, शर्म नहीं आती?"

मेरी रोक टोक को ताड़कर ड्राइवर बोला था, ''दोस्त यह लड़की ठीक कहती है, वारिस शाह लुकाइए खलक (लोग) कोलों, भावें अपना ही गुड़ खाईये जी। भई यही काम करना है तो एेसे करो, पीछे मेरे स्लीपिंग कंपार्टमेंट में चले जाओ।"

यहां हम बैठे थे, वहां हमारी सीटों के पीछे ड्राइवर के लेटने व आराम करने के लिये विशेष बिस्तर लगा हुआ था। इसे बैठने के लिये सीट भी बनाया जा सकता था तथा लेटने के लिये बैड भी। हमने वहां लेटकर पर्दा कर लिया था, ताकि ड्राइवर हमारी हरकतों को न देख सके। मैक्स का शरीर मेरे जिस्म के साथ उलझ गया था, मेरा बदन झटकों से जोर-जोर से हिलने लगा था।.... मेरा उस क्रिया में इतना ही योगदान था कि मैं मुँह बंद करके लेटी रही थी तथा विरोधता नहीं की थी, और मेरा कोई सहयोग नहीं था। मैं मुर्दों की तरह लाश बनकर लेटी रही थी... तथा फिर थक हार कर मैक्स भी मेरे साथ पड़ा लाश बन गया था।

''ओ शिॅट" ट्रक चलाते-चलाते ड्राइवर ऊंची आवाज में चिल्लाया था।

''क्या हो गया?" मैक्स ने उठकर उसके पास जाकर पूछा था।

''अरे यार, साला जंक्शन निकल गया, यहां से मुड़कर टर्न लेना था, मोटर वे से तो रिवर्स (पीछे) भी नहीं कर सकते।"

''चलो, अगले मोड़ से पीछे आ जाना, कितनी दूर है अगली एेगजिट (मोटर वे का निकास मार्ग)?"

''एेसे ही करेंगे, अब तो आठ-नौ मील दूरी पर पड़ जायेगी कम से कम" लंबा रास्ता तय करके आया होने के कारण ड्राइवर परेशान हो गया था।

मैंने भी अपने उलझे हुये बाल ठीक करते हुये अपने कपड़े ठीक किये (कमर से ऊपर चढ़ी स्कर्ट को खींचकर घुटनों की ओर किया) तथा मैक्स के पास आकर आगे बैठ गई थी। मैं सोचने लगी थी कि घर से भागी हुई लड़कियों की जिंदगी भी मोटर वे के ट्रैफिक की तरह होती है। इनकी जिंदगी बहुत तेज चलती है तथा इसी तेजी में ही वह जंक्शन छूटकर निकल जाते हैं, जिन पर मुडऩा होता है। फिर छूटे हुये जंक्शनों से पीछे भी नहीं मुड़ा जा सकता। मेरे साथ भी तो एेसा ही हादसा घटित हुआ था। इस तरह मैं अपनी जिंदगी के उतार-चढ़ाव के बारे में सोच रही थी कि तभी अगला जंक्शन आ गया था। मोटर वे से उतर कर हम शहर की ओर मुड़ गये थे।

ड्राइवर हमें ग्लास्गो शहर के एक पैट्रोल स्टेशन पर उतारकर आगे चला गया था। हम दोनों को बहुत जोर की भूख लगी हुई थी। हम स्टेशन की दुकान की तरफ सैंडविच लेने चले गये थे। मैक्स टॉयलेट में चला गया  तथा मैं दुकान के अंदर खाने के लिये सैंडविच लेने चली गई थी। मैंने उसके लिये मुर्गेवाला तथा अपने लिये सलाद वाला सैंडविच ले लिया तथा साथ ही कुछ चॉकलेट भी ले ली थी। ये सब सामान लेकर मैं दुकान के बाहर खड़ी होकर मैक्स का इंतजार करने लगी।

दस मिनट हो गये थे, वह टॉयलेट के अंदर जाकर जैसे सो ही गया था। वापिस नहीं आया था, उसका इन्तजार करते-करते मैं अपनी डबलरोटी खाने लग गई थी। खाते-खाते मेरी नजर दुकान के शीशों पर जा पड़ी। वहां इश्तेहार बोर्ड लगा हुआ था, एक इश्तेहार पर लिखा था, ''कंपलीट वर्क ऑफ शैक्सपीयर फॉर 50 पैंस।"

यह पढ़कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था, शैक्सपीयर की सारी रचनाओं का संग्रह सिर्फ पचास पैनीयों में? अगर इंगलैंड के इतने बड़े लेखक का यह हाल है तो छोटे-मोटे लेखकों का क्या हाल होता होगा? मैंने मन में सोचा था। अंग्रेजी की जी.सी.एस.ई के कोर्स में हमें शैक्सपियर का नाटक मैकबैथ लगा हुआ था। मैकबैथ की किताब मुझसे गुम हो गई थी तथा मुझे उसका जुर्माना स्कूल को भरना पड़ा था। अध्यापक ने जब मुझसे जुर्माने की रकम के दस पौंड मांगे थे तो मुझे छोटी सी किताब की कीमत दस पौंड काफी ज्यादा लगी थी। मैं अपनी अध्यापिका को तल्खी से बोली थी, ''मिस दस पौंड? और न कुछ कह देना, छोटी सी तो किताब थी।"

हां, हां, दस पौंड, ये मत भूलो कि वह किताब शैक्सपीयर की किताब थी, यह तो फिर भी सस्ती है क्योंकि किताब पुरानी हो गई थी तथा स्कूल को ज्यादा कापीयां खरीदने पर रियायत मिली थी, किताब की असली कीमत तो तीस पौंड थी। एक बात और कि किताब का आकार नहीं देखा जाता बल्कि यह देखा जाता है कि उसमें लिखा क्या है? जो बड़े-बड़े ग्रन्थ होते हैं, उनमें से कई तो बिना बात ही बढ़ाये गए होते हैं, ऐसे ग्रन्थों को तो कोई पढ़ता भी नहीं है। ये तो छोटे-छोटे पैंफलेट व लीफलैंट ही होते हैं जो हर इंसान के हाथों में जाते हैं तथा जिन्हें पढ़कर इंकलाब आता है। रही बात कीमत की, वह तो कद्र व जरूरत पर निर्भर करती है, जिसे चीज की जरूरत व कद्र हो, वह उस वस्तु की हर कीमत दे देता है, जिसे कद्र न हो वह तो मुत भी नहीं लेता।

कितना बड़ा यथार्थ कितनी सहजता के साथ मेरी अध्यापिका ने मेरे सामने रख दिया था। मैंने भी एक बार शहजादी डायना संबंधी किताब बीस पौंड में खरीदी थी। किताबें वाकई में बहुत महंगी-महंगी होती हैं। इसलिये उस समय मुझे शैैक्सपीयर की सभी कृतियां पचास पैनीयों में बिकती देखकर यकीन नहीं आया था। अपना शक दूर करने के लिये मैंने दुकान वाले से पूछा था, ''यह कीमत सही है?"

उसने वह मोटी सी किताब उठाकर मेरे सामने रख दी थी, ''उठाओ, निकालो पचास पैनीयां।"

मैंने किताब पलटकर देखी, सचमुच उसमें शैक्सपीयर की सारी रचनायें थीं। मैंने उसे क्या करना था? मुझे तो रोटी की चिंता थी, मैंने पुस्तक से क्या सिर फोडऩा था? इसलिये दुकानदार से उसका समय बर्बाद करने के लिये माफी मांगकर मैं बाहर आ गई थी। मैंने फिर से इश्तेहारों पर नजर घुमाई थी, वहां पर एक किराये के लिए खाली मकान का इश्तेहार भी लगा हुआ था। उसे पढऩे के बाद मैं मैक्स की राह देखती हुई पाखानों की ओर चली गई थी।

मैक्स ने हद से ज्यादा देर कर दी थी, वह अभी तक बाहर नहीं निकला था। पुरूषों की टॉयलेट में मैं औरत होने के कारण जा नहीं सकती थी। वहां खड़ी हुई ने मैंने टॉयलेट में अंदर जा रहे एक व्यक्ति से कहा कि हरे कोट वाला मेरा बॉयफ्रेंड अंदर गया है, उसे जल्दी बाहर भेेज दो। वह व्यक्ति अंदर गया तथा उसी समय बाहर आ गया व कहने लगा, ''अंदर तो कोई नहीं है।"

मेरी तो एकदम सांस रूक गई थी, बहुत घबरा गई थी मैं, मैक्स बिना बताये कहां जा सकता था? तब तक वहां मैक्स भी आ गया था, मुश्किल से मेरी सांस में सांस आई थी, मैं तो डर ही गई थी कहीं वह मुझे चकमा देकर ही न भाग जाये। मैंने गुस्से में उस व्यक्ति से पूछा था, ''ये कहां से आ गया?"

''आगे अन्दर की ओर होगा, मैं ज्यादा अन्दर नहीं गया था", वह व्यक्ति अचकचा सा गया था।

मैंने उसे ''थैंकस फॉर नथिंग" कहकर चलता कर दिया था। दरअसल वह मुझे एेशीयन होने के कारण समझता होगा कि मेरा बॉयफ्रेंड भी कोई एेशीयन ही होगा।

मैंने मैक्स को वह घर वाला इश्तेहार दिखाया था। मैक्स ने दिलचस्पी दिखाते हुये कहा था, ''संपर्क करके देख लेते हैं।" हमने वह नंबर नोट करके फोन किया था। किसी बूढ़ी सी औरत ने उठाया था। मैक्स को उसके स्कॉटिश उच्चारण की समझ नहीं आई थी। उसने फोन मुझे पकड़ा दिया था, मैंने उस औरत को अपना मकसद बताया था कि हमें रहने के लिये जगह की तलाश है।
''अच्छा, कितने सदस्य हैं तुहारे परिवार में?"

''मैं और मेरा बॉयफ्रेंड, बस दो ही"

''ठीक है, बाद में झगड़ा करने से पहले मैं एक बात बता देना चाहती हूं कि मैं हिसाब-किताब के मामले में बहुत कड़क हूं। सौ पौंड पहले लूंगी, जो तुहें मकान छोडऩे के बाद वापिस कर दिये जायेंगे। अगर मकान का कोई नुकसान किया गया तो वह पेशगी जब्त कर ली जायेगी। नुक्सान से मेरा मतलब है जैसे रंग गिरा देना, कारपैट जलाना, प्लॅस्तर उखाडऩा या तुहारे बच्चों ने बॉल पेपर पर लकीरें डाल दीं, बगैरा, बगैरा….,"

''जी, मैंने कहा न कि हमारे कोई बच्चा नहीं है"

''ओह, हां, ये तो बहुत अच्छी बात है। हर महीने अडवांस पहली तारीख को किराया लिया करूंगी, कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी, एक दिन भी लेट किया तो बर्तन-बिस्तर उठाकर बाहर फेंक दूंगी।"

उस औरत ने मुझे एेड्रेस (पता) लिखा दिया तथा कहा, ''जब मर्जी आ जाना।"

फोन पर हुई सारी बात मैंने मैक्स को बताई थी। मैक्स को झटका सा लगा था, ''छोड़, कोई और जगह देख लेंगे, कहां से देंगे इतने पौंड?"

'' कोई बात नहीं मेरे पास हैं पैसे, मैं दे दूंगी।"

''ठीक है, चलो फिर।"

हम फौरन टैक्सी करके उस दिये हुये पते पर उस मकान मालकिन के पास चले गये थे।

एक मोटी सी गोरी औरत घर में अकेली थी। उसके दोनों हाथों की सारी अंगुलीयां अंगूठीयों से भरी हुई थी। यहां तक कि अंगूठे भी रंग-बिरंगे नग वाली अंगूठीयों से। उसके गले में सिप्पीयों वाली लंबी तथा देखने में ही भारी लग रही माला पहनी हुई थी। बदन में फकीरों की तरह काले रंग का चोला। मैं फैसला नहीं कर पाई थी कि वह क्या था? नाईटी, फ्रॉक या लाँग ड्रैस। हमारे लिये दरवाजा खोलकर देखते ही पहली बात उस औरत ने यही कही थी, ''घर से भागकर आये हो?"

मैं डर गई थी, मेरा चेहरा फक्क सा हो गया था, मेरा दिल करे वहां से उसी समय भाग जाऊं।

''डरो मत, अंदर आ जाओ",  उसने मुझे सहमी देखकर कहा था।

''आपको कैसे पता लगा कि हम घर से.....?"

उसने मुझे बीच में ही रोक कर कहा था, ''ये बाल धूप में ही सफेद नहीं किये हैं, उम्र का तर्जुबा है, मैं भी कभी तेरी तरह भागकर आई थी। मैं अपने इलाके की सबसे शरीफ लड़की मानी जाती थी, हूं...... बोलती बोलती वह अचानक रूक गई थी।" मैं उसके चेहरे पर उभर रहे हाव-भाव देख रही थी कि सामने जहां वह बैठी थी। उसके पीछे सैल्फ पर एक सांप रेंगता हुआ जा रहा था। जैसे ही मेरी नजर सांप पर पड़ी, मेरे मुँह से अपने आप ही चीख निकल गई थी। ''वह….."

''क्या हुआ?" मैक्स तथा मकान मालकिन ने इकट्ठे ही मुझसे सवाल किया था।
''वह.....ह…." मैं सांप की आेर इशारा करके बोली थी। सांप को देखते ही डरकर मैक्स भी सोफे पर चढ़कर बैठ गया था। मैक्स की यह हरकत देखकर मकान मालकिन जोर-जोर से हंसने लगी थी, लेकिन वह खड़ी नहीं हुई थी, बल्कि अपनी जगह पर बिना हिले बैठी रही थी।
''आपके पीछे सांप है।"

''जानती हूँ।"

''प...प….," डर के मारे मैक्स से बात नहीं हो रही थी।

''अरे मजनूं तूं तो बहुत डरपोक है......लड़की किस जानवर के साथ उठकर चल पड़ी हो? तेरी हिफाजत यह क्या करेगा? इससे तो अपना आप ही नहीं संभल रहा।" 

डोलोरस इबारूही का कथन है, ''बुजदिल की सुहागन बनने से बहादुर की विधवा बनना कई गुणा अच्छा है।"

सच में मैक्स महा डरपोक था। बहादुर तो इकबाल होता था। बिल्कुल उसी समय मुझे इकबाल की याद आ गई थी। एक बार क्या हुआ कि हमारे स्कूल में तीन हव्शी लुटेरे आ गये थे। उस समय तक हमारे स्कूल में सिर्फ सुरक्षा गार्ड ही होते थे। अभी कैमरे नहीं लगे थे। भारतीय व हमारी पाकिस्तानी लड़कीयां सोने की चेन व अंगूठी मना करने के बावजूद भी पहनकर आ जाती थीं। काले वह सोना छीनने आये थे। सर्राफा बाजार के सुनार ही लुटेरों को एेसा करने के लिये उकसाते रहते थे ताकि वे लूट का माल उन्हें कौड़ीयों के भाव बेच दें तथा फिर सुनार उन्हीं को पॉलिश करके नये के भाव ग्राहकों को फिर से बेच देते थे। काले हव्शीयों ने सभी लड़कीयों से गहने उतरवा लिये थे। उनके पास चाकू था जिससे डरता सुरक्षा गार्ड भी उनके पास नहीं आया था। इकबाल बहुत बहादुर निकला था। वह एक काले पर टूट पड़ा था। काले को उसने नीचे गिरा लिया था। इकबाल को देखकर बाकी बच्चे भी हव्शीयों पर टूट पड़े थे। तब तक पुलिस आ गई तथा सभी काले पुलिस ने पकड़ लिये थे। सबने इकबाल को उसकी इस बहादुरी पर शाबासी दी थी, क्योंकि उसने अपनी जान की भी परवाह नहीं की थी। अगर वह पहले कोशिश न करता तो काले कहां गिरतार हो पाते। मैंने जब इकबाल से इस संबंध में बात की तो वह हंसकर कहने लगा, ''जान तो उन काले लोगों को भी प्यारी थी, मौत तो एक दिन सबको आनी है, फिर एेसे ही फिजूल में क्यों डरना? मौत दौड़कर उनके पास आती है, जो मौत से दूर भागते हैं, तथा जो मौत की ओर दौड़ते हैं, मौत उनसे दूर भागती है।"

मैंने मकान मालकिन को कहा था, ''आपको कोई चिंता नहीं है, उठो, अगर सांप आपको काट ले तो?"

''यह कुछ नहीं कहता, मेरा पालतू है।"

''पालतू?" मैंने हैरानी से पूछा था।

''सांप भी पालतू होते हैं, ये तो पहली बार सुना है," मैक्स ने अपने आपको संभालते हुये कहा था।

''हां, क्यों नहीं होते? अगर शेर हो सकते हैं तथा बाकी दूसरे जंगली जानवरों को लोग पालतू बना सकते हैं तो सांप को क्यों नहीं? पूर्वी देशों में तो हजारों सालों से सपेरे सांप पालकर अपने घरों में रखते आ रहे हैं। डरो मत, तुम लोग इत्मिनान से अपनी जगह पर बैठो।"

मकान मालकिन ने सांप को पकड़कर अपनी गोद में बिठा लिया था तथा उसकी नरम-नरम तथा फिसलन भरी चमड़ी पर हाथ फिराकर उसे एेसे प्यार करने लगी, जैसे कोई मां अपने पुत्र का सिर सहलाती है।

''अच्छा तो, यह जहरीला भी होगा? क्या आपको बिल्कुल भी डर नहीं लगता?"

''क्या तुहें अपने इस बॉयफ्रेंड से डर लगता है?"

''नहीं इससे डर क्यों लगे? ये आदमी है, कोई जहरीला जानवर थोड़ा है?"

''लड़की, मर्द से जहरीला जानवर कोई और नहीं होता।"

''लेकिन फिर भी, जान-लेवा जानवर से भय तो आता ही है?"

''नहीं बिल्कुल नहीं, इंजेक्शन लगवाकर मैं इसके दांत खट्टे करवाती रहती हूं। सांपों से खेलने का शौक हो तो, उनकी जहर निकालनी भी आनी चाहिए।"

मैंने उस पर अपने ज्ञान का रूआब डालना चाहा था। ''हां मैंने टी.वी. में देखा था, सांप से कपड़े पर डंक मरवाया जाता है, उसकी कपड़े में जीभ फंस जाती है तथा इस तरह से उसका सारा जहर निचोड़ देते हैं, सदा के लिये वह हानि रहित हो जाता है, ठीक है?"

''गलत, सदैव के लिये नहीं, थोड़े समय के लिये। कुछ देर बाद अपने आप फिर से जहर बनने लग जाता है तथा सांप फिर खतरनाक हो जाता है। किस सांप में जहर बनने को कितना समय लगता है, यह सांप की किस्म पर निर्भर करता है।"

उसने उठकर मेज के नीचे से दूध से भरी प्लेट निकाली तथा सांप को खुला छोड़ दिया था। सांप दूध पीने लग गया था। जब वह दूध पीने से हट गया तो उसने सांप को शीशे के बक्से में डाल दिया। मैं तो अपनी ही बातें लेकर बैठ गई। तुहारी तो सुनी ही नहीं, हां बताओ क्या काम था?

''जी हमने इश्तेहार देखा था", मैक्स ने उसे याद करवाया था।

''ओह, अच्छा, अच्छा", उसने उठकर चाबी उठाई तथा हमें साथ लेकर चल पड़ी। जहां वह रहती थी, वहीं सामने ही उसका एक और घर था। जो उसने कॉलेज व यूनीवर्सिटीयों के विद्यार्थियों के लिये किराये पर देने को रखा था। बड़े से मकान में कई कमरे थे। जो कमरा उसने हमें दिखाया, वह था तो काफी छोटा, लेकिन हमारे लिये काफी था, हमने कौन सा वहां घोड़े बांधने थे? किराया भी काफी ठीक था। रसोई व बॉथरूम हमें दूसरे किरायेदारों के साथ मिलकर उपयोग में लाना था। बाकी सारे कमरे किराये पर चढ़े हुये थे। सारा घर दिखाने के बाद उसने हमें पूछा, ''कैसे लगा?"

''हमें पसंद है" मैंने तथा मैक्स ने इकट्ठे ही जबाव दिया था। मैं अपनी जेब में से नोट निकालने लग पड़ी थी।

''नहीं, नहीं, रहने दो, इनकी तुहें अभी जरूरत पड़ेगी। छोड़ो तुहारे से एडवांस नहीं लूंगी। किराया भी महीना पूरा होने पर दे दिया करना। काम धन्धा ढूंढकर सैटल हो जाओ, किराया कहीं भागा नहीं जा रहा..... आ जायेगा, और किसी चीज की जरूरत हो तो बता देना।"

कमरे की चाबी हमारे हवाले करके वह चली गई थी। इस तरह से सिर छिपाने के लिये एक कमरा हमें मिल गया था। खर्चे के लिये कुछ रकम मैक्स के पास थी। काफी नकद रकम घर से लेकर मैं भागी थी। कुछ हमने दूसरों से मांग लिये थे, जो डोबर से चलते समय इजबल ने सहेलीयों से इकट्ठे करके दिये थे। पाकिस्तान जाने के लिये मिला सारा रोकड़ा मैं साथ लेकर आई थी। कुछ ट्रेवलर चैक जो अब्बा ने मेरे नाम से बनवाकर दिये थे, वे मैंने पैरिस से कैश करवा लिये थे। सारे पौंड एक जगह इकट्ठे करके जब मैं तकिये के नीचे छिपाकर रखने लगी तो मैक्स ने एक नोटों से भरा हुआ लिफाफा मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, ''ले ये भी रखले।"

मैंने लिफाफा मैक्स से पकड़ लिया था। उसके ऊपर मार्कर से 5000 लिखा हुआ था, मैंने बड़ा सा लिफाफा खोलकर देखा तो वह नोटों से भरा पड़ा था। उसमें पूरे पांच हजार पौंड थे। मैंने मैक्स से पूछा कि इतनी रकम कहां से आई है?
मैक्स ने मुझे झिझकते हुए बताया था, ''जो ट्रक ड्राइवर हमें छोड़कर गया था, मैंने उसकी ही जेब साफ कर दी थी। एक जगह कैफे पर रूककर जब हम दोनों पाखाना गये थे, तब उसकी जैकेट की जेब से सिगरेट की डिब्बी चोरी करते समय यह मेरे हाथ लगे थे। मैंने कहा चलो हमारे काम आयेंगे।"

''नहीं मैक्स तुझे एेसा नहीं करना चाहिए था। वह भी बेचारा गरीब होगा। देख वह हमें मुत में कितनी दूर से यहां तक लेकर आया था। इतने अहसान फरामोश नहीं बनते।" मैंने मैक्स को काफी डांट लगाई थी। ड्राइवर का कोई अता-पता न होने के कारण उस रकम को रखने के अलावा हमारे पास और कोई चारा नहीं था। इस तरह लक्ष्मी (धन की देवी) हम पर पूरी तरह से मेहरबान थी।

हम दोनों मैक्स व मैं नहाकर तैयार हो गये तथा सरकारी भत्ते लेने के लिये अर्जीयां देने चले गये।

इस तरह से मैंने अपनी जिंदगी की नये सिरे से शुरूआत कर ली थी। कुछ जरूरी चीजें खरीदने के बाद सारा दिन गलीयों-बाजारों में मटरगश्ती करने के बाद हम लोग घर वापिस आ गये थे।

सबसे बड़ी समस्या कहीं रहने की थी ठिकाना मिल जाने के कारण वह बोझ भी उतर गया था। खर्चे के लिये पैसे भी अभी हमारे पास थे। मैक्स के तथा मेरे सारे नोट इक_े करके हमने फर्श पर फैला दिये थे। लगभग आठ-दस हजार पौंड होगा। इतनी रकम मैंने व मैक्स ने जिंदगी में पहली बार देखी थी। मैक्स ने नोटों की छोटी-छोटी गुत्थी बनाकर चादर पर बिछा दी थी, ''देखना अब मैं तुहें अपनी रानी बनाकर रखूंगा ।

पूरे क्वीन साईज पलंग पर नोट ही नोट फैले पड़े थे। मैक्स ने मुझे उनके ऊपर लेट जाने का इशारा किया था। मैं थोड़ा सा झिझकी थी। मैक्स ने बाहों में उठाकर मुझे बैड पर लिटा दिया था। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। मैं आराम से लेट गई थी। मेरे नीचे नोटों की चादर थी। इस तरह अपनी औरत का समान तो किसी देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ने भी नहीं किया होगा, न ही माईक टाईसन जैसे मुक्केबाजों ने जो लाखों-करोड़ों कमाते हैं। अमीर से अमीर भी इस तरह अपनी पत्नियों पर दौलत नहीं लुटाते। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था, लगता ही नहीं था कि वह सब हकीकत में घटित हो रहा था, यानि मैं किसी स्वपन देश में घूम रही थी।

मैक्स मेरे पैरों की आेर खड़ा था, ''तुम भी आआे न?" मैंने अपनी बाहें ऊंची करके अपनी आवाज में काम उत्तेजना की तडफ़ भरते हुये कहा था।

धीरे-धीरे मैक्स अपने कपड़े उतारने लगा तथा मैं जल्दी-जल्दी अपने कपड़े उतारने लगी थी। मैक्स के बैड पर आते ही हम भोग में ऐसे लीन हो गये थे, जैसे कोई एकाग्रचित होकर साधू अपनी समाधी में गुम होता है। हमारा शारीरिक संगीत बजता हुआ जैसे-जैसे ऊंचा हो रहा था, वैसे-वैसे हमारे नीचे वाली नोटों की चादर इक_ी होती जा रही थी।

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