Monday 4 May 2015

कांड 5 -बिरहा-तू-सुल्तान

Model: Madhuri Gautam Photography: Vicku Singh Gaurav Sharma & Rishu Kaushik Makeup: Gagz 

आखिर एक रोज मेरी अर्ज मालिक के दरबार में कबूल हो ही गई थी। बीमारी से मुझे छुटकारा मिल ही गया। हमारे फैमिली डाक्टर का अस्पताल शाम को ही खुलता था। शाम को जाकर मैं डाक्टर से फिट नोट ले आई थी। सारी जिंदगी में मैंने जितने दफा घड़ी देखी है, उतनी बार उस एक रात में ही देखी थी। बड़ी बेसब्री में मैंने वह रात गुज़ारी थी। आधी रात को ही मैं नहा धोकर तैयार हो गई थी। निर्धारित समय से बहुत पहले, अंधेरे में ही मैं घर से स्कूल को रवाना हो गई थी। मैंने पूरी तरह दिन भी नहीं चढऩे दिया था। लंबा समय बीमार रहने के बाद मैं पहले दिन स्कूल गई थी। मेरे बिना स्कूल में अभी एक भी विद्यार्थी नहीं आया था। स्कूल में सां-सां हो रही थी। समय सारणी  के अनुसार उस दिन मेरा पहला लैसन ही विज्ञान का था। कई छुट्टियां करने की वजह से मैं पढ़ाई में पिछड़ गई थी। नि:संदेह बाकि विद्यार्थियों के  साथ पहुंचने के लिए मुझे दिन-रात एक करना जरुरी था। नोटस् तो मैं किसी की नोट बुक मांगकर  घर पर भी नकल कर सकती थी। लैक्चर भी सारे रिकॉर्ड होकर साल भर के लिए स्कूल की लाईब्रेरी में जमा रहते थे। मैं किसी समय भी वहां से टेप निकलवा कर काम चला सकती थी। लेकिन प्रयोग मुझे कक्षा में ही करने जरुरी थे। पुराने एसाईनमैंट फु र्ती से निपटाने की सोचकर सुबह जल्दी ही स्कूल लगने से पहले ही मैं लैबॉट्री (प्रयोगशाला) में चली गई थी। आगे वहां इकबाल बैठा अपना प्रैक्टिकल का काम निपटा रहा था। उसे देखकर मेरा पीला पड़ा रंग शराब की लाली में बदल गया। मुझे तो खुशी होनी ही थी, इकबाल को भी मेरा दीदार करके  बेहद खुशी हुई थी। हाय-हैलो कहने की जगह मैंने हंसते हुए पंजाबी गायिका परमिंद्र संधू व गायक दीदार संधू के गाए दोगाना पंजाबी गीत की लाइनें गुनगुना दी, ''दिन लंघंूगा सुहागरात वर्गा, वे उठदी दी नज़र पियैं ।"  



इस के जबाब में मुझे संबोधित करने के  लिए इकबाल ने चालू किस्म के आशिकों की तरह कोई शेयर नहीं झाड़ा था। घटिया दर्जे की तुकबंदी करने की बजाए वह मेरी ओर देखकर मुस्कराता रहा था। बस मुझे प्रभावित करने के लिए तो उसका मुस्कराना ही काफी था। उसकी मुस्कराहटें मुझे क़त्ल कर रही थी। मैं टिकटिकी लगाकर बड़ी नीझ से उसका चेहरा देखने लगी।
                        
वैसे तो गालों में पडऩे वाले गढ्ढे लड़कियों की खूबसूरती का चिन्ह माने जाते हैं। लेकिन इकबाल के हंसते हुए गालों में पडऩे वाले गढ्ढे भी बहुत खूबसूरत लगते थे। शायद इस लुभावनी मुस्कराहट व खुशमिजाजी की वजह से ही इकबाल हमारे स्कूल का 'सैक्ससिबल' था। मैंने खड़े-खड़े ही किताबें मेज पर रख दीं। अभी भी मेरी निगाहें उसके  चेहरे में ही गढ़ी हुई थीं। ''इकबाल तुझे पता है, जिस लड़के  के गालों में डिपल हों, वह अपनी सास को बहुत प्यारा होता है।"  

''सास की तो खैर कोई बात नहीं, न पसंद आए तो भी कौन सी गाड़ी रुक जाएगी। सास की लड़की को प्यारा लगना चाहिए, उसके  बिना गाड़ी नहीं चलेगी।"  

''लड़की तो मरी पड़ी है तुझ पर" मैं यह शब्द बोल न सकी व अपने मुंह में ही चबा गई। 

''सरकारें खड़े गांव से आई हैं, जो बैठने का नाम ही नहीं ले रहीं"  इकबाल ने मुझे बैठने का ईशारा किया था।
           
मैंने इकबाल के सामने स्टूल पर बैठते हुए कु हनियां मेज पर रख ली थीं। एक हाथ के पंजे में दूसरे हाथ की अंगुलियां फंसाकर पुल सा बना लिया था तथा उसके ऊपर अपना चेहरा टिका लिया था।
                        
मेरी मिजाजपुर्सी करने के बाद इकबाल ने संजीदा होते हुए कहा, ''शुक्र है परमात्मा का कि तू ठीक हो गई। तेरे जल्दी ठीक होने की मैंने मन्नत मांगी थी।"
                      
''अच्छा तो यह सब तेरी मन्नत के दिये दुख हैं। मुश्किल से मैं बिमार हुई थी। सोचा था कि चार दिन पढ़ाई से जान छूटेगी, रैस्ट करने के बहाने घर खाली बैठकर मजे करुंगी। लेकिन भगवान ने तेरा कहा मानकर मुझे जल्दी तंदरुस्त कर दिया। हमारी तो रह गई न ऐश बीच में ही।" मैं प्रसिद्ध गायिका सलीन डियोन  जैसी अपनी मीठी आवाज में झूठ-मूठ खफा हुई।
                  
''तुम करो ऐश हम हों मैश (पिस जाना), मालिको, यह कहां का इंसाफ है। शाजीया तेरे बिना सारा स्कूल सूना-सूना सा लगता था। सौगंध से, तेरे फ्रिक में मैं एक दिन भी ठीक से नहीं पढ़ सका। कोई काम करने को मन नहीं करता था। कु छ भी अच्छा नहीं लगता था। ये जिंदगी....जिंदगी नहीं एक श्राप सा लगती थी।"
                   
उसके  भावुकता से भरे विचार सुनकर मैं भी गंभीर हुए बिना रह न रह सकी, ''सच में इकबाल, जुदाई तो तुहारी मुझ से भी सहन नहीं हो पाई थी। दिन-रात बैड पर पड़ी तुझे देखने को तडफ़ती रहती थी। सोचा  करती थी कि कब मेरा बुखार उतरे व मैं दौड़कर तहारी बांहों में आ जाऊं। बहुत प्यार आता है तेरा मुझे। इस लिए ठीक होते ही गोली की स्पीड से दौड़ी आई हूं। डॉक्टर ने तो मुझे अभी एक दो दिन और आराम करने को कहा था। घर बैठी का ध्यान हर समय तुझ में रहता था। सोती थी तो तेरे सपने, जागती तो तेरे याल, ऐसे किया तेरे हिजर ने, हमारा बुरा हाल।" मेरे अंदर से अपने-आप कविता फूट निकली थी।
                     
इकबाल अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर कितनी देर तक चुप-चाप मेरे चेहरे की ओर देखता रहा। मैंने शरमा कर आंखें नीची कर लीं, ''ऐसे घूर-घूर कर क्या देखते हो। कभी कोई लड़की नहीं देखी क्या?"  

''लड़कियां तो बहुत देखी हैं, लेकिन इतनी सुंदर व प्यारी लड़की पहली बार देखी है। सचमुच तुम बहुत.....खूबसूरत हो। बिल्कु ल मिस वल्र्ड ऐश्वर्या राय जैसी लगती हो।
                 
"मैंने नजर ऊपर उठाकर देखा, इकबाल की आंखों में सच्चाई झलक रही थी। तारीफ सुनकर मेरे मन में गुदगुदी सी हुई तथा धन्यवाद करने के लिए मैंने भी उसे अपना नाक सिकोड़कर कहा था, ''कम तो तुम भी नहीं हो, राज बब्बर के  भाई।
                 
"इकबाल भी मेरी तरह फख्र भरी मुस्कान से मुस्कराया था। वह भी जानता था कि राज-बब्बर मुझे बहुत सुंदर लगता था। इकबाल ने मेरे दोनों हाथ खींचकर अपने हाथों में लेकर भींच लिए थे। मैं अपनी जगह से उठकर मेज के पीछे से होकर उसके बराबर पड़े स्टूल पर जाकर बैठ गई थी। पता नहीं उस समय मेरे मन में क्या आया कि मैंने इकबाल का हाथ पकड़ कर अपनी मखमली जांघ पर रख लिया था। मैं चाहती थी कि जिस जगह मैंने हाथ रखवाया था, उस जगह को इकबाल सहलाने लगे। सिर्फ सहलाए ही नहीं बल्कि जोर-जोर से रगड़ ही दे। सारा मांस उधेड़ दे। मेरा आदेश मानकर इकबाल ने उस हाथ से मेरी जांघों को सहलाना शुरु कर दिया तथा दूसरा हाथ मेरे कंधों के ऊपर से लेकर मुझे अपने आलिंगन में लेकर जितना उसने मुझे अपने करीब खींचा, उससे ज्यादा जानबूझ कर मैं उसके  करीब हो गई थी।
                    
इकबाल मेरी जांघ को हल्के-हल्के रगड़ता गया तथा साथ ही मेरी सलवार ऊपर को उठाता गया। धीरे-धीरे मेरी सिल्की सलवार की मोहरी मेरे घुटने तक आ गई तो उसने सारी सलवार अपने हाथ से मेरी जांघ के पास इक्ठ्ठी कर दी थी। अंधेरे में चमकते जुगनुओं की तरह मेरी नर्म मुलायम जांघ चमक रही थी। नंगी जांघ को इकबाल ने मालिश करने वालों की तरह मालिश करना व सहलाना शुरु कर दिया था। अजीब किस्म के उन्माद व नशे की एक परत मुझ पर चढ़ती जा रही थी। उस समय हम ये भी भूल गए थे कि हम स्कूल के कमरे में हैं। कु छ भी याद नहीं रहा था। यह भी नहीं कि मैं कौन हूं तथा वह कौन है। मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरे शरीर में कु छ भी मेरा अपना नहीं है। सब कु छ ही उसकी अमानत है तथा उसके जिस्म पर सिर्फ मेरा हक, अधिकार है। मैं उसे प्राप्त करने क लिए व्याकु ल थी। वह मेरी प्राप्ति को उतावला था। ऐसा लगता था जैसे पिछले कई जन्मों  से उसका मेरे साथ ताल्लुक था तथा मैं उस से संबंधित थी। मैंने अपना नख-शिख उसके नाम कर दिया  था तथा उसके अंग-अंग पर मुझे मेरा नाम लिखा दिखाई दे रहा था। मेरे मन की घंटियां बजने लगी थीं तथा सरुर में आकर मैंने अपनी आंखें बंद कर ली थीं।
                         
दो अलग-अलग कैमीकल्स (रसायनिक पदार्थ) मिलाने पर होने वाले एक्शन-रिएक्शन को मैं भली-भांति जानती थी। लेकिन जब दो विपरीत लिंग वाले जीव, विशेष तौर से औरत व आदमी आपस में मिलते हैं तो क्या घटित होता है। दोनों के जिस्मों में क्या बदलाव होते हैं, इस सबका मैं पहली बार तजुर्बा कर रही थी। उस समय हम दोनों की  एक दूसरे  के होंठों से दूरी पूरी दस अंगुल थी। जो उसी पल से घटने लगी थी। कु छ तो वह अपना मुंह मेरे पास लाता गया तथा कु छ मैं उसके नज़दीक होती गई। अंत में हमारे प्यासे व मचलते होंठ आपस में भिडऩे लगे। काम देवता क्यूपिड तीरों की बौछार कर रहा था।
                       
वेग में आकर इकबाल ने अपने स्टूल से खड़ा होकर मुझे भी खड़ा कर लिया तथा चूमते-चूमते स्टडी-टेबल पर अपने नीचे लिटा लिया। सिर से पैरों तक उसने मुझे रजाई की तरह अपने नीचे छिपा रखा था। वह भूखों की तरह मुझे इस तरह चूस रहा था, जैसे प्यार नहीं, बल्कि मेरा बलात्कार कर रहा हो। कमरे में और कोई आवाज नहीं थी सिवाए हमारी सांसों व चुबनों की आवाज के। हम ऐसे एक दूसरे को चिपटे हुए थे जैसे आग फूस को लगती है।
           
बाहर चल रही हवा खिड़कियों से जब अंदर आती तो मेरे बाल उड़कर बार-बार मेरे ही मुंह में पड़ जाते। हवा बहुत तेज हो गई थी। बल्कि यह कहना उचित होगा कि वायु  ी देवी सिल्फ (पवन देवता) का पूरा जोर लगा हुआ था। जैसे आंधी आ गई हो। हमें कोई परवाह नहीं थी। जपर के उडऩे से मेरा सारा पेट नंगा हो गया था। मेरी कु र्ती में सेंध लगाकर अंदर घुसे हुए इकबाल के हाथ मेरे जिस्म को ऐसे टटोल रहे थे, जैसे कोई कमजोर नज़र वाला व्यक्ति धरती पर गिरी अपनी ऐनक ढ़ूंढ रहा हो। उसका ऐसा करना मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था। मेरे आरुज़ (स्तन) ब्रा से छीनकर इकबाल के बलवान हाथों ने अपने कब्जे में ले लिए थे। मैंने उसे कंधों से पकड़ कर अपने ऊपर ऐसे गिरा रखा था कि वह चाहने के बावजूद भी उठ न सके। मेज पर पड़ी पड़ी ही मैं गर्दन ऊपर करके कभी उसकी गर्दन, कभी छाती व कभी होंठों को चूम लेती। हल्का सा दांतों से काट लेती। उसका मुंह मेरी गर्दन में गड़ा हुआ था। एकाएक इकबाल ने बूटों के तस्में (लेस) खोलने की तरह मेरे नाड़े का एक छोर खींचकर एक ही झटके में मेरी सलवार ऐसे ढीली कर दी, जैसे आंधी आने पर कुं डी न लगी होने पर दरवाजा खुल जाता है। नाड़ा खुलते ही उसने मेरी सलवार मेरे पैरों की ओर सरका दी थी। मैंने भी इकबाल की पैंट उतारने को उसकी बैल्ट के बक्कल (हुक) में अंगुलियां डाली ही थीं कि न जाने मुझे कैसे याद आ गया कि इकबाल तो सिक्खों का लड़का है। मेरे अचेत मन में बैठा यह भय छलांग लगाकर खड़ा हो गया था। मेरे अंदर की इस्लामी कट्टरता ने दबाव डालकर मुझे झझोड़ दिया था। ''यह काफिर तो मुझे नापाक करने जा रहा है, ....कुछ होश कर, नहीं तो अल्लाह की मार पड़ेगी तुझ पर।"
                          
इस खौफ की आरी ने मेरे मन में फैले उसके इश्क के पेड़ को काट कर फंैक दिया था। बैल्ट को वहीं अधखुली छोड़कर मैं इकबाल को इतनी जोर से धक्का मार कर उठी थी कि वह मेज से नीचे गिरता-गिरता मुश्किल से बचा था। खड़ी होकर पहले तो मैंने अपने पैरों में पड़ी अपनी सलवार को ऊपर उठाकर बांधा। सोये हुए दिमाग को जगाने के लिए मैंने अपने सिर को झटका।  फिर मैंने सोचने के  लिए अपना मुंह हथेलियों में छुपा लिया। अंगुलियों के पोटों से बंद हुई सूखी आंखों को पोंछने के  बाद, माथे से होते हुए मेरे हाथ बालों से घिसटते हुए पीछे सिर की ओर चले गए थे। हवा रुक गई थी। सब कुछ शांत हो गया था।
                        
''याह-अल्लाह, यह मैं क्या अनर्थ करने चली थी।" मेरे अंदर से कोई आवाज आई थी।
                          
पैंट को ऊपर खींचता इकबाल मेरे पास आया था, ''तुम ठीक हो, क्या हुआ?"
                         
''खुदा का शुक्र है, जो अभी तक कु छ हुआ नहीं, सॉरी बाले, (मैं इकबाल को प्यार से बाला ही कहा करती थी) यह मामला आगे नहीं बढ़ सकता।"
                         
''क्यों, मैं पसंद नहीं तुझे।" इकबाल ने मेरी कमर में बाहें डालकर मुझे खींच कर अपने साथ जोड़ लिया था। इस बार दूर धकेलने की बजाए मैंने खुद उसकी छाती पर ऐसे सिर रख लिया जैसे कोई भूत-प्रेत से डरता बच्चा अपनी मां की गोद में जा घुसता है।
                      
''अगर पसंद न होता बाले तो क्या मैं तुझे अपनी कमर को ऐसे हाथ डालने देती।"
                       
''फिर क्या कारण है?"
                        
''अपनी मुहब्बत परवान नहीं चढ़ सकती"  मुझे अपने इश्क का अंधकारमयी पक्ष साफ नज़र आ रहा था।
                        
''लेकिन क्यों?"
             
''क्योंकि तू सिक्ख है तथा मैं मुसलमान हूं। अपना दीन (धर्म) एक नहीं है।"

             
''फिर क्या हुआ, सारे इंसान एक जैसे होते हैं। मुसलमानों के घर पैदा हुए व हिंदु जुलाहे के पालन-पोषण के द्वारा पले-बढ़े भक्त कबीर जी ने कहा है, अवलि अल्लाह नूर उपाईया, कु दरति के  सब बंदे। एक नूर ते सब जग उपजेया कौन भले को मंदे"
             
''हां मैं मानती हूं। कु रान-ए-पाक में भी लिखा है कि सारे मजहबों को मानने वालों के दिल एक होते हैं। यह फर्क जो दिखाई देते हैं, लोगों के  पैदा किए हुए हैं, मजहबों के नहीं। बदकिस्मती से ये ध्ेार्मों की डाली गई दूरी इतनी विशाल है कि हम रेलगाड़ी की पटरियों की तरह एक तयशुदा दूरी पर मीलों तक समानांतर तो चल सकते हैं, लेकिन इक्ठ्ठे नहीं हो सकते । इसलिए अब से हम लोग पहले की तरह दोस्त रहेंगे, सिर्फ दोस्त, जस्ट फ्रैंडस् । ठीक है।"  सिर्फ दोस्त शब्द को हाईलाईट करने के लिए मैंने इसके उच्चारण पर खास जोर लगाया था।
                  
''मुसलमान भी तो सिक्ख लड़कियों से इश्क कर रहे हैं। रजनी से कौनसा मेरा धर्म मिलता है। वह भी तो पंडितों की लड़की है। यहां पर सब भेद-भाव छोड़ कर मेल मिलाप हो रहा है। जाति-धर्म की खोखली बंदिशों को अपनी पीढ़ी कहां पूछती है।"
                    
मैंने इकबाल से जिरह की थी,  ''तूने रजनी की मिसाल दी है, हिंदू-सिक्ख में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। एक सिक्ख लड़के से मुसलमान लड़की के मिलाप को हमारे मजहब के कट्टर लोग धरती व आसमान की तरह कभी इक्ठ्ठे नहीं होने देंगे।"
                     
इकबाल ने बड़े प्यार व नम्रता से कहा , ''जब मियां-बीबी राजी तो क्या करेगा काज़ी। तू कब से धार्मिक हो गई। धर्म-धुरम की परवाह नहीं करते। कार्ल माकर््स ने 'इंट्रोडक्शन टू क्रिंटिक ऑफ हीगल'  में लिखा है, ''धर्म लोगों को नशेड़ी करने के  लिए अफीम है, तथा इसका मकसद लोगों को गुमराह करके रखना ही होता है। वैसे भी सिक्ख धर्म तो दो अलग-अलग धर्मों को मिलाकर एक करने के लिए ही वजूद में आया था। हो सकता है कि हम सिक्ख बनने से पहले हिंदू न होकर मुसलमान ही हों।"
                   
''पर अब तो तू सिक्ख है। तुहारे नाम के साथ सिंह की जगह अगर मुहमद या अहमद लगा होता तो बात और थी। इसलिए मेरा तो यही कहना है कि गर्मजोशी में हमारे दरयान जो कु छ घटित हुआ है, तुम इसे सपने की तरह भूल जाओ।" मैं अपनी दलीलबाजी से मामला यहीं ठप्प कर देना चाहती थी।
                   
''शैक्सपीयर ने अपने नाटक रोमियो एंड जूलियट के दूसरे एक्ट के दूसरे बॉल्कॉनी सीन में जूलियट के मुंह से कहलवाया है, ''व्हाटस् इन ए नेम, दैट विच वुई कॉल ए रोज़, बाई एनी अदर नेम वुड स्मैल इज़ स्वीट।" अर्थात् नाम में क्या रखा है। अगर गुलाब को गेंदा कह दें तो क्या उसकी सुगंध में फर्क पड़ जाएगा। अगर पानी को पानी न कहकर जल,नीर,वॉटर या कु छ और कहें तो क्या वह पानी, पानी नहीं रहेगा, कु छ और हो जाएगा। विवाह के बाद अक्सर औरतों का गोत्र बदल जाता है। अगर तुम कहो तो मैं भी अपना नाम बदलकर, जो तुम कहो वही गोत्र जोड़ लेता हूं।" इकबाल मेरे सामने दिल्ली की कु तुबमीनार की तरह डटकर खड़ा था।
                  
''नहीं इस तरह नहीं हो सकता"
                   
इकबाल कु छ देर तक चुप रहने के बाद बोला था, ''भारत में प्रयागराज शहर है जिसे आजकल इलाहाबाद के नाम से जाना जाता है। वहां अगल-अलग जगहों पर आकर गंगा,यमुना तथा सरस्वती नाम की तीन नदियां मिलकर एक हो सकती हैं। तो क्या अपना प्यार दो धर्मों को मिलाकर हमें एक नहीं कर सकता।"
                 
''जिन नदियों की तुम मिसाल दे रहे हो, ठीक है वे एक बार इक्ठ्ठी होती हैं तथा कु छ दूरी तक साथ-साथ बहती हैं, शायद तुझे पता है कि नहीं 'संगम' वाले स्थान से आगे जाकर यमुना फिर अकेली रह जाती है। उस से बिछुड़ कर गंगा कलकत्ता के हुगली दरिया से मिल जाती है। फिर क्या फायदा हुआ उस थोड़े से समय के मिलाप का।"
                
''मिलकर बिछुडऩा तो प्यार की रीत है शैज। लेकिन अंत में जाकर ये नदियां एक बार फिर सदा के लिए हिंद महासागर में इक्ठ्ठी भी तो हो जाती हैं।"
                 
मैंने फिलॉस्फी अंदाज में कहा था, ''सागर में जाकर तो उनका अंत हो जाता है उनकी हस्ती ही मिट जाती है। समुंदर में समाई अनेक दूसरी नदियों की भीड़ में ये नदियां तो गुम हो जाती हैं। उस मिलाप का तो कोई वजूद ही नहीं होता। ऐसा मिलाप किस काम का, जिसका अहसास ही न हो।"
              
''अपना ज्ञान झाडऩे को छोड़, हौंसला रख। हम कोई रास्ता निकाल लेंगे।"  मुझसे ज्यादा इकबाल अपने-आप को तसल्ली दे रहा था।
              
''यह समस्या उस पहाड़ी जैसी है जिसे काटकर रास्ता बनाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है, 'टोटल इंपॉसीबल'। मेरे अंदर बह रहा निराशा का दरिया किनारे तोड़ कर बाहर आ रहा था।
              
हिटलर ने कहा है कि ''नथिंग इज़ इंपॉसीबल इन द डिक्शनरी ऑफ ब्रेव मैन।"  मतलब बहादुर व्यक्ति के शब्दकोष में नामुकिन नाम का कोई शब्द नहीं होता। आशिक तो पहाड़ों को काटकर नहरें निकाल देते हैं। तुम इस समस्या के हल की बात करती हो।
              
मैं इकबाल के आगे पूरे का पूरा मनोविशलेषण कर देना चाहती थी। ''अब हम सिर्फ अगल-अलग धर्मों से ही संबंधित नहीं हैं बल्कि उन दो देशों से भी ताल्लुक रखते हैं, जिनका आपस में ईंट-कु त्ते जैसा विरोध है। शैक्सपीयर की जूलियट के कहे अनुसार, ''माई ऑनली लव सपरंग फ्रॉम माई ओनली हेट ।"
            
''1947 को पलायन करके भारत में आकर बसने से पहले मेरे पूर्वज भी धरती के उस टुकड़े पर ही रहते थे। जिसे आज पाकिस्तान कहा जाता है। मेरे दादा जी बताया करते थे कि जिला लायलपुर, जिसे अब फैसलाबाद कहा जाता है, की समुंदरी तहसील का चक्क नंबर चार सौ चौहत्तर हमारा गांव होता था। मेरे बाप दादा का बचपन वहां पर ही बीता था।"
              
मैंने वह तर्क इकबाल के सामाने रखा था, जिसे वह देख नहीं पा रहा था, ''यह मत भूलो कि बंटवारे के समय तुहें उसी गांव से उसी तरह निकाल दिया गया था, जैसे कि भारत से मुसलमानों को उजाड़ा गया था। उस समय की दुखद दूरियां रहती दुनिया तक खत्म नहीं की जा सकतीं।"
            
''लेकिन खत्म करने के यत्न तो किए जा सकते हैं या नहीं। अगर पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी वाले अपने बीच में से बििर्लन की दीवार गिराकर इक्ठ्ठे हो सकते हैं, दोनों यमनों का ऐकीकरण हो सकता है, दोनों वियतनाम फिर से इक्ठ्ठे हो सकते हैं, इंगलैंड वाले, आयरलैंड वालो को जफयां डाल सकते हैं, उत्तरी व दक्षिणी कोरीया एक होने के लिए कदम उठा सकते हैं, फिलस्तीन व इजराइल के संबंधों में सुधार हो सकता है, तो क्या हमारे देश कांटेदार तार को नहीं हटा सकते। दोनों तरफ से सच्चे मन से यत्न किए जाएं तो नफरत की बिवाइयों को मोम से भरकर ठीक नहीं किया जा सकता है।"
               
मुझे कोई जबाव नहीं आया था। काफी समय तक हम दोनों खामोश खड़े रहे थे। मैं इकबाल की छाती पर सिर रखे उसकी धड़कनों का राग सुनती रही। मुझे कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था।
              
''हम लोगों को रिलीजीयस स्टॅडी(धार्मिक शिक्षा) में पढ़ाया गया है कि अगर कोई गैर-मुस्लिम, इस्लाम कबूल कर ले तो उसे किसी मुसलमान से विवाह करवाने पर कोई रुकावट नहीं है। मैं, जो कहो करने को तैयार हूं। देख मुझे तो कलमां भी याद है। सुनाऊं, ''बिस्मिला ए रहमाने रहीम, ला इल्लाह,इल अल्लाह। इलाहा हू मुहमद ओ अर रसूल अल्लाह .....।"
               
मैंने इकबाल से दूरी बनाते हुए कहा था कि,  ''तुम समझते क्यों नहीं बाले।...मेरे घर वाले फिर भी रजामंद नहीं होंगे। क्योंकि मेरी मासी ने एक सिक्ख से विवाह करवाया था। उस सिक्ख ने विवाह के बाद न सिर्फ अपनी दाढ़ी के केस ही रख लिए थे बल्कि मासी जी को भी अमृत छकाकर सिक्खनी (सिंहनी)बना लिया था। हमारे सारे खानदान ने उनके साथ बोल-चाल बंद की हुई है। इकबाल को तो मैंने इसके आगे कुछ नहीं बताया था। लेकिन मैं जानती थी कि मेरी मासी-मासड़ को विवाह करवाने के बाद कितने दुख उठाने पड़े थे। उनकी सड़क पर खड़ी कार को आग लगा दी जाती थी। कोई उनके घर के सीसे तोड़कर भाग जाता। टेलीफोन से उन्हें जाने से मारने की धमकियां दी जाती। कोई लैटर बॉक्स में पैट्रल बम रख जाता । इसी तरह कई अन्य ढंग-तरीकों से उनका जीना हराम कर दिया गया था। ये सब कारनामे कौन करता था। इसका भी सबको पता था। मासड़ के मुंह पर तेजाब फैंकने की भी कोशिश की गई थी।"  शायद मैं इतना बलिदान देने को तैयार नहीं थी। इस लिए मैं इकबाल से अपना पल्लू बचा रही थी।
                  
प्यार से भीगे हुए इकबाल से बचकाना सी बात कही गई थी, ''मैं उस तरह तेरे मासड़ की तरह नहीं करुंगा। चाहे तेरे मां-बाप वकील के पास जाकर मुझ से लिखित इकरारनामा ले लें।"
               
''नहीं...नहीं...नहीं, इकबाल नहीं। तेरे पंथ के लोग चरखडिय़ों पर चढ़े, आरे से चीर दिए गए, बंद-बंद (बोटी-बोटी) काटे गए, उन्होंने सिर की खोपडिय़ां उतरवाई, खालें उतरवा दीं, बच्चों के टुकड़े करवाकर गले में डलवा लिए, नींव में चिनवा दिए गए, उबलती देग (पतीले)में उबाले गए। लेकिन उन अडोल (परिपक्क) सिक्खों ने सिदक (श्रद्धा)को कायम रखा तथा अंतिम सांस तक यही जैकारा लगाते रहे, ''सिर जावे तां जावे, मेरा सिक्खी सिदक न जावे।"

और तू बाले एक लड़की के लिए हंसकर धर्म छोडऩे को तैयार हो गया। नहीं दोस्त, अपने पुरखों की कु र्बानियों को मिट्टी में मत मिला, ''मैं पाप की भागीदार नहीं बनना चाहती थी।"
                
मुझे अपनाने के लिए बड़े से बड़ा बलिदान करने को तत्पर हुआ इकबाल गिड़गिड़ाया था, ''फिर तुम ही बताओ मैं क्या करुं? मैं तेरे लिए कु छ भी करने को तैयार हूं।"
              
''खा मेरी कसम, सिर पर हाथ रखकर कह कि जो मैं कहूंगी,वहीं तू मानेगा।" मैंने इकबाल का हाथ अपने सिर पर रखवाकर कहा,  ''मुझे भूल जा, रजनी या इजबल (एक बहुत ही सुंदर अंग्रेज लड़की,जिसके साथ कभी इकबाल का इश्क चला था) के साथ विवाह करवा ले। वे बहुत ही अच्छी लड़कियां हैं।" इकबाल ने मेरे सिर से ऐसे झटकर अपना हाथ खींचा लिया, जैसे उसे सेंक लगा हो। वह हर कीमत, हर शर्त स्वीकार करके मुझे अपनी शरीक-ए-हयात (पत्नी) बनाना चाहता था। काफी समय तक बहसबाज़ी करने के बाद भी इकबाल नहीं माना तथा एक से बढ़कर एक दलीलें देता गया तथा मैं उन दलीलों को रद्द (तोड़ती) करती गई। ज्योतिषी के तोते की रटंत की तरह उसने तो मेरे साथ विवाह करवाने की एक तार पकड़ी हुई थी। इकबाल को बच्चों की तरह जिद्द करते देख मैं खीझ गई तथा गुस्सा तो मुझे खुद पर भी आया था। लेकिन निकल बेचारे इकबाल पर गया था। कु छ समय बाद ही मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया था कि मुझे इकबाल के साथ इस तरह गुस्से में पेश नहीं आना चाहिए था। इससे पहले कि हम बात को किसी और तरफ ले जाते, तब तक स्कूल की घंटी बज गई तथा कक्षा के बाहर से आती पद-चाप से हमें विद्यार्थियों के आने की आहट हो गई थी। हम अपने कपड़े ठीक करके एक दूसरे से दूर होकर बैठ गए थे।
                 
देखते ही देखते हमारे सहपाठियों से प्रयोशाला भर गई थी। हमारे अध्यापक ने आकर पढ़ाई शुरु करवा दी। मेरा ध्यान उखड़ा ही रहा था। दिमाग में विचारों की जंग चलती रही थी। सोच समझकर मैंने फैसला कर लिया था, इकबाल को अपना तन-मन सौंपने का। मेरे दिल में जो प्यार का पेड़ था, उसे काटा जा चुका था। लेकिन उसकी जड़े सही-सलामत थी। उन जड़ों से खुराक मिलती रहने से वह फिर से फूट कर हरा-भरा हो गया था। उसकी टहनियों पर पत्ते निकलने लगे थे। मुझे लैसन खत्म होने का बेसब्री से इंतजार था। मैंने सोच रखा था कि पीरीयड़ के बाद मैं इकबाल को एक ओर ले जाकर बता दूंगी कि मैं उसके साथ ही खड़ी रहना चाहती हूं तथा वह मुझे कु छ दिन सोचने का मौका दे ताकि मैं अपने आपको दुनिया के साथ लडऩे के लिए (हर तरह से मानसिक, शारीरिक व आर्थिक तौर से) तैयार कर सकूं।
                 
इकबाल बहुत होशियार विद्यार्थी था अक्सर अध्यापकों से कक्षा में पढ़ाई संबंधित सवाल-जबाब व बहस में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता रहता था। एक बार उसी विज्ञान के लैसन में हम क ोई प्रयोग कर रहे थे। मेरे सामने एक मोमबत्ती जल रही थी। जलती हुई मोमबत्ती को देखकर मेरे मन में एक प्रश्न उभरा। मैंने अपनी शंका मिटाने के लिए अध्यापक से पूछ लिया, ''सर, आपने पढ़ाया है कि धरती में गुरुत्वाकर्षण शक्ति होती है तथा इस कारण जो क ोई वस्तु हम हाथ से छोड़ें वह धरती पर गिर जाएगी। फिर यह मोमबत्ती की लौ नीचे की जगह ऊपर को क्यों जाती है?"
                   
हमारे अध्यापक को भी इसका सही उत्तर नहीं पता था। उन्होंने ऐसे टाल-मटोल सा जबाब दिया था, ''मोमबत्ती के धागे को जहां आग लगी होती है, वहां धागे के चारों ओर तो मोम होती है, लौ नीचे कहां तुहारे ननिहाल को जाए। ऊपर जगह खाली होती हैै इसलिए लौ ऊपर को जाती है। ऐसे फिजूल के सवाल मत पूछा करो।" चाहे अध्यापक के जबाब से मैं संतुष्ट नहीं हो पाई थी। लेकिन डांट के डर से मैं चुप रह गई थी। सारी क्लास मुझ पर हंसने लगी, सिर्फ इकबाल को छोड़कर। उस से मेरी किरकिरी बर्दाश्त नहीं हो रही थी इस लिए वह चुप नहीं रह सका।  ''सर, शाजीया का सवाल फिजूल नहीं बल्कि बड़ा बाजिव है।"
              
''इकबाल सिंह, वह कैसे ?"
               
''देखो सर, आप कह रहे हैं कि नीचे जगह न होने के कारण लौ ऊपर खाली जगह की ओर जाती है। ठीक।"
             
''ठीक है" अध्यापक ने इकबाल की बात में दिलचस्पी दिखाते सिर हिलाया था। 

''इसका मतलब यह हुआ कि अगर मोमबत्ती को उलटा कर दिया जाए, तो फिर लौ नीचे को जाएगी।"  

इतना कहकर इकबाल ने मेरी जलती हुई मोमबत्ती उठा कर उल्टी कर दी। मोमबत्ती की लौ फिर भी ऊपर की ओर ही जा रही थी। इकबाल ने अध्यापक को प्रश्न किया,''अब बोलो सर, लौ तो अभी भी ऊपर को ही जा रही है।"
                 
हमारे अध्यापक के तो होश उड़ गए। कोई जबाब न आए। अंत में उसने खुद ही स्वीकार कर लिया, ''अरे भई मुझे भी इसका कारण पता नहीं है।"  

''फिर ऐसे कहो न सर कि आपको पता नहीं है। ऐसे क्यों कहते हो कि शाजीया का सवाल फिजूल है।"
                
अध्यापक इकबाल की यह बात सुनकर खीझ उठा, ''तुझे ज्यादा पता है तो तूँ बता दे"
              
''लो मैं बता देता हूं सर। इसमें क्या मुश्किल है। बहुत ही सरल व सीधी वजह है। आग वाली गैस हवा में तमाम गैसों से हल्की होती है । इस लिए वह उन गैसों पर तैर कर ऊपर उड़ जाती है। इस कारण आग हमेशा ऊपर को ही जाती है, सर।"
                  
इकबाल का वजनदार जबाब सुनकर सारी क्लास ने ताली बजानी शुरु कर दी। हर समय इतनी अक्लमंद बातें करते रहने वाले इकबाल को पता नहीं उस दिन क्या हो गया था। वह ऐसे गुमसुम हो गया था जैसे सांप सूंघ गया हो। असल में तो मुझे उसकी खामोशी का कारण पता ही था। पंजाबी कवि प्रो.मोहन सिंह ने अपनी किताब 'सावे पत्तर' की एक कविता में लिखा था,
 
''लकड़ी टुटेआं किड़-किड़ होवे ,
    सीसा टुटेआं तड़-तड़,
    लोहा टुटेआं कड़-कड़ होवे,
    पत्थर टुटेआं खड़-खड़,
    लख साबा आशिक दे दिल नूं,
    शाला रहे सलामत,
      जिस दे टुटेआं वाज निकले,
    न किड़-किड़, न कड़-कड़"

सच में जब आशिक का दिल टूटता है तो आवाज नहीं होती सिर्फ टूट-फूट ही होती है तथा वहां टूटन के तिनके बिखरे हुए दिखाई देते हैं। उन टूटे हुए टुकड़ों को सिर्फ वही देख सकता है, जिसके पास मुहब्बत भरा दिल हो, हर कोई नहीं देख सकता। इकबाल का टूटा हुआ दिल भी सिर्फ मैं ही देख सकती थी। लेकिन मजबूरी में उस समय मैं उसके लिए कु छ नहीं कर सकती थी। इकबाल की चुप्पी हमारे अध्यापक ने भी भांप ली थी तथा उस से पूछा था, ''इकबाल तुहारा कु छ दर्द हो रहा है।"  

''हां सर, मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है, क्या मैं घर जा सकता हूं।"  इकबाल ने अपने पेट पर हाथ रखकर दर्द का ड्रामा सा करते हुए कहा था। 

''जरुर रात को जोरदार खाना वगैरा खाया होगा, है ना अंग्रेज अध्यापक ने व्यंग्य कसा था।"
                          
हमारा अध्यापक जानता था कि इकबाल पढ़ाई चोर नहीं है। अवश्य ही उसके दर्द हो रहा होगा क्योंकि वह पहले कभी भी बहाना बनाकर नहीं भागा था। इस लिए अध्यापक ने उसे घर जाने की इजाजत दे दी थी। यह बात मैं ही जानती थी कि इकबाल झूठ बोल रहा था। मेरे सामने से इकबाल भरी हुई आंखें लेकर कक्षा से बाहर चला गया था। उसका दिल रो रहा था, आत्मा तडफ़ रही थी। मैं क्लास में से अचानक उठकर उसके पीछे नहीं जा सकती थी। मेरे ऐसा करने पर लाखों अंगुलियां हमारी ओर उठने लग सकती थीं। इस लिए मैं चुपचाप बैठी रही थी।
                         
अगले दिन मैं स्कूल आकर सुबह ही इकबाल की राह ताकने लगी थी। लेकिन वह स्कूल नहीं आया था। फिर उससे अगले दिन भी स्कूल नहीं आया। इसी तरह कई दिन निकल गए। इकबाल का  'सिकनैस सर्टीफिकेट' (बीमारी की अर्जी) ही स्कूल पहुंचती रही थी। सारा स्कूल जानता था कि इकबाल बीमार है। लेकिन कौनसी बीमारी है, इसका किसी को कोई पता नहीं था। मैं सब जानती, समझती थी। उसकी बीमारी का कारण भी तथा निवारण भी। सूफी शायर बाबा बुल्ले शाह के कहे अनुसार  ''आशक दा की मारना बुल्लेया, जिहड़ा झिड़क दित्ती मर जावे" (अर्थात् आशिक को मारना क्या बड़ी बात है वह तो मामूली डांट से मर जाता है) मेरा इकबाल भी बाकी आशिकों की तरह बड़ा कोमल व जज्बाती निकला था। छोटी सी बात को पागल ने ऐसे ही दिल पर लगा लिया था।
                           
दिन-ब-दिन इकबाल को जीवन साथी बनाने का इरादा मेरे अंदर पक्का होता जा रहा था। लेकिन इकबाल से मुलाकत ही नहीं हो रही थी। उसके साथ संपर्क करने में वही समस्या आ रही थी, जिस समस्या का सामना इकबाल को मेरे साथ संपर्क  करने में करना पड़ा था। पहली बात तो मेरे पास इकबाल का फोन नबर ही नहीं था। अगर होता भी तो मैं उसे फोन नहीं कर सकती थी, क्योंकि एक बार इजबल ने इकबाल के घर फोन किया था तथा फोन इकबाल के पिता ने उठा लिया था। फोन करने का मकसद पूछने पर इजबल ने इकबाल के पिता को बता दिया था कि वह इकबाल की माशूका है। इस पर इकबाल को उसके माता-पिता से काफी डांट खानी पड़ी थी। सभी एशियन मां-बाप अपने बच्चों को ऐसे ही कहते हैं, ''तुहें, स्कूल पढऩे भेजा जाता है या इश्क फरमाने।"
                         
इकबाल स्कूल आकर इजबल से गुस्से हुआ था। इसी कारण इकबाल ने रजनी को घर फोन करने से मना कर रखा था। फोन करके मैं इकबाल व अपने लिए कोई बखेड़ा खड़ा नहीं करना चाहती थी। वह लड़का होने के कारण मेरे घर नहीं आ सकता था। मैं लड़क ी होने के कारण उसके घर नहीं जा सकती थी। मुहब्बत के जवान होने के लिए शुरुआती दिनों में दोनों प्रेमियों का निरंतर तालमेल बहुत अहम भूमिका निभाता है।
                       
माना कि इकबाल मेरे साथ खफा था। फिर क्या हुआ। उसे स्कूल तो आना ही चाहिए। वह अपनी पढ़ाई का नुक्सान करके अपनी जिंदगी अपना भविष्य क्यों खराब कर रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था। किसी लड़के के हाथ मैं तो उसे शुभ इच्छाओं का कार्ड भी नहीं  भेज सकती थी। सभी लड़के इकबाल से मेरे बोलने पर जल भुन जाते थे। मेरे सिवाए और भी कई सुंदर-सुंदर लड़कियां इकबाल की दीवानी थीं। इसी कारण तकरीबन सारे ही लड़के उस से खार (ईष्र्या) खाते थे। उस तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए लोकल रेडियो के फरमाईशी गीतों के कार्यक्रम में अपना नाम व पता गुप्त रखकर हर रोज इकबाल के नाम से गीत लगवाती थी। मुझ से इक बाल की जुदाई सहन नहीं होती थी। किसी प्यारे क ा बिछोडा सहन करना बहुत ही कठिन होता है। इसी लिए पीरों-फकीरों ने बिरहा को बहुत मान्यता दी है। शेख फरीद ने कहा है कि,
                 
  ''बिरहा  बिरहा  आखीए  बिरहा  तू  सुल्तान
रीदा जितु तलि बिरहु न उपजै सो तन जान मसान"

मेरा तन तो बिरहा के जज्बे से ओत-प्रोत हुआ पड़ा था। वैसे  मैं  एक बात से खुश भी थी, क्योंकि बिछोड़े  की कुठाली  में जलकर ही मुहब्बत का कुदन निखरता है।
                            
इकबाल के बारे में सोच-सोच कर मैं पागल हुई पड़ी थी। मैंने तो यहां तक सोच रखा था कि  जब इकबाल स्कूल आया तो मैं उसे अपना हाथ पकड़ा कर कहूंगी, ''चल मैं तेरे साथ चलती हूं, यहां तेरे व मेरे बिना कोई न हो। दूर इस दुनिया से एकांत जगह।" 

चारों पहर मैं, 'सोहनेयां, कल्ली नूं लै जा किते दूर' वाला पंजाबी गायक जोड़ी अमरजोत व चमकीले का गीत गुनगुनाती रहती। मेरे दिल से उसे मिलने की आशा उबल-उबल कर बाहर आ रही थी। मुझ से बिल्कु ल सब्र नहीं हो रहा था। उस समय मैं दो बातें ही सोचा करती थी। एक तो यह था कि इकबाल मेरी बाहों में आ जाए या फिर मैं मौत की आगोश में चली जाऊं। सोच-सोच कर मेरी कनपटी दर्द करने लगी थी, लेकिन उस से मिलने की कोई जुगत नहीं बन रही थी। अलबत्ता मेरी कोशिशें जारी थीं।

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