Monday 4 May 2015

कांड 2 -स्वर्ग से सुंदर

Cover Model: Madhuri Gautam Photography by Vicku Singh Gaurav Sharma & Rishu Kaushik Makeup by Gagz Brar

हरा-भरा संसार था हमारा। मैं अमी, अब्बू, मेरी दो बहनें तथा दो भाई। ये थी हमारी दुनिया। एक बहन के बिना बाकी सभी मेरे बहन-भाई मुझे से छोटे थे। नाजीया सबसे बड़ी थी। उसके दो साल बाद मेरा जन्म हुआ था। मुझ से सलीम एक साल छोटा था। सलीम की पैदायश से पूरे तीन साल बाद गफूर का जन्म हुआ था, तथा आगे राजीया का गफूर से चार साल का अंतर था। आम मुस्लिम परिवारों की तरह हमारा परिवार भी चाहे कु छ बड़ा ही था। लेकिन फिर भी हम में से कोई भी किसी दूसरे सदस्य को गैरजरुरी नहीं समझता था। कोई भी किसी दूसरे सदस्य को गैरजरुरी नहीं समझता था। जुराब से लेकर सिर की चुनरी तक जैसे एक औरत के पहने हुए सभी वस्त्रों का अपना-अपना महत्त्व होता है। सलवार की जगह कु त्र्ता या ब्लाऊज़ की जगह पेटीकोट नहीं पहना जा सकता। वैसे ही परिवार में सभी सदस्यों की अपनी-अपनी अहमीयत होती है। किसी भी सदस्य को हमारे परिवार में से अलग करके नहीं देखा जा सकता था। हम सभी में इतना ज्यादा प्यार था कि हम एक दूसरे की सौगंध तक नहीं उठाते थे।


ये बात अलग है कि हमारी बहन-भाइयों की कभी-कभी खट-पट भी हो जाया करती थी। बच्चों के लड़ाई-झगड़े क्या होते हैं, बेबुनियाद तथा कु छ ही लमहों के.....पानी पर खींची लकीर की तरह। एक दो दिन लड़-झगड़ कर हम फिर से आपस में इस तरह घुल मिल जाते थे, जैसे कभी लड़े ही न हों। कभी-कभार अममी या अब्बू के साथ भी हम में से कोई एक रूठ जाता था। हमारे मां-बाप समझदारी से, अगर गर्म होने की जरुरत होती तो गुस्से से अगर नर्म होने की जरुरत होती तो लाड़ दुलार करके अपने नाराज हुए बच्चे को राजी कर लेते थे। हम बहुत सुखी व खु्शहाल थे। मिडलैंड काऊंटी के महानगर बर्मिंघम के एक मोजली नाम कस्बे में हमारा बड़ा सा छ: बैडरूम का घर था आमतौर पर इंगलैंड की मध्यवर्गीय जनता से बामुश्किल दो या तीन बैडरूम का घर ही खरीद होता है। चाहे हम आर्थिक रूप से कोई ज्यादा अमीर तो नहीं थे, लेकिन इतनी बुरी हालत भी नहीं थी। सुख-सुविधा की हर वस्तु हमारे घर में मौजूद थी। बहुत ही सुंदर ढंग़ से हमारा जीवन-यापन हो रहा था। कभी भी किसी रिश्तेदार या सज्जन-मित्र के आगे मेरे मां-बाप को अपनी जरुरत पूरी करने के लिए हाथ नहीं फैलाना पड़ा था।

जब अब्बा पाकिस्तान से यहां आए थे तो सुना है कि उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा था। कठिन समय में उन्होंने डटकर बीस-बाईस घंटे लगातार हर रोज काम किया था। अपने बचपन के बाद हाथ तंग होने पर एक दिन में उन्नीस-बीस घंटे टैक्सी चलाते हुए तो अब्बा को मैंने भी देखा है। दिन-रात सखत मेहनत करके अब्बा ने अममी के यहां आने से पहले ही घर भी खरीद लिया था। अममी ने भी यहां आकर आज-कल की औरतों की तरह मेकअप करके व गहने पहनकर गलियों-बाज़ारों के चक्कर नहीं लगाए थे। उसने तो अब्बा के कंधे से कंधा मिलाकर सारी उम्र काम किया था। सारा दिन अममी ने फैक्ट्री में जाकर कपड़ों की सिलाई करना व फिर घर आकर खाना पकाना करके हम बच्चों को सुलाकर फिर से आधी-आधी रात तक सिलाई का काम करना। रोटी, कपड़ा व मकान जैसी मूल इंसानी जरुरतों को पूरा करने के लिए दिन-रात कु त्ते की मौत मरे थे मेरे मां-बाप। इतना सब करने के बाद ही आर्थिक खुशहाली का मुंह देखने के काबिल हुए थे हम लोग। उसी तरह पारिवारिक जिममेवारियां निभाते-निभाते मेरे मां-बाप भी बूढ़े होते जा रहे थे।

बचपन में मां-बाप को हाड़़ तोड़ मेहनत करते देखकर मुझे बड़ा तरस आता था उन पर। मेरा दिल करता था कि मैं भी जल्दी-जल्दी बड़ी होकर कमाने लग जाऊं ताकि मैं भी खर्च में हाथ बंटा सकंू । फिर मुझे खयाल आता कि मां-बाप की आर्थिक सहायता करने के  लिए मेरा बड़ा होना कोई जरुरी नहीं है। बहुत से मेरी उम्र के बच्चे स्कूल से आकर फालतू समय में छोटा-मोटा काम करके  अपना जेब खर्च चलाते हैं। अगर चाहते तो हम सभी भाई-बहन छुट्टियों में या सप्ताहांत पर कोई न कोई पार्ट-टाईम काम धंधा कर सकते थे। लेकि न अब्बा व अममी ने कभी भी हमें कु छ भी नहीं करने दिया था। वे खुद तंग-परेशान हो लेते थे। हमें खुला खर्च मिलता था। अगर कहीं हम गोरों के  घर पैदा हुए होते तो उन्होंने हमें अखबार बेचने लगा देना था या चिप्स-शॉप पर लगा देना था। ऐसा न होने पर कहना था कि ''पॅब में जाकर गिलास भरो। पहले कमाई करो, फिर जहां दिल करे ऐश उड़ाओ।"  

अंग्रेज लोग ऐसे ही करते हैं। अपने पेट से जन्म लेने वाले बच्चे को भी, अगर वह काम न करे तो मुफत में खाने को नहीं देते। इस लिहाज से एशियन लोग अच्छे हैं। सारी उम्र औलाद के लिए कमाते-कमाते मर जाते हैं। बच्चे भी तभी ऐसे मां-बाप की सेवा करते हैं। गोरे लोग केयर सेंटरों, वृद्ध आश्रमों में ही अनाथों की तरह मर जाते हैंं। कोई लाश को दफनाने वाला भी नहीं होता। हमारे एशियन लोग फिर भी इन लोगों से सौ गुणा अच्छे हैं।

वैसे मां-बाप के  काम आने की भावना मेरे अकेली के मन में ही नहीं थी, हम सबके दिल में थी। एक बार अब्बा के कंधे में समस्या थी। उन्होंने कार का पंक्चर हुआ चक्का बदलना था। एक हाथ से उन्होंने ने दुखी-सुखी होकर जैक तो लगा लिया था। लेकिन उनके चक्के के नट (पेंच) नहीं खुल रहे थे। मेरा छोटा भाई गफूर (जो उस समय 6 साल का था) भागा-भागा आया तथा अब्बा के हाथ से स्पैनर (चाबी) पकड़ कर कहने लगा, ''आप एक तरफ हो जाएं अब्बा जान, मैं टायर बदल देता हूं।" 

उसकी बात सुनकर अब्बा बहुत खुश हुए कि पुत्र को पिता की मदद का कितना खयाल है। फिर हम सभी बहन-भाई गए तथा सबने इक्ठ्ठे होकर टायर बदली किया। क्योंकि गफूर तो स्पैनर भी ठीक से नहीं पकड़ सकता था।

एक बार कैटालॉग के पन्ने पलटते हुए मुझे एक कोटी (स्वैटर) पसंद आ गई। मैंने अममी-अब्बू को वह कोटी लेकर देने को कहा तो अममी कोटी की महंगी कीमत देख कर टाल-मटोल सी करने लगी तथा कहा, '' शाजीया तूने कोटी क्या करनी है तेरे पास तो बहुत सी कोटियां हैं।"  

मुझे नहीं पता, ''मैंने तो यह कोटी लेनी ही लेनी है।" 

मैंने जिद्द पकड़ ली थी। मेरी जिद्द देखकर अममी-अब्बू रजमंद हो गए तथा उन्होंने उसी समय फोन करके कोटी आर्डर कर दी थी। अगले दिन पार्सल में कोटी आई बाद में, लेकिन मैं पहले ही पहन कर सब को दिखाती घूम रही थी। सारे परिवार ने कहा कि मेरे पहनी हुई कोटी खूब जंच रही थी। बस एक नाजीया ही थी, जो मुझे कोटी पहने देख कर चुप कर गई थी। मैंने नाजीया से बड़ी हसरत के साथ पूछा था, ''बाजी आपको मेरी पहनी हुई यह कोटी कैसी लगती है।"

''देख साजीया तुझे इस कोटी की कोई जरुरत नहीं थी तूने ऐसे ही बिना वजह अपनी जिद्द पूरी की है। अब्बू सारी रात टैक्सी चलाते समय ठंड से मरते हैं। उन्हें गर्म कोट की जरुरत थी। बड़ी मुश्किल से उन्होंने कई हफतों में थोड़ा-थोड़ा करके कोट खरीदने के लिए कु छ पैसे की बचत की थी, और वह पैसे तूने कोटी पर खर्च करवा दिए।"

नाजीया से यह बात सुनकर मैं बहुत पछताई थी। मुझे तो यह सब पता ही नहीं था कि अब्बा को गर्म कोट की जरुरत थी तथा घर के आर्थिक  संकट से अनजान थी। मैंने उसी समय कोटी वापिस कर दी थी तथा उसके बदले में अब्बू के लिए एक गर्म जैकिट मंगवा ली थी। अब्बू को जब मैंने जैकिट का तोहफा दिया था। वह बहुत खुश हुए थे तथा मुझे आलिंगन में लेकर प्यार करते हुए कहने लगे, ''अब तू बच्ची नहीं रही हमारी अममा बन गई हो।"

एक और घटना मेरी याददाश्त में समाई हुई है। कपड़ों की सिलाई करते समय मशीन की सुई अममी की अंगुली में घुस कर टूट गई थी। हमने ऐंबूलैंस बुला ली तथा नाजीया के साथ जाकर अममी अस्पताल से सुई निकलवा कर पट्टी करवा लाई थी। घर आते ही दर्द कर रही अंगुली लेकर अममी फिर से मशीन पर बैठने को तैयार हो रही थी, पर नाजीया ने रोक दिया। ''अममी आपने सुना नहीं, डॉक्टर ने कहा था कि आपने हाथ को ज्यादा हिलाना डुलाना नहीं, बैठ कर आराम करो।"

नाजीया की बात पर ध्यान न देते हुए अममी बोली, ''ना बेटी आराम को क्या है। आराम तो हराम है। काम जल्दी पूरा करूं, फैक्ट्री वालों को जरुरी चाहिए। उन्होंने आर्डर पूरा  करके समय पर देना है।"  

"गोली मारो आर्डर-शॉर्डर को आप आराम करें। जान है तो जहान है।" हम सब अममी के पीछे पड़ गए थे।

''नहीं बेटा समझा करो"  अममी मशीन के  साथ नई सुई कसने लग पड़ी थी। 

''ठीक है अगर यही बात तो मैं आपकी जगह सिलाई कर देती हूं" नाजीया अममी को उठाकर खुद मशीन पर बैठ गई थी। खुशकिस्मती से उस घटना से कु छ समय पहले ही नाजीया ने अममी से सिलाई मशीन चलानी सीखी थी। अममी को हम ये कहकर उनके शयन कक्ष में छोड़ आए थे, ''आप तसबी उठाओ व रजाई में बैठकर इबादत करो। हम सब काम संभाल लेंगे।"

जब तक अममी की अंगुली का जखम ठीक नहीं हुआ, तब तक नाजीया कपड़े सिलती रही। मैं खाना बना देती थी। राजीया व सलीम साफ-सफाई कर देते थे। गफूर हम में से जिसे भी जरुरत होती, उसी का हाथ बंटा देता था। इस तरह हमने मिल-जुलकर समय निकाल लिया था। इसी तरह जब भी कोई कठिनाई आती, हम मां-बाप को पूरा सहयोग देते थे। समझदार लोगों ने कहा है कि ''कर सेवा व खाओ मेवा"  सच में सेवा में मेवा होता है। मां-बाप की सेवा करके हमें बड़ी खुशी मिलती थी। वे भी हमें काम करता देखकर आशीष देते रहते थे, ''अल्लाह-ताला सबको तुमहारे जैसे नेक व आज्ञाकारी बच्चे दे।"  

मां-बाप के मुंह से जब ऐसे वचन निकलते थे तो हम अपना जन्म सफल हुआ समझते थे। जैसे मुर्गी अपने चूजों  को पंखों के नीचे छिपाए रखती है, उसी तरह हम मां-बाप क ी छत्र-छाया में पल रहे थे। मुझ से पहले मेरी बड़ी बहन जवान हो गई थी। वह काम पर भी लग गई थी, लेकिन मेरे मां-बाप ने एक दिन भी उसकी कमाई नहीं पकड़ी थी। वे कहते कि लड़कियों की कमाई नहीं खाई जाती। मेरी बहन अपनी सारी कमाई बैंक में जमा करवा देती थी। खुद चाहे मेरे मां-बाप दु:खी रहते या सुखी, लेकिन उन्होंने हमें कभी किसी चीज़ के लिए तरसने नहीं दिया था। मुंह से निकाल कर अपना निवाला हमें देते थे। हमारे घर को प्यार का मंदिर कहना हो तो बड़ी बात नहीं होगी। मर्द मकान बनाते हैं, औरत उसे घर में बदल देती है तथा उसमें रहने वालों की मुहब्बत घर को जन्नत बना देती है। हमारा घर भी असल में पूरे का पूरा स्वर्ग था, स्वर्ग, बल्कि स्वर्ग से भी सुंदर। और मैं क्या बताऊं। खुशियों का जखीरा था हमारा घर। वह घर जिसे देखने के लिए भी अब मैं तरस रही हूं।

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